अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग
13-26 ज्ञानयोग का विषय
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥5 .16॥
ज्ञानेन-दिव्य ज्ञान द्वारा; तु–लेकिन; तत्-वह; अज्ञानम्-अज्ञानता; येषाम्- जिनका; नाशितम् – नष्ट हो जाती है; आत्मनः-आत्मा का; तेषाम्-उनके; आदित्यवत्-सूर्य के समान; ज्ञानम्-ज्ञान; प्रकाशयति-प्रकाशित करता है; तत्-उस; परम्-परम तत्त्व।
किन्तु जिनकी आत्मा का अज्ञान दिव्यज्ञान ( परमात्मा के तत्व ज्ञान ) द्वारा नष्ट हो जाता है उनका वह ज्ञान सूर्य के समान उस परमतत्त्व सच्चिदानंदघन परमात्मा को उसी प्रकार से प्रकाशित कर देता है जैसे दिन में सूर्य के प्रकाश से सभी वस्तुएँ प्रकाशित हो जाती हैं ॥ 5 .१६ ॥
(‘ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ‘ पीछे के श्लोक में कही बात से विलक्षण बात बताने के लिये यहाँ ‘तु’ पदका प्रयोग किया गया है। पीछे के श्लोक में जिसको अज्ञानेन’ पद से कहा था उसको ही यहाँ तत् अज्ञानम् पद से कहा गया है। अपनी सत्ता को और शरीर को अलग-अलग मानना ज्ञान है और एक मानना अज्ञान है। उत्पत्तिविनाशशील संसार के किसी अंश में तो हमने अपने को रख लिया अर्थात् मैंपन (अहंता) कर लिया और किसी अंश को अपने में रख लिया अर्थात् मेरापन (ममता) कर लिया। अपनी सत्ता का तो निरन्तर अनुभव होता है और मैं-मेरापन बदलता हुआ प्रत्यक्ष दिखता है – जैसे पहले मैं बालक था और खिलौने आदि मेरे थे , अब मैं युवा या वृद्ध हूँ और स्त्री , पुत्र , धन , मकान आदि मेरे हैं। इस प्रकार मैं-मेरेपन के परिवर्तन का ज्ञान हमें है पर अपनी सत्ता के परिवर्तन का ज्ञान हमें नहीं है यह ज्ञान अर्थात् विवेक है। मैं-मेरेपन को जड के साथ न मिलाकर साधक अपने विवेक को महत्त्व दे कि मैं-मेरापन जिससे मिलाता हूँ वह सब बदलता है परन्तु मैं-मेरा कहलाने वाला मैं (मेरी सत्ता) वही रहता हूँ। जड का बदलना और अभाव तो समझ में आता है पर स्वयं का बदलना और अभाव किसी की समझ में नहीं आता क्योंकि स्वयं में किञ्चित् भी परिवर्तन और अभाव कभी होता ही नहीं । इस विवेक के द्वारा मैं-मेरेपन का त्याग कर दे कि शरीर मैं नहीं और बदलने वाली वस्तु मेरी नहीं। यही विवेक के द्वारा अज्ञान का नाश करना है। परिवर्तनशील के साथ अपरिवर्तनशील का सम्बन्ध अज्ञान से अर्थात् विवेक को महत्त्व न देने से है। जिसने विवेक को जाग्रत् करके परिवर्तनशील मैं-मेरेपन के सम्बन्ध का विच्छेद कर दिया है उसका वह विवेक सच्चिदानन्दघन परमात्मा को प्रकाशित कर देता है अर्थात् अनुभव करा देता है। ‘तेषामादित्यव़ज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ‘ विवेक के सर्वथा जाग्रत् होने पर परिवर्तनशील की निवृत्ति हो जाती है। परिवर्तनशील की निवृत्ति होने पर अपने स्वरूप का स्वच्छ बोध हो जाता है जिसके होते ही सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्व प्रकाशित हो जाता है अर्थात् उसके साथ अभिन्नता का अनुभव हो जाता है। यहाँ परम पद परमात्मतत्त्व के लिये प्रयुक्त हुआ है। दूसरे अध्याय के 59वें श्लोक में तथा 13वें अध्याय के 34वें श्लोक में भी परमात्मतत्त्व के लिये परम पद आया है। ‘प्रकाशयति’ पद का तात्पर्य है कि सूर्य का उदय होने पर नयी वस्तु का निर्माण नहीं होता बल्कि अन्धकार से ढके जाने के कारण जो वस्तु दिखायी नहीं दे रही थी वह दिखने लग जाती है। इसी प्रकार परमात्मतत्त्व स्वतःसिद्ध है पर अज्ञान के कारण उसका अनुभव नहीं हो रहा था। विवेक के द्वारा अज्ञान मिटते ही उस स्वतःसिद्ध परमात्मतत्त्व का अनुभव होने लग जाता है। जिस स्थिति में सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्व का अनुभव हो जाता है उस स्थिति की प्राप्ति के लिये आगे के श्लोक में साधन बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )
(शोक और मोह से ग्रस्त जीवों के लिए शुद्ध आत्मस्वरूप अविद्या से आवृत रहता है अर्थात् उन्हें आत्मा का उसके शुद्ध स्वरूप में अनुभव नहीं होता। ज्ञानी पुरुष के लिए अज्ञानावरण पूर्णतया निवृत्त हो जाता है। कितने ही दीर्घ काल से किसी स्थान पर स्थित अंधकार प्रकाश के आने पर तत्काल ही दूर हो जाता है न कि धीरे-धीरे किसी विशेष क्रम से। इसी प्रकार से आत्मज्ञान का उदय होते ही अनादि अविद्या उसी क्षण निवृत्त हो जाती है। अविद्या से उत्पन्न होता है अहंकार जिसका अस्तित्व शरीर , मन और बुद्धि के साथ हुए तादात्म्य के कारण बना रहता है। अज्ञान के नष्ट हो जाने पर अहंकार भी नष्ट हो जाता है। द्वैतवादियों को वेदान्त के इस सिद्धांत को समझने में कठिनाई होती है। वस्तुओं को जानने के लिए हमारे पास उपलब्ध साधन हैं इन्द्रियां , मन और बुद्धि। अहंकार इनके माध्यम से देखता , अनुभव करता और विचार करता है। द्वैतवादी यह समझने में असमर्थ हैं कि अहंकार , इन्द्रियां , मन और बुद्धि के अभाव में आत्मज्ञान कैसे सम्भव है ? एक बुद्धिमान् विचारक में यह शंका आना स्वाभाविक है। इसका अनुमान लगाकर श्रीकृष्ण यह बताते है कि अहंकार नष्ट होने पर आत्मज्ञान स्वतः हो जाता है। विचाररत बुद्धि को यह बात सरलता से नहीं समझायी जा सकती। इसलिए दूसरी पंक्ति में प्रभु एक दृष्टान्त देते हैं ‘आदित्यवत्’ । हम सबका सामान्य अनुभव है कि प्रावृट् ऋतु में कई दिनों तक सूर्य नहीं दिखाई देता और हम जल्दी में कह देते हैं कि सूर्य बादलों से ढक गया है। इस वाक्य के अर्थ पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि सूर्य बादल के छोटे से टुकड़े से ढक नहीं सकता। इस विश्व के मध्य में जहाँ सूर्य अकेला अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ विद्यमान है वहाँ से बादल बहुत दूर है। पृथ्वी तल पर खड़ा छोटा सा मनुष्य अपनी बिन्दु मात्र आँखों से देखता है कि बादल की एक टुकड़ी ने दैदीप्यमान आदित्य को ढक लिया है। यदि हम अपनी छोटी सी उँगली अपने नेत्र के सामने निकट ही लगा लें तो विशाल पर्वत भी ढक सकता है।इसी प्रकार जीव जब आत्मा पर दृष्टि डालता है तो उस अनन्त आत्मा को अविद्या से आवृत पाता है। यह अविद्या सत् स्वरूप आत्मा में नहीं है जैसे बादल सूर्य में कदापि नहीं है। अनन्त सत् की तुलना में सीमित अविद्या बहुत ही तुच्छ है। किन्तु आत्मस्वरूप की विस्मृति हमारे हृदय में उत्पन्न होकर अहंकार में यह मिथ्या धारणा उत्पन्न करती है कि आध्यात्मिक सत् अविद्या से प्रच्छन्न है। इस अज्ञान के नष्ट होने पर आत्मतत्त्व प्रकट हो जाता है जैसे मेघपट हटते ही सूर्य प्रकट हो जाता है। सूर्य को देखने के लिए किसी अन्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं है , आत्मानुभव के लिए भी किसी अन्य अनुभव की अपेक्षा नहीं है वह चित् स्वरूप है। चित् की चेतना के लिए किसी दूसरे चैतन्य की अपेक्षा नहीं है। ज्ञान का अन्तर्निहित तत्त्व चेतना ही है। अतः अहंकार आत्मा को पाकर आत्मा ही हो जाता है। स्वप्न से जागने पर स्वप्नद्रष्टा अपनी स्वप्नावस्था से मुक्त होकर जाग्रत् पुरुष बन जाता है। वह जाग्रत् पुरुष को कभी भिन्न विषय के रूप में न देखता है और न अनुभव करता है बल्कि वह स्वयं ही जाग्रत् पुरुष बन जाता है। ठीक इसी प्रकार अहंकार भी अज्ञान से ऊपर उठकर स्वयं आत्मस्वरूप के साथ एकरूप हो जाता है। अहंकार और आत्मा का सम्बन्ध तथा आत्मानुभूति की प्रक्रिया का बड़ा ही सुन्दर वर्णन सूर्य के दृष्टान्त द्वारा किया गया है जिसके लक्ष्यार्थ पर सभी साधकों को मनन करना चाहिये। आत्मनिष्ठ पुरुष सदा के लिए जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है – स्वामी चिन्मयानन्द जी )