राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय
अध्याय नौ : राज विद्या योग
राज विद्या द्वारा योग
11-15 भगवान का तिरस्कार करने वाले आसुरी प्रकृति वालों की निंदा और देवी प्रकृति वालों के भगवद् भजन का प्रकार
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्यम् ॥9.13॥
महाआत्मनः-महान जीवात्माएँ तु-लेकिन; माम्-मुझको; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; दैवीम्-प्रकृतिम्-दिव्य शक्ति; आश्रिताः-शरणग्रहण करना; भजन्ति-भक्ति में लीन; अनन्यमनसः-अविचलित मन से; ज्ञात्वा-जानकर; भूत-समस्त सृष्टि; आदिम्-उदगम; अव्ययम्-अविनाशी।
परंतु हे कुन्तीपुत्र! दैवी प्रकृति के आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त होकर निरंतर भजते हैं अर्थात महान आत्माएँ जो मेरी दिव्य शक्ति का आश्रय लेती हैं, वे मुझे समस्त सृष्टि के उद्गम के रूप में जान लेती हैं और मुझे समस्त भूतों का आदिकारण और अव्ययस्वरूप जानकर वे अपने मन को केवल मुझमें स्थिर कर मेरी अनन्य भक्ति करती हैं॥9.13॥
(‘महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः’ – पूर्वश्लोक में जिन आसुरी , राक्षसी और मोहिनी स्वभाव के आश्रित मूढ़ लोगों का वर्णन किया था? उनसे दैवी सम्पत्ति के आश्रित महात्माओं की विलक्षणता बताने के लिये ही यहाँ ‘तु’ पद आया है। ‘दैवीं प्रकृतिम्’ – अर्थात् दैवी सम्पत्ति में देव नाम परमात्मा का है और परमात्मा की सम्पत्ति दैवी सम्पत्ति कहलाती है। परमात्मा सत् हैं , अतः परमात्मा की प्राप्ति कराने वाले जितने गुण और आचरण हैं , उनके साथ सत् शब्द लगता है अर्थात् वे सद्गुण और सदाचार कहलाते हैं। जितने भी सद्गुण-सदाचार हैं वे सब के सब भगवत्स्वरूप हैं अर्थात् वे सभी भगवान के ही स्वभाव हैं और स्वभाव होने से ही उनको प्रकृति कहा गया है। इसलिये दैवी प्रकृति का आश्रय लेना भी भगवान का ही आश्रय लेना है। दैवी सम्पत्ति के जितने भी गुण हैं (गीता 16। 1 -3) वे सभी सामान्य गुण हैं और स्वतःसिद्ध हैं अर्थात् इन गुणोंपर सभी मनुष्यों का पूरा अधिकार है। अब कोई इन गुणों का आश्रय ले या न ले — यह तो मनुष्यों पर निर्भर है परन्तु जो इनका आश्रय लेकर परमात्मा की तरफ चलते हैं , वे अपना कल्याण कर लेते हैं। एक खोज होती है और एक उत्पत्ति होती है। खोज नित्यतत्त्व की होती है जो कि पहले से ही है। जिस वस्तु की उत्पत्ति होती है , वह नष्ट होने वाली होती है। दैवी सम्पत्ति के जितने सद्गुण-सदाचार हैं उनको भगवान के और भगवत्स्वरूप समझकर धारण करना , उनका आश्रय लेना खोज है। कारण कि ये किसी के उत्पन्न किये हुए नहीं है अर्थात् ये किसी की व्यक्तिगत उपज , बपौती नहीं हैं। जो इन गुणों को अपने पुरुषार्थ के द्वारा उपार्जित मानता है अर्थात् स्वाभाविक न मानकर अपने बनाये हुए मानता है , उसको इन गुणों का अभिमान होता है। यह अभिमान ही वास्तव में प्राणी की व्यक्तिगत उपज है जो नष्ट होने वाली है। जब मनुष्य दैवी गुणों को अपने बल के द्वारा उपार्जित मानता है और मैं सत्य बोलता हूँ , दूसरे सत्य नहीं बोलते – इस तरह दूसरों की अपेक्षा अपने में विशेषता मानता है तब उसमें इन गुणों का अभिमान पैदा हो जाता है परन्तु इन गुणों को केवल भगवान के ही गुण मानने से और भगवत्स्वरूप समझकर इनका आश्रय लेने से अभिमान पैदा नहीं होता। दैवी सम्पत्ति के अधूरेपन में ही अभिमान पैदा होता है। दैवी सम्पत्ति के (अपने में ) पूर्ण होने पर अभिमान पैदा नहीं होता। जैसे किसी को मैं सत्यवादी हूँ – इसका अभिमान होता है तो उसमें सत्यभाषण के साथ-साथ आंशिक असत्य भाषण भी है। अगर सर्वथा सत्यभाषण हो तो मैं सत्य बोलने वाला हूँ – इसका अभिमान नहीं हो सकता बल्कि उसका यह भाव रहेगा कि मैं सत्यवादी हूँ तो मैं असत्य कैसे बोल सकता हूँ , मनुष्य में दैवी सम्पत्ति तभी प्रकट होती है जब उसका उद्देश्य केवल भगवत्प्राप्ति का हो जाता है। भगवत्प्राप्ति के लिये दैवी गुणों का आश्रय लेकर ही वह परमात्मा की तरफ बढ़ सकता है। दैवी गुणों का आश्रय लेने से उसमें अभिमान नहीं आता बल्कि नम्रता , सरलता , निरभिमानता आती है और साधन में नित्य नया उत्साह आता है। जो मनुष्य भगवान से विमुख होकर उत्पत्तिविनाशशील भोगों और उनके संग्रह में लगे हुए हैं , वे अल्पात्मा हैं अर्थात् मूढ़ हैं परन्तु जिन्होंने भगवान का आश्रय लिया है जिनकी मूढ़ता चली गयी है और जिन्होंने केवल प्रभु के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लिया है तो महान के साथ सम्बन्ध जोड़ने से सत्यतत्त्व की तरफ ही लक्ष्य होनेसे वे महात्मा हैं। ‘भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्’ – मैं सम्पूर्ण प्राणियों का आदि हूँ और अविनाशी हूँ। तात्पर्य है कि संसार उत्पन्न नहीं हुआ था उस समय में मैं था और सब संसार लीन हो जायगा उस समय में भी मैं रहूँगा – ऐसा मैं अनादि ,अनन्त हूँ। अनन्त ब्रह्माण्ड , अनन्त सृष्टियाँ , अनन्त स्थावर-जङ्गम प्राणी मेरे से उत्पन्न होते हैं , मेरे में ही स्थित रहते हैं , मेरे द्वारा ही पालित होते हैं और मेरे में ही लीन होते हैं परन्तु मैं ज्यों का त्यों निर्विकार रहता हूँ अर्थात् मेरे में कभी किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं आती। सांसारिक वस्तुओं का यह नियम है कि किसी वस्तु से कोई चीज उत्पन्न होती है तो उस वस्तु में कमी आ जाती है जैसे – मिट्टी से घड़े पैदा होने पर मिट्टी में कमी आ जाती है सोने से गहने पैदा होने पर सोने में कमी आ जाती है आदि परन्तु मेरे से अनन्त सृष्टियाँ पैदा होने पर भी मेरे में किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं आती क्योंकि मैं सबका अव्यय बीज हूँ (गीता 9। 18)। जिन मनुष्यों ने मेरे को अनादि और अव्यय जान लिया है वे अनन्य मन से मेरा ही भजन करते हैं। जो जिसके महत्त्व को जितना अधिक जानता है वह उतना ही अधिक उसमें लग जाता है। जिन्होंने भगवान को सर्वोपरि जान लिया है वे भगवान में ही लग जाते हैं। उनकी पहचान के लिये यहाँ ‘अनन्यमनसः’ पद आया है। उनका मन भगवान में ही लीन हो जाने से उनकी वृत्ति इस लोक के और परलोक के भोगों की तरफ कभी नहीं जाती। भोगों में उनकी महत्त्वबुद्धि नहीं रहती। अनन्य मन वाला होने का तात्पर्य है कि उनके मन में अन्य का आश्रय नहीं है , सहारा नहीं है , भरोसा नहीं है , अन्य किसी में आकर्षण नहीं है और केवल भगवान में ही अपनापन है। इस प्रकार अनन्य मन से वे भगवान का भजन करते हैं। भगवान का भजन किसी तरह से किया जाय उससे लाभ ही होता है परन्तु भगवान के साथ अनन्य होकर मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं ऐसा सम्बन्ध जोड़कर थोड़ा भी भजन किया जाय तो उससे बहुत लाभ होता है। कारण कि अपनेपन का सम्बन्ध (भावरूप होने से) नित्य-निरन्तर रहता है जब कि क्रिया का सम्बन्ध नित्यनिरन्तर नहीं रहता , क्रिया छूटते ही उसका सम्बन्ध छूट जाता है। इसलिये सबके आदि और अविनाशी परमात्मा मेरे हैं और मैं उनका हूँ – ऐसा जिसने मान लिया है वह अपने आप को भगवान के चरणों में अर्पित करके शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि से जो कुछ भी शारीरिक , व्यावहारिक , लौकिक , वैदिक , पारमार्थिक कार्य करता है। वह सब भजन रूप से प्रभु की प्रसन्नता के लिये ही होता है – यही उसका अनन्य मन से भजन करना है। इसका वर्णन गीता में जगह-जगह हुआ है (जैसे? 8। 14 9। 22 12। 6 14। 26)। पीछे के श्लोक में भजन करने वालों का वर्णन करके अब भगवान आगे के श्लोक में उनके भजन का प्रकार बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )