राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय
अध्याय नौ : राज विद्या योग
राज विद्या द्वारा योग
16 – 19 सर्वात्म रूप से प्रभाव सहित भगवान के स्वरूप का वर्णन
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥9.19॥
तपामि-गर्मी पहुँचाता हूँ; अहम् – मैं; वर्षम्-वर्षा; निगृह्णामि-रोकना; उत्सृजामि-लाता हूँ; च-और; अमृतम्-अमरत्व; च-और; एव-निश्चय ही; मृत्युः-मृत्यु; च-और; सत्-शाश्वत आत्मा; असत्-अस्थायी पदार्थ; च-तथा; अहम्-मैं; अर्जुन-अर्जुन।
हे अर्जुन! मैं ही सूर्य को गर्मी प्रदान करता हूँ तथा वर्षा को रोकता और लाता हूँ। मैं अमरत्व तत्त्व ( अमृत ) और साक्षात् मृत्यु भी हूँ। मैं ही आत्मा और सत तथा असत पदार्थ भी मैं ही हूँ अर्थात (संसारके हितके लिये) मैं ही सूर्य रूप से तपता हूँ, जल को ग्रहण करता हूँ और फिर उस जल को वर्षा रूप से बरसा देता हूँ। देवों का अमृत और मर्त्यलोक में बसने वालों की मृत्यु मैं ही हूँ॥9.19॥
(‘तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च’ – पृथ्वी पर जो कुछ अशुद्ध , गंदी चीजें हैं जिनसे रोग पैदा होते हैं उनका शोषण करके प्राणियों को निरोग करने के लिये (टिप्पणी प0 505.2) अर्थात् औषधियों , जड़ी-बूटियों में जो जहरीला भाग है उसका शोषण करने के लिये और पृथ्वी का जो जलीय भाग है जिससे अपवित्रता होती है उसको सुखाने के लिये मैं ही सूर्यरूप से तपता हूँ। सूर्यरूप से उन सब के जलीय भाग को ग्रहण करके और उस जल को शुद्ध तथा मीठा बना करके समय आने पर वर्षारूप से प्राणिमात्र के हित के लिये बरसा देता हूँ जिससे प्राणिमात्र का जीवन चलता है। ‘अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन’ – मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ अर्थात् मात्र जीवों का प्राण धारण करते हुए जीवित रहना (न मरना) और सम्पूर्ण जीवों के पिण्ड प्राणों का वियोग होना (मरना) भी मैं ही हूँ , और तो क्या कहूँ? सत् – असत , नित्य-अनित्य , कारण-कार्यरूप से जो कुछ है , वह सब मैं ही हूँ। तात्पर्य है कि जैसे महात्मा की दृष्टि में सब कुछ वासुदेव (भगवत्स्वरूप) ही है – ‘वासुदेवः सर्वम्’ ऐसे ही भगवान की दृष्टि में सत् – असत , कारण-कार्य सब कुछ भगवान ही हैं परन्तु सांसारिक लोगों की दृष्टि में सब एक-दूसरे से विरुद्ध दिखते हैं जैसे – जीना और मरना अलग-अलग दिखता है , उत्पत्ति और विनाश अलग-अलग दिखता है , स्थूल और सूक्ष्म अलग-अलग दिखते हैं , सत्त्व-रज-तम – ये तीनों अलग-अलग दिखते हैं ,कारण और कार्य अलग-अलग दिखते हैं , जल और बर्फ अलग-अलग दिखते हैं परन्तु वास्तव में संसाररूप में भगवान ही प्रकट होने से भगवान ही बने हुए होने से सब कुछ भगवत्स्वरूप ही है। भगवान के सिवाय उसकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। जैसे सूत से बने हुए सब कपड़ों में केवल सूत ही सूत है – ऐसे ही वस्तु , व्यक्ति , क्रिया , पदार्थ आदि सब कुछ केवल भगवान ही भगवान हैं। जगत की रचना तथा विविध परिवर्तन मेरी अध्यक्षता में ही होता है परन्तु मेरे इस प्रभाव को न जानने वाले मूढ़ लोग आसुरी , राक्षसी और मोहिनी प्रकृति का आश्रय लेकर मेरी अवहेलना करते हैं इसलिये वे पतन की ओर जाते हैं। जो भक्त मेरे प्रभाव को जानते हैं , वे मेरे दैवी गुणोंका आश्रय लेकर अनन्य मन से मेरी विविध प्रकार से उपासना करते हैं इसलिये उनको सत् – असत सब कुछ एक परमात्मा ही हैं – ऐसा यथार्थ अनुभव हो जाता है परन्तु जिनके अन्तःकरण में सांसारिक भोग और संग्रह की कामना होती है वे वास्तविक तत्त्व को न जानकर भगवान से विमुख होकर स्वर्गादि लोकों के भोगों की प्राप्ति के लिये सकामभावपूर्वक यज्ञादि अनुष्ठान किया करते हैं इसलिये वे आवागमन को प्राप्त होते हैं – इसका वर्णन भगवान आगे के दो श्लोकों मे करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )