राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय
अध्याय नौ : राज विद्या योग
राज विद्या द्वारा योग
16 – 19 सर्वात्म रूप से प्रभाव सहित भगवान के स्वरूप का वर्णन
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥9.18॥
गति:-परम लक्ष्य; भर्ता-पालक; प्रभुः-स्वामी; साक्षी-गवाह; निवासः-धाम; शरणम्-शरण; सुहृत्-परम मित्र; प्रभवः-मूल; प्रलयः-संहार; स्थानम्-भण्डारग्रह; निधानम्-आश्रय, स्थल; बीजम्-बीज, कारण-कारण; अव्ययम्-अविनाशी।
प्राप्त होने योग्य परम धाम, भरण-पोषण करने वाला, सबका स्वामी, शुभाशुभ का देखने वाला, सबका वास स्थान, शरण लेने योग्य, प्रत्युपकार न चाहकर हित करने वाला अत्यंत प्रिय मित्र , सबकी उत्पत्ति-प्रलय का हेतु, स्थिति का आधार, निधान ( प्रलयकाल में संपूर्ण भूत सूक्ष्म रूप से जिसमें लय होते हैं ) और अविनाशी कारण भी मैं ही हूँ अर्थात मैं सभी प्राणियों का परम लक्ष्य हूँ और मैं ही सबका निर्वाहक, स्वामी, धाम, आश्रयऔर मित्र हूँ। मैं ही सृष्टि का आदि, अन्त और मध्य (विश्रामस्थल) और मैं ही भण्डारग्रह और अविनाशी बीज हूँ॥9.18॥
(‘गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्’ – प्राणियों के लिये जो सर्वोपरि प्रापणीय तत्त्व है वह गतिस्वरूप मैं ही हूँ। संसारमात्र का भरण-पोषण करने वाला भर्ता और संसार का मालिक प्रभु मैं ही हूँ। सब समय में सबको ठीक तरह से जानने वाला साक्षी मैं हूँ। मेरे ही अंश होने से सभी जीव स्वरूप से नित्यनिरन्तर मेरे में ही रहते हैं इसलिये उन सबका निवास स्थान मैं ही हूँ। जिसका आश्रय लिया जाता है वह शरण अर्थात् शरणागतवत्सल मैं ही हूँ। बिना कारण प्राणिमात्र का हित करने वाला सुहृद् अर्थात् हितैषी भी मैं हूँ। ‘प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ‘ – सम्पूर्ण संसार मेरे से ही उत्पन्न होता है और मेरे में ही लीन होता है इसलिये मैं प्रभव और प्रलय हूँ अर्थात् मैं ही संसार का निमित्तकारण और उपादानकारण हूँ (गीता 7। 6)। महाप्रलय होने पर प्रकृति सहित सारा संसार मेरे में ही रहता है इसलिये मैं संसार का स्थान (टिप्पणी प0 505.1) हूँ। संसार की चाहे सर्ग अवस्था हो , चाहे प्रलय-अवस्था हो , इन सब अवस्थाओं में प्रकृति , संसार , जीव तथा जो कुछ देखने , सुनने , समझने में आता है वह सब का सब मेरे में ही रहता है इसलिये मैं निधान हूँ। सांसारिक बीज तो वृक्ष से पैदा होता है और वृक्ष को पैदा करके नष्ट हो जाता है परन्तु ये दोनों ही दोष मेरे में नहीं हैं। मैं अनादि हूँ अर्थात् पैदा होने वाला नहीं हूँ और अनन्त सृष्टियाँ पैदा करके भी जैसा का तैसा ही रहता हूँ। इसलिये मैं अव्यय बीज हूँ – स्वामी रामसुखदास जी )