चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये ।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए ।
चलती चक्की को देखकर कबीर दास जी के आँसू निकल आते हैं और वो कहते हैं कि चक्की के पाटों के बीच में कुछ साबुत नहीं बचता।दो पत्थरों के पहियों के निरंतर आपसी घर्षण के बीच कोई भी गेहूं का दाना या दाल साबूत नहीं रह जाती, वह टूटकर या पिस कर आंटे में परिवर्तित हो रहे हैं। कबीर दास जी अपने इस दोहे से कहना चाहते है कि जीवन के इस संघर्ष में लोग किस प्रकार अपने जीवन का असली उद्देश्य खोते जा रहे हैं, सभी लोग जीवन की भौतिक वस्तुओं को पाने के लिए मेहनत करते रहते हैं परन्तु अपने जीवन के आध्यात्मिक उद्देश्य को ना तो पाना चाहते और ना ही उसकी तरफ ध्यान दे पाते हैं, क्योकि जीवन के अंतिम समय में मनुष्य के केवल उसके आध्यात्मिक कर्म ही उसका साथ देते है ना की कोई भौतिक वस्तु।