The bHagavad Gita chapter 2

 

 

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सांख्ययोग ~ अध्याय दो

54-72 स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा

 

 

Chapter 2 Bhagavad Gita Sankhya Yog

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।

स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥2 .72॥

 

एषा-ऐसे; ब्राह्मी-स्थितिः-भगवदप्राप्ति की अवस्थाः पार्थ-पृथापुत्र अर्जुन; न-कभी नहीं; एनाम्-इसको; प्राप्य-प्राप्त करके; विमुह्यति-मोहित होता है; स्थित्वा-स्थित होकर; अस्याम्-इसमें; अन्तकाले-मृत्यु के समय; अपि-भी; ब्रह्म निर्वाणं -माया से मुक्ति; ऋच्छति-प्राप्त करता है।

 

हे पार्थ! ऐसी अवस्था में रहने वाली प्रबुद्ध आत्मा जब ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लेती है, वह फिर कभी भ्रमित नहीं होती तब मृत्यु के समय भी इस दिव्य चेतना में स्थित सिद्ध योगी जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है और भगवान के परम धाम में प्रवेश करता है। अर्थात यह ब्राह्मी स्थिति ( ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति ) है । इसको प्राप्त होकर योगी कभी कोई मोहित नहीं होता। इस ब्राह्मी स्थिति में यदि अन्तकालमें भी स्थित हो जाय, तो निर्वाण अर्थात ब्रह्म ( ब्रह्मानंद ) की प्राप्ति हो जाती ।।2.72।।

 

‘एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ’ – यह ब्राह्मी स्थिति है अर्थात् ब्रह्म को प्राप्त हुए मनुष्य की स्थिति है। अहंकाररहित होने से जब व्यक्तित्व मिट जाता है  तब उसकी स्थिति स्वतः ही ब्रह्म में होती है। कारण कि संसार के साथ सम्बन्ध रखने से ही व्यक्तित्व था। उस सम्बन्ध को सर्वथा छोड़ देने से योगी की अपनी कोई व्यक्तिगत स्थिति नहीं रहती। अत्यन्त नजदीक का वाचक होने से यहाँ ‘एषा’ पद पूर्वश्लोक में आये ‘विहाय कामान्’ निःस्पृहः , निर्ममः और निरहङ्कारः पदों का लक्ष्य करता है। भगवान के मुख से तेरी बुद्धि जब मोहकलिल और श्रुतिविप्रतिपत्ति से तर जायगी तब तू योग को प्राप्त हो जायगा । ऐसा सुनकर अर्जुन के मन में यह जिज्ञासा हुई कि वह स्थिति क्या होगी ? इस पर अर्जुन ने स्थितप्रज्ञ के विषय में चार प्रश्न किये। उन चारों प्रश्नों का उत्तर देकर भगवान ने यहाँ वह स्थिति बतायी कि वह ब्राह्मी स्थिति है। तात्पर्य है कि वह व्यक्तिगत स्थिति नहीं है अर्थात् उसमें व्यक्तित्व नहीं रहता। वह नित्ययोग की प्राप्ति है। उसमें एक ही तत्त्व रहता है। इस विषय की तरफ लक्ष्य कराने के लिये ही यहाँ ‘पार्थ’ सम्बोधन दिया गया है। ‘नैनां प्राप्य विमुह्यति’ – जब तक शरीर में अहंकार रहता है तभी तक मोहित होने की सम्भावना रहती है परन्तु जब अहंकार का सर्वथा अभाव होकर ब्रह्म में अपनी स्थिति का अनुभव हो जाता है तब व्यक्तित्व टूटने के कारण फिर कभी मोहित होने की सम्भावना नहीं रहती। सत् और असत को ठीक तरह से न जानना ही मोह है। तात्पर्य है कि स्वयं सत् होते हुए भी असत के साथ अपनी एकता मानते रहना ही मोह है। जब साधक असत को ठीक तरह से जान लेता है तब असत से उसका सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है  (टिप्पणी प0 109)  और सत में अपनी वास्तविक स्थिति का अनुभव हो जाता है। इस स्थिति का अनुभव होने पर फिर कभी मोह नहीं होता (गीता 4। 35)। ‘स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति’ – यह मनुष्यशरीर केवल परमात्मप्राप्ति के लिये ही मिला है। इसलिये भगवान यह मौका देते हैं कि साधारण से साधारण और पापी से पापी व्यक्ति ही क्यों न हो अगर वह अन्तकाल में भी अपनी स्थिति परमात्मा में कर ले अर्थात् जडतासे अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर ले तो उसे भी निर्वाण (शान्त) ब्रह्म की प्राप्ति हो जायगी वह जन्म-मरण से मुक्त हो जायगा। ऐसी ही बात भगवान ने सातवें अध्याय के 30वें श्लोक में कही है कि अधिभूत , अधिदैव और अधियज्ञ एक भगवान ही हैं । ऐसा प्रयाणकाल में भी मेरेको जो जान लेते हैं वे मेरे को यथार्थरूप से जान लेते हैं अर्थात् मेरे को प्राप्त हो जाते हैं। आठवें अध्याय के पाँचवें श्लोक में कहा कि अन्तकाल में मेरा स्मरण करता हुआ कोई प्राण छोड़ता है वह मेरे को ही प्राप्त होता है इसमें सन्देह नहीं है। दूसरी बात उपर्युक्त पदों से भगवान उस ब्राह्मी स्थिति की महिमा का वर्णन करते हैं कि इसमें यदि अन्तकाल में भी कोई स्थित हो जाय तो वह शान्त ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। जैसे समबुद्धि के विषय में भगवान ने कहा था कि इसका थोड़ा सा भी अनुष्ठान महान भय से रक्षा कर लेता है (2। 40) ऐसे ही यहाँ कहते हैं कि अन्तकाल में भी ब्राह्मी स्थिति हो जाय , जडता से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाय तो निर्वाण ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है। इस स्थिति का अनुभव होने में जडता का राग ही बाधक है। यह राग अन्तकाल में भी कोई छोड़ देता है तो उसको अपनी स्वतःसिद्ध वास्तविक स्थिति का अनुभव हो जाता है। यहाँ यह शंका हो सकती है कि जो अनुभव उम्र भर में नहीं हुआ । वह अन्तकाल में कैसे होगा ? अर्थात् स्वस्थ अवस्था में तो साधक की बुद्धि स्वस्थ होगी , विचारशक्ति होगी , सावधानी होगी तो वह ब्राह्मी स्थिति का अनुभव कर लेगा परन्तु अन्तकाल में प्राण छूटते समय बुद्धि विकल हो जाती है , सावधानी नहीं रहती । ऐसी अवस्था में ब्राह्मी स्थिति का अनूभव कैसे होगा ? इसका समाधान यह है कि मृत्यु के समय में जब प्राण छूटते हैं तब शरीर आदि से स्वतः ही सम्बन्ध-विच्छेद होता है। यदि उस समय उस स्वतःसिद्ध तत्त्व की तरफ लक्ष्य हो जाय तो उसका अनुभव सुगमता से हो जाता है। कारण कि निर्विकल्प अवस्था की प्राप्ति में तो बुद्धि विवेक आदि की आवश्यकता है पर अवस्थातीत तत्त्व की प्राप्ति में केवल लक्ष्य की आवश्यकता है  (टिप्पणी प0 110) । वह लक्ष्य चाहे पहले के अभ्यास से हो जाय चाहे किसी शुभ संस्कार से हो जाय , चाहे भगवान या सन्त की अहैतु की कृपा से हो जाय , लक्ष्य होने पर उसकी प्राप्ति स्वतःसिद्ध है। यहाँ ‘अपि’ पद का तात्पर्य है कि अन्तकाल से पहले अर्थात् जीवित अवस्था में यह स्थिति प्राप्ति कर ले तो वह जीवन्मुक्त हो जाता है परन्तु अगर अन्तकाल में भी यह स्थिति हो जाय अर्थात् निर्मम -निरहंकार हो जाय तो वह भी मुक्त हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि यह स्थिति तत्काल हो जाती है। स्थिति के लिये अभ्यास करने , ध्यान करने , समाधि लगाने की किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। भगवान ने यहाँ कर्मयोग के प्रकरण में ‘ब्रह्मनिर्वाणम्’ पद दिया है। इसका तात्पर्य है कि जैसे सांख्ययोगी को निर्वाण ब्रह्म की प्राप्ति होती है । (गीता 5। 2426) ऐसे ही कर्मयोगी को भी निर्वाण ब्रह्म की प्राप्ति होती है। इसी बात को पाँचवें अध्याय के पाँचवें श्लोक में कहा है कि सांख्ययोगी द्वारा जो स्थान प्राप्त किया जाता है , वही स्थान कर्मयोगी द्वारा भी प्राप्त किया जाता है। विशेष बात – जड और चेतन ये दो पदार्थ है। प्राणिमात्र का स्वरूप चेतन है पर उसने जड का सङ्ग किया हुआ है। जड की तरफ आकर्षण होना पतन की तरफ जाना है और चिन्मयतत्त्व की तरफ आकर्षण होना उत्थान की तरफ जाना है अपना कल्याण करना है। जड की तरफ जाने में मोह की मुख्यता होती है और परमात्मतत्त्व की तरफ जाने में विवेक की मुख्यता होती है। समझने की दृष्टि से मोह और विवेक के दो-दो विभाग कर सकते हैं (1) अहंता-ममात युक्त मोह एवं कामनायुक्त मोह (2) सत असत का विवेक एवं कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक। प्राप्त वस्तु शरीरादि में अहंता-ममता करना यह अहंता-ममता युक्त मोह है और अप्राप्त वस्तु , घटना , परिस्थिति आदि की कामना करना यह कामनायुक्त मोह है। शरीरी (शरीर में रहने वाला) अलग है और शरीर अलग है , शरीरी सत् है और शरीर असत् है , शरीरी चेतन है और शरीर जड है । इसको ठीक तरह से अलग-अलग जानना सत – असत का विवेक है और कर्तव्य क्या है अकर्तव्य क्या है ? धर्म क्या है ? अधर्म क्या है ? इसको ठीक तरह से समझ कर उसके अनुसार कर्तव्य करना और अकर्तव्य का त्याग करना कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक है। पहले अध्याय में अर्जुन को भी दो प्रकार का मोह हो गया था जिसमें प्राणिमात्र फँसे हुए हैं। अहंता को लेकर हम दोषों को जानने वाले धर्मात्मा है और ममता को लेकर ये कुटुम्बी मर जायँगे यह अहंता-ममता युक्त मोह हुआ। हमें पाप न लगे , कुल के नाश का दोष न लगे , मित्रद्रोह का पाप न लगे , नरकों में न जाना पड़े । हमारे पितरों का पतन न हो यह कामनायुक्त मोह हुआ। उपर्युक्त दोनों प्रकार के मोह को दूर करने के लिये भगवान ने दूसरे अध्याय में दो प्रकार का विवेक बताया है । शरीरी-शरीर का सत – असत का , विवेक (2। 11 30) और कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक (2। 31 53)। शरीरी-शरीर का विवेक बताते हुए भगवान ने कहा कि मैं तू और ये राजा लोग पहले नहीं थे – यह बात भी नहीं और आगे नहीं रहेंगे यह बात भी नहीं अर्थात् हम सभी पहले भी थे और आगे भी रहेंगे तथा ये शरीर पहले भी नहीं थे और आगे भी नहीं रहेंगे तथा बीच में भी प्रतिक्षण बदल रहे हैं। जैसे शरीर में कुमार , युवा और वृद्धावस्था ये अवस्थाएँ बदलती हैं और जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्र धारण करता है । ऐसे ही जीव पहले शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करता है । यह तो अकाट्य नियम है। इसमें चिन्ता की , शोक की बात ही क्या है । कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक बताते हुए भगवान ने कहा कि क्षत्रिय के लिये युद्ध से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। अनायास प्राप्त हुआ युद्ध स्वर्गप्राप्ति का खुला दरवाजा है। तू युद्धरूप स्वधर्म का पालन नहीं करेगा तो  तुझे पाप लगेगा। यदि तू जय-पराजय , लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान करके युद्ध करेगा तो तुझे पाप नहीं लगेगा। तेरा तो कर्तव्यकर्म करने में ही अधिकार है , फल में कभी नहीं। तू कर्मफल का हेतु भी मत बन और कर्म न करने में भी तेरी आसक्ति न हो। इसलिये तू कर्मों की सिद्धि-असिद्धि में सम होकर और समता में स्थित होकर कर्मों को कर क्योंकि समता ही योग है। जो मनुष्य समबुद्धि से युक्त होकर कर्म करता है वह जीवित अवस्था में ही पुण्य-पाप से रहित हो जाता है। जब तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को और श्रुतिविप्रतिपत्ति को पार कर जायगी तब तू योग को प्राप्त हो जायगा।

 

इस प्रकार ॐ तत् सत् इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या औ योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में सांख्ययोग नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ।।2।।

 

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥2॥

 

 

 

 

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