Shrimad Bhagavad Gita Chapter 5

 

 

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अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग

 

13-26 ज्ञानयोग का विषय

 

 

Bhagavad Gita Chapter 5

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।

छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥5 .25॥

 

लभन्ते–प्राप्त करना; ब्रह्मनिर्वाणम्-भौतिक जीवन से मुक्ति; ऋषयः-पवित्र मनुष्य; क्षीण-कल्मषा:-जिसके पाप धुल गए हों; छिन्न-संहार; द्वैधाः-संदेह से; यत-आत्मानः-संयमित मन वाले; सर्वभूत-समस्त जीवों के; हिते-कल्याण के कार्य; रताः-आनन्दित होना।

 

वे पवित्र मनुष्य जिनके सब पाप धुल गए हैं , जिनके सभी संशय ज्ञान के द्वारा मिट गए हैं , जिनका मन संयमित होता है और निश्छल भाव से परमात्मा में स्थित है, जो सभी प्राणियों के कल्याण के कार्य में रत हैं वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष सांसारिक बंधनों से मुक्त हो कर निर्वाण ब्रह्म अर्थात मोक्ष को प्राप्त होते हैं॥5 .25॥

 

( ‘यतात्मानः ‘ नित्य सत्यतत्त्व की प्राप्ति का दृढ़ लक्ष्य होने के कारण साधकों को शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि वश में करने नहीं पड़ते बल्कि ये स्वाभाविक ही सुगमतापूर्वक उनके वश में हो जाते हैं। वश में होने के कारण इनमें राग-द्वेष आदि दोषों का अभाव हो जाता है और इनके द्वारा होने वाली प्रत्येक क्रिया दूसरों का हित करने वाली हो जाती है। शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि को अपने और अपने लिये मानते रहने से ही ये अपने वश में नहीं होते और इनमें राग-द्वेष , काम-क्रोध आदि दोष विद्यमान रहते हैं। ये दोष जब तक विद्यमान रहते हैं तब तक साधक स्वयं इनके वश में रहता है। इसलिये साधक को चाहिये कि वह शरीर आदि को कभी अपना और अपने लिये न माने। ऐसा मानने से इनकी आग्रहकारिता समाप्त हो जाती है और ये वश में हो जाते हैं। अतः जिनका शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि में अपनेपन का भाव नहीं है तथा जो इन शरीरादि को कभी अपना स्वरूप नहीं मानते ऐसे सावधान साधकों के लिये यहाँ ‘यतात्मानः’ पद आया है। ‘सर्वभूतहिते रताः ‘ सांख्ययोग की सिद्धि में व्यक्तित्व का अभिमान मुख्य बाधक है। इस व्यक्तित्व के अभिमान को मिटाकर तत्त्व में अपनी स्वाभाविक स्थिति का अनुभव करने के लिये सम्पूर्ण प्राणियों के हित का भाव होना आवश्यक है। सम्पूर्ण प्राणियों के हित में प्रीति ही उसके व्यक्तित्व को मिटाने का सुगम साधन है। जो सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्व के साथ अभिन्नता का अनुभव करना चाहते हैं उनके लिये प्राणिमात्र के हित में प्रीति होनी आवश्यक है। जैसे अपने कहलाने वाले शरीर में आकृति , अवयव , कार्य ,नाम आदि भिन्न-भिन्न होते हुए भी ऐसा भाव रहता है कि सभी अङ्गों को आराम पहुँचे , किसी भी अङ्ग को कष्ट न हो । ऐसे ही वर्ण , आश्रम , सम्प्रदाय , साधनपद्धति आदि भिन्न-भिन्न होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियों के हित में स्वाभाविक ही रति होनी चाहिये कि सबको सुख पहुँचे , सबका हित हो , कभी किसी को किञ्चिन्मात्र भी कष्ट न हो। कारण कि बाहर से भिन्नता रहने पर भी भीतर से एक परमात्मतत्त्व ही समानरूप से सबमें परिपूर्ण है। अतः प्राणिमात्र के हित में प्रीति होने से व्यक्तिगत स्वार्थभाव सुगमता से नष्ट हो जाता है और परमात्मतत्त्व के साथ अपनी अभिन्नता का अनुभव हो जाता है। ‘छिन्नद्वैधाः’ जब तक तत्त्वप्राप्ति का एक निश्चय दृढ़ नहीं होता तब तक अच्छे-अच्छे साधकों के अन्तःकरण में भी कुछ न कुछ दुविधा विद्यमान रहती है। दृढ़ निश्चय होने पर साधकों को अपनी साधना में कोई संशय , विकल्प , भ्रम आदि नहीं रहता और वे असंदिग्धरूप से तत्परतापूर्वक अपने साधन में लग जाते हैं। ‘क्षीणकल्मषाः’ प्रकृति से माना हुआ जो भी सम्बन्ध है वह सब कल्मष ही है क्योंकि प्रकृति से माना हुआ सम्बन्ध ही सम्पूर्ण कल्मषों अर्थात् पापों , दोषों , विकारों का हेतु है। प्रकृति तथा उसके कार्य शरीर ,  इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि से स्पष्टतया अपना अलग अनुभव करने से साधक में निर्विकारता स्वतः आ जाती है। ‘ऋषयः ‘ ऋष् धातु का अर्थ है ज्ञान। उस ज्ञान (विवेक ) को महत्त्व देने वाले ऋषि कहलाते हैं। प्राचीनकाल में ऋषियों ने गृहस्थ में रहते हुए भी परमात्मतत्त्व को प्राप्त किया था। इस श्लोक में भी सांसारिक व्यवहार करते हुए विवेकपूर्वक परमात्मतत्त्व की प्राप्ति के लिये साधन करने वाले साधकों का वर्णन है। अतः अपने विवेक को महत्त्व देने वाले ये साधक भी ऋषि ही हैं। ‘लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणम् ब्रह्म’ तो सभी को सदा-सर्वदा प्राप्त है ही पर परिवर्तनशील शरीर आदि से अपनी एकता मान लेने के कारण मनुष्य ब्रह्म से विमुख रहता है। जब शरीरादि उत्पत्तिविनाशशील वस्तुओं से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है तब सम्पूर्ण विकारों और संशयों का नाश होकर सर्वत्र परिपूर्ण ब्रह्म का अनुभव हो जाता है। ‘लभन्ते’ पद का तात्पर्य है कि जैसे लहरें समुद्र में लीन हो जाती हैं ऐसे ही सांख्ययोगी निर्वाण ब्रह्म में लीन हो जाते हैं। जैसे जलतत्त्व में समुद्र और लहरें ये दो भेद नहीं हैं , ऐसे ही निर्वाण ब्रह्म में आत्मा और परमात्मा ये दो भेद नहीं हैं। 24वें , 25वें श्लोकों में भगवान ने सांख्ययोग के साधकों द्वारा निर्वाण ब्रह्म को प्राप्त करने की बात कही। अब आगे के श्लोक में यह बताते हैं कि निर्वाण ब्रह्म की प्राप्ति होने पर उसका कैसा अनुभव होता है? स्वामी रामसुखदास जी )

 

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