राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय
अध्याय नौ : राज विद्या योग
राज विद्या द्वारा योग
20-25 सकाम और निष्काम उपासना का फल
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥9.24॥
अहम्-मैं; हि-वास्तव में; सर्व-सब का; यज्ञानाम्-यज्ञ; भोक्ता–भोग करने वाला; च-और; प्रभुः-भगवान; एव-भी; च-तथा; न-नहीं; तु-लेकिन; माम्-मुझको; अभिजानन्ति–अनुभव करना; तत्त्वेन-दिव्य प्रकृति; अतः-इसलिए; च्यवन्ति-पुनर्जन्म लेना (संसार में भटकना); ते-वे।
क्योंकि संपूर्ण यज्ञों का एकमात्र भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ, परंतु वे मुझ परमेश्वर को तत्त्व से नहीं जानते अर्थात मेरी दिव्य प्रकृति को पहचान नहीं पाते । इसी लिए वे गिरते हैं अर्थात् पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं॥9.24॥
[दूसरे अध्याय में भगवान ने कहा है कि जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं वे मेरे को केवल परमात्मा की तरफ ही चलना है — ऐसा निश्चय नहीं कर सकते (2। 44)। अतः परमात्मा की तरफ चलने में दो बाधाएँ मुख्य हैं – अपने को भोगों का भोक्ता मानना और अपने को संग्रह का मालिक मानना। इन दोनों से ही मनुष्य की बुद्धि उलटी हो जाती है जिससे वह परमात्मा से सर्वथा विमुख हो जाता है। जैसे बचनप में बालक माँ के बिना रह नहीं सकता पर बड़ा होने पर जब उसका विवाह हो जाता है तब वह स्त्री से ‘मेरी स्त्री है’ – ऐसा सम्बन्ध जोड़कर उसका भोक्ता और मालिक बन जाता है। फिर उसको माँ उतनी अच्छी नहीं लगती , सुहाती नहीं। ऐसे ही जब यह जीव भोग और ऐश्वर्य में लग जाता है अर्थात् अपने को भोगों का भोक्ता और संग्रह का मालिक मानकर उनका दास बन जाता है और भगवान से सर्वथा विमुख हो जाता है तो फिर उसको यह बात याद ही नहीं रहती कि सबके भोक्ता और मालिक भगवान हैं। इसी से उसका पतन हो जाता है परन्तु जब इस जीव को चेतना हो जाती है , ज्ञान हो जाता है कि वास्तव में मात्र भोगों के भोक्ता और मात्र ऐश्वर्य के मालिक भगवान् ही हैं तो फिर वह भगवान में लग जाता है , ठीक रास्ते पर आ जाता है। फिर उसका पतन नहीं होता।] ‘अहं हि सर्वयज्ञानां (टिप्पणी प0 510.1) भोक्ता च प्रभुरेव च’ – शास्त्र की आज्ञा के अनुसार मनुष्य यज्ञ , दान , तप , तीर्थ , व्रत आदि जितने शुभकर्म करते हैं तथा अपने वर्ण-आश्रम की मर्यादा के अनुसार जितने व्यावहारिक और शारीरिक कर्तव्य-कर्म करते हैं उन सब कर्मों का भोक्ता अर्थात् फलभागी मैं हूँ। कारण कि वेदों में , शास्त्रों में, पुराणों में , स्मृति-ग्रन्थों में प्राणियों के लिये शुभकर्मों का जो विधान किया गया है वह सब का सब मेरा ही बनाया हुआ है और मेरे को देने के लिये ही बनाया हुआ है जिससे ये प्राणी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों से और उनके फलों से सर्वथा निर्लिप्त रहें कभी अपने स्वरूप से च्युत न हों और अनन्य भाव से केवल मेरे में ही लगे रहें। अतः उन सम्पूर्ण शुभकर्मों का और व्यावहारिक तथा शारीरिक कर्तव्यकर्मों का भोक्ता मैं ही हूँ। जैसे सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता (फलभागी) मैं ही हूँ – ऐसे ही सम्पूर्ण संसार का अर्थात् सम्पूर्ण लोक , पदार्थ , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति , क्रिया और प्राणियों के शरीर , मन , बुद्धि , इन्द्रियाँ आदि का मालिक भी मैं ही हूँ। कारण कि अपनी प्रसन्नता के लिये ही मैंने अपने में से इस सम्पूर्ण सृष्टि की रचना की है । अतः इन सबकी रचना करने वाला होने से इनका मालिक मैं ही हूँ। विशेष बात- भगवान का भोक्ता बनना क्या है ? भगवान ने कहा है कि महात्माओं की दृष्टि में सब कुछ वासुदेव ही है (7। 19) और मेरी दृष्टि में भी सत् – असत सब कुछ मैं ही हूँ (9। 19)। जब सब कुछ मैं ही हूँ तो कोई किसी देवता की पुष्टि के लिये यज्ञ करता है , उस यज्ञ के द्वारा देवतारूप में मेरी ही पुष्टि होती है। कोई किसी को दान देता है तो दान लेने वाले के रूप में मेरा ही अभाव दूर होता है , उससे मेरी ही सहायता होती है। कोई तप करता है तो उस तप से तपस्वी के रूप में मेरे को ही सुख-शान्ति मिलती है। कोई किसी को भोजन कराता है तो उस भोजन से प्राणों के रूप में मेरी ही तृप्ति होती है। कोई शौच-स्नान करता है तो उससे उस मनुष्य के रूप में मेरे को ही प्रसन्नता होती है। कोई पेड़-पौधों को खाद देता है , उनको जल से सींचता है तो वह खाद और जल पेड़-पौधों के रूप में मेरे को ही मिलता है और उनसे मेरी ही पुष्टि होती है। कोई किसी दीन-दुःखी , अपाहिज की तन-मन-धन से सेवा करता है तो वह मेरी ही सेवा होती है। कोई वैद्य-डाक्टर , किसी रोगी का इलाज करता है तो वह इलाज मेरा ही होता है। कोई कुत्तों को रोटी डालता है , कबूतरों को दाना डालता है , गायों की सेवा करता है , भूखों को अन्न देता है , प्यासों को जल पिलाता है तो उन सबके रूपमें मेरी ही सेवा होती है। उन सब वस्तुओं को मैं ही ग्रहण करता हूँ (टिप्पणी प0 510.2)। जैसे कोई किसी मनुष्य की सेवा करे , उसके किसी अङ्ग की सेवा करे , उसके कुटुम्ब की सेवा करे तो वह सब सेवा उस मनुष्य की ही होती है। ऐसे ही मनुष्य जहाँ कहीं सेवा करे , जिस किसी की सहायता करे , वह सेवा और सहायता मेरे को ही मिलती है। कारण कि मेरे बिना अन्य कोई है ही नहीं। मैं ही अनेक रूपों में प्रकट हुआ हूँ – ‘बहु स्यां प्रजायेय’ (तैत्तिरीय0 2। 6)। तात्पर्य यह हुआ कि अनेक रूपों में सब कुछ ग्रहण करना ही भगवान का भोक्ता बनना है। भगवान का मालिक बनना क्या है ? भगवत्तत्त्व को जानने वाले भक्तों की दृष्टि में अपरा और परा प्रकृतिरूप मात्र संसार के मालिक भगवान ही हैं। संसारमात्र पर उनका ही अधिकार है। सृष्टि की रचना करें या न करें , संसार की स्थिति रखें या न रखें , प्रलय करें या न करें , प्राणियों को चाहे जहाँ रखें , उनका चाहे जैसा संचालन करें , चाहे जैसा उपभोग करें , अपनी मरजी के मुताबिक चाहे जैसा परिवर्तन करें आदि मात्र परिवर्तन-परिवर्द्धन करने में भगवान की बिलकुल स्वतन्त्रता है। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे भोगी पुरुष भोग और संग्रह का चाहे जैसा उपभोग करने में स्वतन्त्र है (जबकि उसकी स्वतन्त्रता मानी हुई है , वास्तव में नहीं है) ऐसे ही भगवान मात्र संसार का चाहे जैसा परिवर्तन-परिवर्द्धन करने में सर्वथा स्वतन्त्र हैं। भगवान की वह स्वतन्त्रता वास्तविक है। यही भगवान का मालिक बनना है। ‘न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते’ – वास्तव में सत् – असत , जड-चेतन आदि सब कुछ मैं ही हूँ। अतः जो भी कर्तव्यकर्म किये जायँ , उन कर्मों का और उनके फलों का भोक्ता मैं ही हूँ तथा सम्पूर्ण सामग्री का मालिक भी मैं ही हूँ परन्तु जो मनुष्य इस तत्त्व को नहीं जानते , वे तो यही समझते हैं कि हम जिस किसीको जो कुछ देते हैं , खिलाते हैं, पिलाते हैं वह सब उन-उन प्राणियों को ही मिलता है । जैसे – हम यज्ञ करते हैं तो यज्ञ के भोक्ता देवता बनते हैं । दान देते हैं तो दान का भोक्ता वह लेने वाला बनता है । कुत्तो को रोटी और गाय को घास देते हैं तो उस रोटी और घास के भोक्ता कुत्ता और गाय बनते हैं । हम भोजन करते हैं तो भोजन के भोक्ता हम स्वयं बनते हैं आदिआदि। तात्पर्य यह हुआ कि वे सब रूपों में मेरे को न मानकर अन्य को ही मानते हैं , इसी से उनका पतन होता है। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह किसी अन्य को भोक्ता और मालिक न मानकर केवल मेरे को ही भोक्ता और मालिक माने अर्थात् जो कुछ चीज दी जाय उसको मेरी ही समझकर मेरे अर्पण करे – ‘त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये’। दूसरा भाव यह है कि मनुष्य के पास जो कुछ भोग और ऐश्वर्य है वह सब मेरा ही है और मेरे विराट रूप से संसार की सेवा के लिये ही है परन्तु भोग और ऐश्वर्य में आसक्त मनुष्य उस तत्त्व को न जानने के कारण उस भोग और ऐश्वर्य को अपना और अपने लिये मान लेते हैं जिससे वे यही समझते हैं कि ये सब चीजें हमारे उपभोग में आने वाली हैं और हम इनके अधिपति हैं , मालिक हैं पर वास्तव में वे उन चीजों के गुलाम हो जाते हैं। वे जितना ही उन चीजों को अपनी और अपने लिये मानते हैं उतने ही उनके पराधीन हो जाते हैं। फिर वे उन चीजों के बनने-बिगड़ने से अपना बनना-बिगड़ना मानने लगते हैं। इसलिये उनका पतन हो जाता है। तात्पर्य यह हुआ कि मेरे को सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और मालिक जानने से मुक्ति हो जाती है और न जानने से पतन हो जाता है। ‘च्यवन्ति ‘ पद का तात्पर्य है कि भगवान को प्राप्त न होने से उनका पतन हो जाता है। वे शुभकर्म करके ऊँचे-ऊँचे लोकों में चले जायँ तो यह भी उनका पतन है क्योंकि वहाँ से उनको पीछे लौटकर आना ही पड़ता है (गीता 9। 21)। वे आवागमन को प्राप्त होते ही रहते हैं , मुक्त नहीं हो सकते। जो भगवान को सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और मालिक न मानकर देवता आदि का सकाम भाव से पूजन करते हैं उनकी गतियों का वर्णन आगे के श्लोक में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )