सांख्ययोग ~ अध्याय दो
54-72 स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥2 .71॥
विहाय-त्याग कर; कामान्–भौतिक इच्छाएँ; यः-जो; सर्वान्–समस्त; पुमान्-पुरुष; चरति-रहता है; निःस्पृहः-कामना रहित; निर्ममाः-स्वामित्व की भावना से रहित; निरहंकारः-अहंकार रहित; सः-वह; शान्तिम्-पूर्ण शान्ति को; अधिगच्छति-प्राप्त करता है।
जिस मुनष्य ने अपनी सभी भौतिक इच्छाओं का परित्याग कर दिया हो और इन्द्रिय तृप्ति की लालसा, स्वामित्व के भाव , कामना और अंहकार से रहित हो गया हो, वह पूर्ण शांति प्राप्त कर सकता है।॥2 .71॥
‘विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः’ – अप्राप्त वस्तु की इच्छा का नाम कामना है। स्थितप्रज्ञ महापुरुष सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग कर देता है। कामनाओं का त्याग कर देने पर भी शरीर के निर्वाहमात्र के लिये देश , काल , वस्तु , व्यक्ति , पदार्थ आदि की जो आवश्यकता दिखती है अर्थात् जीवननिर्वाह के लिये प्राप्त और अप्राप्त वस्तु आदि की जो जरूरत दिखती है उसका नाम स्पृहा है। स्थितप्रज्ञ पुरुष इस स्पृहा का भी त्याग कर देता है। कारण कि जिसके लिये शरीर मिला था और जिसकी आवश्यकता थी उस तत्त्व की प्राप्ति हो गयी । वह आवश्यकता पूरी हो गयी। अब शरीर रहे चाहे न रहे , शरीरनिर्वाह हो चाहे न हो , इस तरफ वह बेपरवाह रहता है। यही उसका निःस्पृह होना है। निःस्पृह होने का अर्थ यह नहीं है कि वह निर्वाह की वस्तुओं का सेवन करता ही नहीं। वह निर्वाहकी वस्तुओं का सेवन भी करता है । पथ्य-कुपथ्य का भी ध्यान रखता है अर्थात् पहले साधनावस्था में शरीर आदि के साथ जैसा व्यवहार करता था वैसा ही व्यवहार अब भी करता है परन्तु शरीर बना रहे तो अच्छा है जीवननिर्वाहकी वस्तुएँ मिलती रहें तो अच्छा है ऐसी उसके भीतर कोई परवाह नहीं होती। इसी अध्याय के पचपनवें श्लोकमें प्रजहाति यदा कामान्सर्वान् पदोंसे कामनात्यागकी जो बात कही थी वही बात यहाँ ‘विहाय कामान्यः सर्वान्’ पदों से कही है। इसका तात्पर्य है कि कर्मयोग में सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग किये बिना कोई स्थितप्रज्ञ नहीं हो सकता क्योंकि कामनाओं के कारण ही संसार के साथ सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। कामनाओं का सर्वथा त्याग करने पर संसार के साथ सम्बन्ध रह ही नहीं सकता। ‘निर्ममः’ स्थितप्रज्ञ महापुरुष ममता का सर्वथा त्याग कर देता है। मनुष्य जिन वस्तुओं को अपनी मानता है । वे वास्तव में अपनी नहीं हैं बल्कि संसार से मिली हुई हैं। मिली हुई वस्तु को अपनी मानना भूल है। यह भूल मिट जाने पर स्थितप्रज्ञ वस्तु , व्यक्ति , पदार्थ , शरीर , इन्द्रियाँ आदि में ममतारहित हो जाता है। ‘निरहङ्कारः ‘- यह शरीर मैं ही हूँ इस तरह शरीर से तादात्म्य मानना अहंकार है। स्थितप्रज्ञमें यह अहंकार नहीं रहता। शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि सभी किसी प्रकाशमें दीखते हैं और जो मैंपन है उसका भी किसी प्रकाश में भान होता है। अतः प्रकाश की दृष्टि से शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , अहंता ( मैंपन) ये सभी दृश्य हैं। द्रष्टा दृश्यसे अलग होता है यह नियम है। ऐसा अनुभव हो जानेसे स्थितप्रज्ञ निरहंकार हो जाता है। ‘स शान्तिमधिगच्छति ‘ – स्थितप्रज्ञ शान्ति को प्राप्त होता है। कामना , स्पृहा , ममता और अहंता से रहित होनेपर शान्ति आकर प्राप्त होती है ऐसी बात नही है प्रत्युत शान्ति तो मनुष्यमात्रमें स्वतःसिद्ध है। केवल उत्पन्न एवं नष्ट होने वाली वस्तुओं से सुख भोगने की कामना करने से , उनसे ममता का सम्बन्ध रखने से ही अशान्ति होती है। जब संसार की कामना , स्पृहा , ममता और अहंता सर्वथा छूट जाती है तब स्वतःसिद्ध शान्ति का अनुभव हो जाता है। इस श्लोक में कामना , स्पृहा , ममता और अहंता इन चारों में अहंता ही मुख्य है। कारण कि एक अहंता के निषेध से सबका निषेध हो जाता है अर्थात् यदि मैंपन ही नहीं रहेगा तो फिर मेरापन कैसे रहेगा ? और कामना भी कौन करेगा ? और किसलिये करेगा ?जब ‘निरहङ्कारः’ कहने मात्र से कामना आदि का त्याग उसके अन्तर्गत आ जाता था तो फिर कामना आदि के त्याग का वर्णन क्यों किया ? इसका उत्तर यह है कि कामना , स्पृहा , ममता और अहंता इन चारों में कामना स्थूल है। कामना से सूक्ष्म , स्पृहा , स्पृहा से सूक्ष्म ममता और ममतासे सूक्ष्म अहंता है। इसलिये संसारसे सम्बन्ध छोड़नेमें सबसे पहले कामनाका त्याग कर दिया जाय तो अन्य तीनका त्याग करना सुगम हो जाता है। कामना करने से कोई वस्तु नहीं मिलती। वस्तु तो जो मिलने वाली है वही मिलेगी। अतः कामना का त्याग कर देना चाहिये। कामना का त्याग करने के बाद भी स्पृहा रहती है। स्पृहा (शरीरनिर्वाह की आवश्यकता) पूरी हो जाय यह भी हमारे हाथकी बात नहीं है अर्थात् स्पृहा की पूर्ति में भी हम स्वतन्त्र नहीं है। जो होना है वह तो होगा ही फिर स्पृहा रखने से क्या लाभ ? अतः शरीर के लिये अन्न , जल , वस्त्र आदि की आशा छोड़ने से स्पृहा छूट जाती है। अहंता-ममता से रहित होने का उपाय कर्मयोग की दृष्टि से मेरा कुछ नहीं है क्योंकि मेरा किसी वस्तु , व्यक्ति , परिस्थिति , घटना , अवस्था आदि पर स्वतन्त्र अधिकार नहीं है। जब मेरा कुछ नहीं है तो मेरेको कुछ नहीं चाहिये क्योंकि अगर शरीर मेरा है तो मेरे को अन्न , जल , वस्त्र आदि की आवश्यकता है पर जब शरीर मेरा है ही नहीं तो मेरेको किसी की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। जब मेरा कुछ नहीं और मेरेको कुछ नहीं चाहिये तो फिर मैं क्या रहा क्योंकि मैं तो किसी वस्तु , शरीर , स्थिति आदि को पकड़ने से ही होता है। मेरे कहलाने वाले शरीर आदि का मात्र संसार के साथ सर्वथा अभिन्न सम्बन्ध है। इसलिये अपने कहलाने वाले शरीर आदि से जो कुछ करना है । वह सब केवल संसार के हित के लिये ही करना है क्योंकि मेरे को कुछ चाहिये ही नहीं। ऐसा भाव होने पर मैं का एकदेशीयपना आप सेआप मिट जाता है और कर्मयोगी अहंता-ममता से रहित हो जाता है। सांख्ययोग की दृष्टि से प्राणिमात्र को मैं हूँ । इस प्रकार अपने स्वरूप की स्वतःसिद्ध सत्ता (होनापन) का ज्ञान रहता है। इसमें मैं तो प्रकृति का अंश है और हूँ सत्ता है। यह हूँ वास्तव में मैं को लेकर है। अगर मैं न रहे तो हूँ नहीं रहेगा बल्कि है रहेगा। मैं हूँ तू है यह है और वह है ये चारों व्यक्ति और देशकाल को लेकर हैं। अगर इन चारों को अर्थात् व्यक्ति और देशकाल को न पकड़ें तो केवल है ही रहेगा है में ही स्थिति रहेगी। है में स्थिति होने से सांख्ययोगी अहंता-ममता से रहित हो जाता है। भक्तियोग की दृष्टि से जिसको मैं और मेरा कहते हैं वह सब प्रभु का ही है। कारण कि मेरी कहलाने वाली वस्तु पर मेरा किञ्चिन्मात्र भी अधिकार नहीं है परन्तु प्रभु का उस पर पूरा अधिकार है। वे जिस तरह वस्तु को रखते हैं जैसा रखना चाहते हैं वैसा ही होता है। अतः यह सब कुछ प्रभु का ही है। इसको प्रभु की ही सेवा में लगाना है। मेरे पास जो शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि है यह भी उन्हीं की है और मैं भी उन्हीं का हूँ। ऐसा भाव होने पर भक्तियोगी अहंता-ममता से रहित हो जाता है। कामना , स्पृहा , ममता और अहंता से रहित होने पर उसकी क्या स्थिति होती है ? इसका वर्णन आगे के श्लोक में करते हुए इस विषय का उपसंहार करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी