राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय
अध्याय नौ : राज विद्या योग
राज विद्या द्वारा योग
20-25 सकाम और निष्काम उपासना का फल
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥9.23॥
ये-जो; अपि-यद्यपि; अन्य-दूसरे; देवता-देवताओं के; भक्ताः-भक्त; यजन्ते-पूजते हैं; श्रद्धयाअन्विताः- श्रद्धा युक्त; ते–वे; अपि-भी; माम् -मुझको; एव-केवल; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; यजन्ति-पूजा करते हैं; अविधि-पूर्वकम् त्रुटिपूर्ण ढंग से।
हे अर्जुन! यद्यपि जो सकाम भक्त श्रद्धापूर्वक दूसरे देवताओं को पूजते हैं, वे भी मुझको ही पूजते हैं, किंतु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक अर्थात् अज्ञानपूर्वक है अर्थात वे यह सब अनुचित या त्रुटिपूर्ण ढंग से करते हैं॥9.23॥
( येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः – देवताओं के जिन भक्तों को , ‘सब कुछ मैं ही हूँ’ (सदसच्चाहम् 9। 19) – यह समझ में नहीं आया है और जिनकी श्रद्धा अन्य देवताओं पर है वे उन देवताओं का ही श्रद्धापूर्वक पूजन करते हैं। वे देवताओं को मेरे से अलग और बड़ा मानकर अपनी-अपनी श्रद्धा-भक्ति के अनुसार अपने-अपने इष्ट देवता के नियमों को धारण करते हैं। इन देवताओं की कृपा से ही हमें सब कुछ मिल जायगा – ऐसा समझकर नित्य-निरन्तर देवताओं की ही सेवा-पूजा में लगे रहते हैं। ‘तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्’ – देवताओं का पूजन करने वाले भी वास्तव में मेरा ही पूजन करते हैं क्योंकि तत्त्व से मेरे सिवाय कुछ है ही नहीं। मेरे से अलग उन देवताओं की सत्ता ही नहीं है। वे मेरे ही स्वरूप हैं। अतः उनके द्वारा किया गया देवताओं का पूजन भी वास्तव में मेरा ही पूजन है पर है अविधिपूर्वक। अविधिपूर्वक कहने का मतलब यह नहीं है कि पूजन-सामग्री कैसी होनी चाहिये ? उनके मन्त्र कैसे होने चाहिये ? उनका पूजन कैसे होना चाहिये ? आदि-आदि विधियों का उनको ज्ञान नहीं है। इसका मतलब है – मेरे को उन देवताओं से अलग मानना जैसे कामना के कारण ज्ञान से हार जाने के कारण वे देवताओं के शरण होते हैं (गीता 7। 20)? ऐसे ही यहाँ मेरे से देवताओं की अलग (स्वतन्त्र) सत्ता मानकर जो देवताओं का पूजन करना है यही अविधिपूर्वक पूजन करना है। इस श्लोक का निष्कर्ष यह निकला कि (1) अपने में किसी प्रकार की किञ्चिन्मात्र भी कामना न हो और उपास्य में भगवद्बुद्धि हो तो अपनी-अपनी रुचि के अनुसार किसी भी प्राणी को , मनुष्य को और किसी भी देवता को अपना उपास्य मानकर उसकी पूजा की जाय तो वह सब भगवान का ही पूजन हो जायगा और उसका फल भगवान की ही प्राप्ति होगा और (2) अपने में किञ्चिन्मात्र भी कामना हो और उपास्यरूप में साक्षात् भगवान् हों तो वह अर्थार्थी? आर्त आदि भक्तोंकी श्रेणीमें आ जायगा? जिनको भगवान्ने उदार कहा है (7। 18)।वास्तवमें सब कुछ भगवान ही हैं। अतः जिस किसी की उपासना की जाय , सेवा की जाय , हित किया जाय , वह प्रकारान्तर से भगवान की ही उपासना है। जैसे आकाशसे बरसा हुआ पानी नदी? नाला? झरना आदि बनकर अन्तमें समुद्रको ही प्राप्त होता है (क्योंकि वह जल समुद्रका ही है)? ऐसे ही मनुष्य जिस किसी का भी पूजन करे वह तत्त्व से भगवान का ही पूजन होता है (टिप्पणी प0 509) परन्तु पूजक को लाभ तो अपनी-अपनी भावना के अनुसार ही होता है – स्वामी रामसुखदास जी )