अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग
27-29 भक्ति सहित ध्यानयोग तथा भय, क्रोध, यज्ञ आदि का वर्णन
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥5 .29
भोक्तारम्-भोक्ता; यज्ञ-यज्ञ; तपसाम्-तपस्या; सर्वलोक-सभी लोक; महाईश्वरम्-परम् प्रभुः सुहृदम्-सच्चा हितैषी; सर्व-सबका; भूतानाम्-जीव; ज्ञात्वा-जानकर; माम्-मुझे, श्रीकृष्ण; शान्तिम्-शान्ति; ऋच्छति-प्राप्त करता।
जो भक्त मुझे समस्त यज्ञों और तपस्याओं का भोक्ता, सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर तथा सम्पूर्ण जीवों और प्राणियों का सच्चा हितैषी समझते हैं, वे परम शांति प्राप्त करते हैं॥5 .29॥
( ‘भोक्तारं यज्ञतपसाम्’ जब मनुष्य कोई शुभ कर्म करता है तब वह जिनसे शुभ कर्म करता है उन शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , पदार्थ आदिको अपना मानता है और जिसके लिये शुभ कर्म करता है उसे उस कर्म का भोक्ता मानता है जैसे किसी देवता की पूजा की तो उस देवता को पूजारूप कर्म का भोक्ता मानता है , किसी की सेवा की तो उसे सेवारूप कर्म का भोक्ता मानता है , किसी भूखे व्यक्ति को अन्न दिया तो उसे अन्न का भोक्ता मानता है आदि। इस मान्यता को दूर करने के लिये भगवान् उपर्युक्त पदों में कहते हैं कि वास्तव में सम्पूर्ण शुभ कर्मों का भोक्ता मैं ही हूँ। कारण कि प्राणिमात्र के हृदयमें भगवान् ही विद्यमान हैं (टिप्पणी प0 321)। इसलिये किसी का पूजन करना , किसी को अन्न-जल देना , किसी को मार्ग बताना आदि जितने भी शुभ कर्म हैं उन सबका भोक्ता भगवान को ही मानना चाहिये। लक्ष्य भगवान पर ही रहना चाहिये प्राणी पर नहीं। 9वें अध्याय के 24वें श्लोक में भी भगवान ने अपने को सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता बताया है – ‘अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता’। दूसरी बात यह है कि जिनसे शुभ कर्म किये जाते हैं वे शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , पदार्थ आदि अपने नहीं हैं बल्कि भगवान के हैं। उनको अपना मानना भूल ही है। उनको अपना मानकर अपने लिये शुभ कर्म करने से मनुष्य स्वयं उन कर्मों का भोक्ता बन जाता है। अतः भगवान् कहते हैं कि तुम सम्पूर्ण शुभ कर्मों को अपने लिये कभी मत करो , केवल मेरे लिये ही करो। ऐसा करने से तुम उन कर्मों के फलभागी नहीं बनोगे और तुम्हारा कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा। कामना से ही सम्पूर्ण अशुभ कर्म होते हैं। कामना का त्याग करके केवल भगवान् के लिये ही सब कर्म करने से अशुभ कर्म तो स्वरूप से ही नहीं होते तथा शुभ कर्मों से अपना सम्बन्ध नहीं रहता। इस प्रकार सम्पूर्ण कर्मों से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होने पर परमशान्ति की प्राप्ति हो जाती है। ‘सर्वलोकमहेश्वरम्’ भिन्न-भिन्न लोकों के भिन्न-भिन्न ईश्वर हो सकते हैं किन्तु वे भी भगवान् के अधीन ही हैं। भगवान् सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों के भी ईश्वर हैं इसलिये यहाँ ‘सर्वलोकमहेश्वरम्’ पद दिया गया है। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण सृष्टि के एकमात्र स्वामी भगवान् ही हैं फिर कोई ईमानदार व्यक्ति सृष्टि की किसी भी वस्तु को अपनी कैसे मान सकता है ? शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , प्राण , स्त्री , पुत्र , धन , जमीन , मकान आदि को अपने मानते हुए प्रायः लोग कहा करते हैं कि भगवान् ही सारे संसार के मालिक हैं परन्तु ऐसा कहना समझदारी नहीं है क्योंकि मनुष्य जब तक शरीर , इन्द्रियाँ , मन आदि को अपने मानता है तब तक भगवान को सारे संसार का स्वामी कहना अपने आपको धोखा देना ही है। कारण कि यदि सभी लोग शरीर आदि पदार्थों को अपने-अपने ही मानते रहें तो बाकी क्या रहा ? जिसके स्वामी भगवान् कहलायें अर्थात् भगवान के हिस्से में कुछ नहीं बचा। इसलिये सब कुछ भगवान का है , ऐसा वही कह सकता है जो शरीरादि किसी भी पदार्थ को अपना नहीं मानता। जो किसी भी वस्तु को अपनी मानता है वह वास्तव में भगवान को यथार्थरूप से ‘सर्वलोकमहेश्वर’ मानता ही नहीं। वह जितनी वस्तुओं को अपनी मानता है उतने अंश में भगवान को सर्वलोकमहेश्वर मानने में कमी रहती है। मनुष्य को शरीरादि पदार्थों का सदुपयोग करने का ही अधिकार है अपने मानने का बिलकुल नहीं। इन पदार्थों को अपने न मानकर केवल भगवान के ही मानते हुए उन्हीं की सेवा में लगा देने से परमशान्ति की प्राप्ति हो जाती है। ‘सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति’ जो सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों के भी ईश्वर हैं वे बिना कारण स्वाभाविक ही प्राणिमात्र का हित करने वाले , प्राणिमात्र की रक्षा करने वाले तथा प्राणिमात्र से प्रेम करने वाले हैं और ऐसा हितैषी , रक्षक तथा प्रेमी दूसरा कोई नहीं है , इस प्रकार जान (टिप्पणी प0 322.1) लेने से परमशान्ति प्राप्त हो जाती है क्योंकि वे वास्तव में ऐसे ही हैं। महान , शक्तिशाली भगवान बिना किसी प्रयोजन के हमारे परम सुहृद् हैं फिर भय , चिन्ता , उद्वेग , अशान्ति आदि कैसे हो सकते हैं ? जीवमात्र का बिना कारण हित करने वाले दो ही हैं – भगवान् और उनके भक्त (टिप्पणी प0 322.2)। भगवान को किसी से कुछ भी पाना है ही नहीं – ‘नानवाप्तमवाप्तव्यम्’ (गीता 3। 22) इसलिये वे स्वाभाविक ही सबके सुहृद् हैं। भक्त भी अपने लिये किसी से कुछ भी नहीं चाहता और सबका हित चाहता तथा हित करता है इसलिये वह भी सबका सुहृद् होता है – ‘सुहृदः सर्वदेहिनाम्’ (श्रीमद्भा0 3। 25। 21)। भक्तों में जो सुहृत्ता आती है वह भी मलूतः भगवान से ही आती है। भगवान् सम्पूर्ण यज्ञों और तपों के भोक्ता हैं । सम्पूर्ण लोकों के महान् ईश्वर हैं तथा हमारे परम सुहृद् हैं। इन तीनों बातों में से अगर एक बात भी दृढ़ता से मान लें तो भगवत्प्राप्तिरूप परमशान्ति की प्राप्ति हो जाती है फिर तीनों ही बातें मान लें तो कहना ही क्या है । अपने लिये कुछ भी चाहना , किसी भी वस्तु को अपनी मानना और भगवान को अपना न मानना – ये तीनों बातें भगवत्प्राप्ति में मुख्य बाधक है। भगवान् ‘भोक्तारं यज्ञतपसाम्’ पदों से कहते हैं कि अपने लिये कुछ भी न चाहे और कुछ भी न करे – ‘सर्वलोकमहेश्वरम्’ पद से कहते हैं कि अपना कुछ भी न माने अर्थात् सुख की इच्छा का और वस्तु-व्यक्तियों के आधिपत्य का त्याग कर दे तथा ‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ पदों से कहते हैं कि केवल मेरे को ही अपना माने अन्य किसी वस्तु-व्यक्ति आदि को अपना न माने। इन तीनों में से एक बात भी मान लेने से शेष बातें स्वतः आ जाती हैं और भगवत्प्राप्ति हो जाती है। अपने लिये सुख की इच्छा का त्याग तभी होता है जब मनुष्य किसी भी प्राणी पदार्थ को अपना न माने। जब तक किसी भी पदार्थ को अपना मानता है तब तक वह बदले में सुख चाहेगा ही। सुख की इच्छा के त्याग से ममता का त्याग और ममता के त्याग से सुख की इच्छा का त्याग होता है। जब सब वस्तु-व्यक्तियों में ममता का त्याग हो जाता है तब एकमात्र भगवान् ही अपने रह जाते हैं। जो किसी को भी अपना मानता है वह वास्तव में भगवान को सर्वथा अपना नहीं मानता । कहने को चाहे कहता रहे कि भगवान् मेरे हैं। माने हुए सम्बन्ध का अभाव होने से भगवान से अपनी सच्ची आत्मीयता जाग्रत् हो जाती है। तात्पर्य यह निकला कि चाहे सुख की इच्छा का त्याग हो जाय , चाहे ममता का अभाव हो जाय और चाहे भगवान में सच्ची आत्मीयता हो जाय इसके होते ही परमशान्ति का अनुभव हो जायगा। कारण कि एक भी भाव दृढ़ होने पर अन्य भाव भी साथ में आ ही जाते हैं। एक तो कर्म करना चाहिये और दूसरा कर्म करने की विद्या आनी चाहिये। जब मनुष्य कर्म तो करता है पर कर्म करने की विद्या नहीं जानता अथवा कर्म करने की विद्या तो जानता है पर कर्म नहीं करता तब उसके द्वारा सुचारुरूप से कर्म नहीं होते। इसलिये भगवान ने तीसरे अध्याय में कर्म करने पर विशेष जोर दिया है पर साथ में कर्मों को जानने की बात भी कही है और चौथे अध्याय में कर्मों का तत्त्व जानने पर विशेष जोर दिया है और साथ में कर्म करने की बात भी कही है। पाँचवें अध्याय में यद्यपि कर्मयोग और सांख्ययोग दोनों के द्वारा कल्याण होने की बात आयी है तथापि भगवान ने सांख्ययोग की अपेक्षा कर्मयोग को श्रेष्ठ बताया है। इस अध्याय में भगवान ने क्रमपूर्वक कर्मयोग और सांख्ययोग का वर्णन करके फिर संक्षेप से ध्यानयोग का वर्णन किया और अन्त में संक्षेप से भक्तियोग का वर्णन किया जो भगवान का मुख्य ध्येय है – स्वामी रामसुखदास जी )
इस प्रकार ॐ तत् सत् इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें कर्मसंन्यासयोग नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।5।।
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसंन्यासयोगो नाम पंचमोऽध्यायः ॥5॥
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