अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग
13-26 ज्ञानयोग का विषय
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कमर्फलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥5 .14॥
न–नहीं; कर्तृव्यम्-कर्त्तापन का बोध; न- न तो; कर्माणि-कर्मों के; लोकस्य–लोगों के; सृजति- उत्पन्न करता है; प्रभुः-भगवान; न- न तो; कर्म-फल-कर्मों के फल; संयोगम् -सम्बन्ध; स्वभावः-जीव की प्रकृति; तु-लेकिन; प्रवर्तते-कार्य करते हैं।
परमेश्वर लोकमात्र या मनुष्यों के लिए न तो कर्तापन के बोध की ( कर्त्तव्य की ), न कर्मों की और न कर्मफल के संयोग की रचना करते हैं, किन्तु यह सब प्रकृति ही कर रही है अर्थात यह सब प्रकृत्ति के गुणों से सृजित होते हैं॥ 5 .14॥
(‘न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः’ सृष्टि की रचना का कार्य सगुण भगवान का है इसलिये ‘प्रभुः’ पद दिया है। भगवान् सर्वसमर्थ हैं और सबके शासक और नियामक हैं। सृष्टि रचना का कार्य करने पर भी वे अकर्ता ही हैं (गीता 4। 13)। किसी भी कर्म के कर्तापन का सम्बन्ध भगवान का बनाया हुआ नहीं है। मनुष्य स्वयं ही कर्मों के कर्तापन की रचना करता है। सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के द्वारा किये जाते हैं परन्तु मनुष्य अज्ञानवश प्रकृति से तादात्म्य कर लेता है और उसके द्वारा होने वाले कर्मों का कर्ता बन जाता है (गीता 3। 27)। यदि कर्तापन का सम्बन्ध भगवान का बनाया हुआ होता तो भगवान् इसी अध्याय के 8वें श्लोक में ‘नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्’ ऐसा कैसे कहते ? तात्पर्य यह है कि कर्तापन भगवान् का बनाया हुआ नहीं है अपितु जीव का अपना माना हुआ है। अतः जीव इसका त्याग कर सकता है। भगवान् ऐसा विधान भी नहीं करते कि अमुक जीव को अमुक शुभ अथवा अशुभ कर्म करना प़ड़ेगा। यदि ऐसा विधान भगवान् कर देते तो विधिनिषेध बताने वाले शास्त्र , गुरु , शिक्षा आदि सब व्यर्थ हो जाते । उनकी कोई सार्थकता ही नहीं रहती और कर्मों का फल भी जीव को नहीं भोगना पड़ता। ‘न कर्माणि’ पदों से यह सिद्ध होता है कि मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है। ‘न कर्मफलसंयोगम्’ जीव जैसा कर्म करता है वैसा फल उसे भोगना पड़ता है। जड होने के कारण कर्म स्वयं अपना फल भुगताने में असमर्थ हैं। अतः कर्मों के फल का विधान भगवान् करते हैं – ‘लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्’ (गीता 7। 22)। भगवान् कर्मों का फल तो देते हैं पर उस फल के साथ सम्बन्ध भगवान् नहीं जोड़ते बल्कि जीव स्वयं जोड़ता है। जीव अज्ञानवश कर्मों का कर्ता बनकर और कर्मफल में आसक्त होकर कर्मफल के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है और इसी से सुखी-दुःखी होता है। यदि वह कर्मफल के साथ स्वयं अपना सम्बन्ध न जोड़े तो वह कर्मफल के सम्बन्ध से मुक्त रह सकता है। ऐसे कर्मफल से सम्बन्ध न जोड़ने वाले पुरुषों के लिये 18वें अध्याय के 12वें श्लोक में ‘संन्यासिनाम्’ पद आया है। उन्हें कर्मों का फल इस लोक या परलोक में कहीं नहीं मिलता। यदि कर्मफल का सम्बन्ध भगवान ने जोड़ा होता तो जीव कभी कर्मफल से मुक्त नहीं होता। दूसरे अध्याय के 47वें श्लोक में भगवान् कहते हैं ‘मा कर्मफलहेतुर्भूः’ अर्थात् कर्मफल का हेतु या कारण भी मत बन। तात्पर्य हुआ कि सुखी-दुःखी होना अथवा न होना और कर्मफल का हेतु बनना अथवा न बनना मनुष्य के हाथ में है। यदि कर्मफल का सम्बन्ध भगवान का बनाया हुआ होता तो मनुष्य कभी सुख-दुःख में सम नहीं हो पाता और निष्कामभाव से कर्म भी नहीं कर पाता जिसे करने की बात भगवान ने गीता में जगह-जगह कही है (जैसे 4। 20 5। 12 14। 24 आदि)। शङ्का – श्रुति में आता है कि भगवान् जिसकी ऊर्ध्वगति करना चाहते हैं उससे तो शुभकर्म करवाते हैं और जिसकी अधोगति करना चाहते हैं उससे अशुभकर्म करवाते हैं (टिप्पणी प0 301.1)। जब भगवान् ही शुभाशुभ कर्म करवाते हैं तो फिर भगवान् किसी के कर्तृत्व , कर्म और कर्मफलसंयोग की रचना नहीं करते ऐसा कहना तो श्रुति के साथ विरोध हुआ ? समाधान – वास्तव में श्रुति के उपर्युक्त कथन का तात्पर्य शुभाशुभ कर्म करवाकर मनुष्य की ऊर्ध्वगति और अधोगति करने में नहीं है बल्कि प्रारब्ध के अनुसार कर्मफल भुगताकर उसे शुद्ध करने में है (टिप्पणी प0 301.2) अर्थात् मनुष्य शुभ – अशुभ कर्मों का फल जैसे भोग सके भगवान् कृपापूर्वक उसे कर्मबन्धन से मुक्त करके अपना वास्तविक प्रेम प्रदान करने के लिये (उसके प्रारब्ध के अनुसार) वैसी ही परिस्थिति और बुद्धि बना देते हैं। जैसे जिस मनुष्य को प्रारब्ध के अनुसार धन की प्राप्ति होनेवाली है उसे व्यापार आदि में वैसी ही (खरीदने आदि की) प्रेरणा कर देते हैं अर्थात् उस समय उसकी वैसी ही बुद्धि बन जाती है और जिसे प्रारब्ध के अनुसार हानि होने वाली है उसे व्यापार आदि में वैसी ही प्रेरणा कर देते हैं। तात्पर्य यह है कि मनुष्य जिस प्रकार से अपने शुभाशुभ कर्मों का फल भोग सके , भगवत्प्रेरणा से वैसी ही परिस्थिति और बुद्धि बन जाती है। यदि श्रुति का यही अर्थ लिया जाय कि भगवान् जिसकी ऊर्ध्वगति और अधोगति करना चाहते हैं उससे शुभ और अशुभ कर्म करवाते हैं तो मनुष्य कर्म करने में सर्वथा पराधीन हो जायगा और शास्त्रों , सन्त-महात्माओं आदि का विधि-निषेध , गुरु की शिक्षा आदि सभी व्यर्थ हो जायँगे। अतः यहाँ श्रुति का तात्पर्य कर्मों का फल भुगताकर मनुष्य को शुद्ध करना ही है। ‘स्वभावस्तु प्रवर्तते’ कर्तापन , कर्म और कर्मफल का सम्बन्ध इन तीनों को मनुष्य अपने स्वभाव के वश में होकर करता है। यहाँ ‘स्वभावः’ पद व्यष्टि प्रकृति (आदत) का वाचक है जिसे स्वयं जीव ने बनाया है। जब तक स्वभाव में राग-द्वेष रहते हैं तब तक स्वभाव शुद्ध नहीं होता। जब तक स्वभाव शुद्ध नहीं होता तब तक जीव स्वभाव के वशीभूत रहता है। तीसरे अध्याय के 33वें श्लोक में ‘प्रकृतिं यान्ति भूतानि’ पदों से भगवान ने कहा है कि मनुष्यों को अपनी प्रकृति अर्थात् स्वभाव के वशीभूत होकर कर्म करने पड़ते हैं। यही बात भगवान् यहाँ ‘तु स्वभावः प्रवर्तते’ पदों से कह रहे हैं। जब तक प्रकृति अर्थात् स्वभाव से जीव का सम्बन्ध माना हुआ है तब तक कर्तापन , कर्म और कर्मफल के साथ संयोग इन तीनों में जीव की परतन्त्रता बनी रहेगी जो जीव की ही बनायी हुई है। उपर्युक्त पदों से भगवान् यह कह रहे हैं कि कर्तृत्व , कर्म और कर्मफलसंयोग (भोक्तृत्व) तीनों जीव के अपने बनाये हुए हैं इसलिये वह स्वयं इनका त्याग करके , निर्लिप्तता अनुभव कर सकता है। जब भगवान् किसी के कर्तृत्व , कर्म और कर्मफलसंयोग की रचना नहीं करते तो फिर वे किसी के कर्मों के फलभागी कैसे हो सकते हैं ? इस बात को आगे के श्लोक में स्पष्ट करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )
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