Shrimad Bhagavad Gita Chapter 5

 

 

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अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग

 

13-26 ज्ञानयोग का विषय

 

 

Bhagavad Gita Chapter 5

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्‌ ।

अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्‌ ॥5 .26॥

 

काम-इच्छाएँ; क्रोध-क्रोध; वियुक्तानाम् – वे जो मुक्त हैं; यतीनाम्-संत महापुरुष; यतचेतसाम्-आत्मलीन और मन पर नियंत्रण रखने वाला; अभितः-सभी ओर से; ब्रह्म-आध्यात्मिक; निर्वाणम्-भौतिक जीवन से मुक्ति; वर्तते-होती है। विदित आत्मनाम्-वे जो आत्मलीन हैं।

 

ऐसे संन्यासी जो काम-क्रोध से रहित, जीते हुए चित्तवाले अर्थात जो सतत प्रयास से क्रोध और काम वासनाओं पर विजय पा लेते हैं , जो अपने मन को वश में कर आत्मलीन हो जाते हैं अर्थात आत्मा को जानने वाले है ऐसे परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किए हुए ज्ञानी मनुष्यों के लिए दोनों ओर से ( शरीर के रहते हुए और शरीर छूटने के बाद) निर्वाण परब्रह्म परमात्मा ही परिपूर्ण है अर्थात वे इस जन्म में ( इस लोक में)  और परलोक में भी माया शक्ति और भौतिक जीवन के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं और मोक्ष प्राप्त करते है ॥5 .26॥

 

(  ‘कामक्रोधवियुक्तानां यतीनाम्’ भगवान् उपर्युक्त पदों से यह स्पष्ट कह रहे हैं कि सिद्ध महापुरुष में काम-क्रोध आदि दोषों की गन्ध भी नहीं रहती। कामक्रोधादि दोष उत्पत्तिविनाशशील असत् पदार्थों (शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि ) के सम्बन्ध से उत्पन्न होते हैं। सिद्ध महापुरुष को उत्पत्तिविनाशशील सत् तत्त्व में अपनी स्वाभाविक स्थिति का अनुभव हो जाता है । अतः उत्पत्तिविनाशरहित असत् पदार्थों से उसका सम्बन्ध सर्वथा नहीं रहता। उसके अनुभव में अपने कहलाने वाले शरीर अन्तःकरण सहित सम्पूर्ण संसार के साथ अपने सम्बन्ध का सर्वथा अभाव हो जाता है । अतः उसमें काम-क्रोध आदि विकार कैसे उत्पन्न हो सकते हैं ? यदि काम-क्रोध सूक्ष्मरूप से भी हों तो अपने को जीवन्मुक्त मान लेना भ्रम ही है। उत्पत्तिविनाशशील वस्तुओं की इच्छा को काम कहते हैं। काम अर्थात् कामना अभाव में पैदा होती है। अभाव सदैव असत् में रहता है। सत् स्वरूप में अभाव है ही नहीं परन्तु जब स्वरूप असत् से तादात्म्य कर लेता है तब असत् अंश के अभाव को वह अपने में मान लेता है। अपने में अभाव मानने से ही कामना पैदा होती है और कामनापूर्ति में बाधा लगने पर क्रोध आ जाता है। इस प्रकार स्वरूप में कामना न होने पर भी तादात्म्य के कारण अपने में कामना की प्रतीति होती है परन्तु जिनका तादात्म्य नष्ट हो गया है और स्वरूप में स्वाभाविक स्थिति का अनुभव हो गया है उन्हें स्वयं में असत् के अभाव का अनुभव हो ही कैसे सकता है ?साधन करने से काम-क्रोध कम होते हैं ऐसा साधकों का अनुभव है। जो चीज कम होने वाली होती है वह मिटने वाली होती है । अतः जिस साधन से ये काम-क्रोध कम होते हैं उसी साधन से ये मिट भी जाते हैं। साधन करने वालों को यह अनुभव होता है कि (1) काम-क्रोध आदि दोष पहले जितनी जल्दी आते थे उतनी जल्दी अब नहीं आते। (2) पहले जितने वेग से आते थे उतने वेग से अब नहीं आते और (3) पहले जितनी देर तक ठहरते थे उतनी देर तक अब नहीं ठहरते। कभी-कभी साधक को ऐसा भी प्रतीत होता है कि काम-क्रोध का वेग पहले से भी अधिक आ गया। इसका कारण यह है कि (1) साधन करने से भोग – आसक्ति तो मिटती चली गयी और पूर्णावस्था प्राप्त हुई नहीं। (2) अन्तःकरण शुद्ध होने से थोड़े काम-क्रोध भी साधक को अधिक प्रतीत होते हैं। (3) कोई मन के विरुद्ध कार्य करता है तो वह साधक को बुरा लगता है पर साधक उसकी परवाह नहीं करता। बुरा लगने के भाव का भीतर संग्रह होता रहता है। फिर अन्त में थोड़ी सी बात पर भी जोर से क्रोध आ जाता है क्योंकि भीतर जो संग्रह हुआ था वह एक साथ बाहर निकलता है। इससे दूसरे व्यक्ति को भी आश्चर्य होता है कि इतनी थोड़ी सी बात पर इसे इतना क्रोध आ गया । कभी-कभी वृत्तियाँ ठीक होने से साधक को ऐसा प्रतीत होता है कि मेरी पूर्णावस्था हो गयी परन्तु वास्तव में जब तक पूर्णावस्था का अनुभव करने वाला है तब तक (व्यक्तित्व बना रहने से ) पूर्णावस्था हुई नहीं। ‘यतचेतसाम्’ जब तक असत् का सम्बन्ध रहता है तब तक मन वश में नहीं होता। असत् का सम्बन्ध सर्वथा न रहने से महापुरुषों का कहलाने वाला मन स्वतः वश में रहता है। ‘अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ‘ अपने स्वरूप का वास्तविक बोध हो जाने से उन महापुरुषों को यहाँ ‘विदितात्मनाम्’ कहा गया है। तात्पर्य है कि जिस उद्देश्य को लेकर मनुष्य-जन्म हुआ है और मनुष्य-जन्म की इतनी महिमा गायी गयी है , उसको उन्होंने प्राप्त कर लिया है। शरीर के रहते हुए अथवा शरीर छूटने के बाद नित्य-निरन्तर वे महापुरुष शान्त ब्रह्म में ही स्थित रहते हैं। जैसे भिन्न-भिन्न क्रियाओं को करते समय साधारण मनुष्यों की शरीर में स्थिति की मान्यता निरन्तर रहती है ऐसे ही भिन्न-भिन्न क्रियाओं को करते समय उन महापुरुषों की स्थिति निरन्तर एक ब्रह्म में ही रहती है। उनकी इस स्वाभाविक स्थिति में कभी थोड़ा भी अन्तर नहीं आता क्योंकि जिस विभाग में क्रियाएँ होती हैं उस विभाग (असत् ) से उनका कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा। अब आगे के दो श्लोकों में भगवान् यह बताते हैं कि जिस तत्त्व को ज्ञानयोगी और कर्मयोगी प्राप्त करता है उसी तत्त्व को ध्यानयोगी भी प्राप्त कर सकता है (टिप्पणी प0 319) – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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