अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग
13-26 ज्ञानयोग का विषय
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥20
न–कभी नहीं; प्रहृष्येत्-हर्षित होना; प्रियम्-परम सुखदः प्राप्य- प्राप्त करना; न-नहीं; उद्विजेत्–विचलित होना; प्राप्य–प्राप्त करके; च-भी; अप्रियम्-दुखद; स्थिरबुद्धिः-दृढ़ बुद्धि, असम्मूढः-पूर्णतया स्थित, संशयरहित; ब्रह्मवित्-दिव्य ज्ञान का बोध; ब्रह्मणि-भगवान में; स्थित:-स्थित।
जो पुरुष प्रिय या परम सुखद पदार्थ को प्राप्त कर न तो हर्षित होता और अप्रिय या दुखद स्थिति में उद्विग्न या विचलित नहीं होता , वह स्थिरबुद्धि, संशयरहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष दिव्य ज्ञान में दृढ़ विश्वास धारण कर और मोह रहित होकर सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित है ॥20॥
‘न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ‘ शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , सिद्धान्त , सम्प्रदाय , शास्त्र आदि के अनुकूल प्राणी , पदार्थ , घटना , परिस्थिति आदि की प्राप्ति होना ही प्रिय को प्राप्त होना है। शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , सिद्धान्त , सम्प्रदाय , शास्त्र आदि के प्रतिकूल प्राणी , पदार्थ , घटना , परिस्थिति आदि की प्राप्ति होना ही अप्रिय को प्राप्त होना है। प्रिय और अप्रिय को प्राप्त होने पर भी साधक के अन्तःकरण में हर्ष और शोक नहीं होने चाहिये। यहाँ प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति का यह अर्थ नहीं है कि साधक के हृदय में अनुकूल या प्रतिकूल प्राणी , पदार्थों के प्रति राग या द्वेष है बल्कि यहाँ उन प्राणी-पदार्थों की प्राप्ति के ज्ञान को ही प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति कहा गया है। प्रिय या अप्रिय की प्राप्ति अथवा अप्राप्ति का ज्ञान होने में कोई दोष नहीं है। अन्तःकरण में उनकी प्राप्ति अथवा अप्राप्ति का असर पड़ना अर्थात् हर्ष-शोकादि विकार होना ही दोष है। प्रियता और अप्रियता का ज्ञान तो अन्तःकरण में होता है पर हर्षित और उद्विग्न कर्ता होता है। अहंकार से मोहित अन्तःकरण वाला पुरुष प्रकृति के करणों द्वारा होने वाली क्रियाओं को लेकर मैं कर्ता हूँ , ऐसा मान लेता है तथा हर्षित और उद्विग्न होता रहता है परन्तु जिसका मोह दूर हो गया है , जो तत्त्ववेत्ता है , वह गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा जानकर अपने में (स्वरूप में ) वास्तविक अकर्तृत्व का अनुभव करता है (गीता 3। 28)। स्वरूप का हर्षित और उद्विग्न होना सम्भव ही नहीं है। ‘स्थिरबुद्धिः’ स्वरूप का ज्ञान स्वयं के द्वारा ही स्वयं को होता है। इसमें ज्ञाता और ज्ञेय का भाव नहीं रहता। यह ज्ञान करणनिरपेक्ष होता है अर्थात् इसमें शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि किसी करण की अपेक्षा नहीं होती। करणों से होने वाला ज्ञान स्थिर तथा सन्देहरहित नहीं होता इसलिये वह अल्पज्ञान है परन्तु स्वयं (अपने होनेपन) का ज्ञान स्वयं को ही होने से उसमें कभी परिवर्तन या सन्देह नहीं होता। जिस महापुरुष को ऐसे करणनिरपेक्ष ज्ञान का अनुभव हो गया है उसकी कही जाने वाली बुद्धि में यह ज्ञान इतनी दृढ़ता से उतर आता है कि उसमें कभी विकल्प सन्देह विपरीत भावना असम्भावना आदि होती ही नहीं। इसलिये उसे स्थिरबुद्धिः कहा गया है। ‘असम्मूढः’ जो परमात्मतत्त्व सदासर्वत्र विद्यमान है उसका अनुभव न होना और जिसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है उस उत्पत्तिविनाशशील संसार को सत्य मानना ऐसी मूढ़ता साधारण मनुष्य में रहती है। इस मूढ़ता का जिसमें सर्वथा अभाव हो गया है उसे ही यहाँ असम्मूढः कहा गया है। ‘ब्रह्मवित्’ परमात्मा से अलग होकर परमात्मा का अनुभव नहीं होता। परमात्मा का अनुभव होने में अनुभविता , अनुभव और अनुभाव्य यह त्रिपुटी नहीं रहती बल्कि त्रिपुटीरहित अनुभवमात्र (ज्ञानमात्र) रहता है। वास्तव में ब्रह्म को जानने वाला कौन है ? यह बताया नहीं जा सकता। कारण कि ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म से अभिन्न हो जाता है (टिप्पणी प0 311) इसलिये वह अपने को ‘ब्रह्मवित्’ मानता ही नहीं अर्थात् उसमें मैं ब्रह्म को जानता हूँ ऐसा अभिमान नहीं रहता। ‘ब्रह्मणि स्थितः’ वास्तव में सम्पूर्ण प्राणी तत्त्व से नित्य-निरन्तर ब्रह्म में ही स्थित हैं परन्तु भूल से अपनी स्थिति शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि में ही मानते रहने के कारण मनुष्य को ब्रह्म में अपनी स्वाभाविक स्थिति का अनुभव नहीं होता। जिसे ब्रह्म में अपनी स्वाभाविक स्थिति का अनुभव हो गया है ऐसे महापुरुष के लिये यहाँ ‘ब्रह्मणि स्थितः’ पदों का प्रयोग हुआ है। ऐसे महापुरुष को प्रत्येक परिस्थिति में नित्य-निरन्तर ब्रह्म में अपनी स्वाभाविक स्थिति का अनुभव होता रहता है। यद्यपि एक वस्तु की दूसरी वस्तु में स्थिति होती है तथापि ब्रह्म में स्थिति इस प्रकार की नहीं है। कारण कि ब्रह्म का अनुभव होने पर सर्वत्र एक ब्रह्म ही ब्रह्म रह जाता है। उसमें स्थिति मानने वाला दूसरा कोई रहता ही नहीं। जब तक कोई ब्रह्म में अपनी स्थिति मानता है तब तक ब्रह्म की वास्तविक अनुभूति में कमी है परिच्छिन्नता है। ब्रह्म में अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव किस प्रकार होता है इसका विवेचन आगेके श्लोकमें करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )
(एक कुशल चित्रकार अपने सुन्दरतम चित्र को पूर्णता और सुन्दरता प्रदान करने के लिए चित्र पटल पर अपनी तूलिका से बारम्बार रेखायें बनाता है और थोड़ी दूर हटकर उनका अवलोकन करता है। इसी प्रकार एक कुशल और श्रेष्ठ चित्रकार के समान भगवान् श्रीकृष्ण मनुष्य के हृदय पटल पर ज्ञानी पुरुष का शब्द चित्र अंकित करते हुए उसमें ज्ञानी के मन के भावों का एवं गुणों का सुन्दर चित्रण करते हैं। अनेक श्लोकों के द्वारा ज्ञानी पुरुष का वर्णन करने में भगवान् का एक मात्र उद्देश्य यह है कि एक सामान्य पुरुष भी ज्ञानी के लक्षणों को स्पष्ट रूप से समझ सके। वे स्पष्ट करते हैं कि महात्मा पुरुष कोई गंगातट की निर्जीव पाषाणी प्रतिमा नहीं होता बल्कि वह ऐसा स्फूर्त समर्थ और कुशल व्यक्ति होता है जो अपनी पीढ़ी को प्रभावित करके उसका नवनिर्माण करता है।बाह्य जगत् में घटित होने वाली घटनाओं के कारण नहीं वरन् उनके साथ अपने सम्बन्धों के कारण मनुष्य हर्ष से उत्तेजित अथवा दुख से निराश होता है। महानगर में किसी एक व्यक्ति की मृत्यु से मनुष्य को दुख नहीं होता परन्तु उस मनुष्य के पिता की मृत्यु उसके लिए दुखदायी घटना बन जाती है। इससे स्पष्ट होता है कि किसी व्यक्ति की मृत्युमात्र दुख का कारण नहीं बल्कि कारण तो मृत व्यक्ति के साथ का सम्बन्ध है। अपने मन के ऊपर विजय प्राप्त कर अनंतस्वरूप में स्थित ब्रह्मवित् पुरुष प्रिय या अप्रिय को प्राप्त कर सुख या दुख के आवेग में नहीं बह जाता। इसका अर्थ यह नहीं कि वह कोई लकड़ी के खिलौने या पत्थर की मूर्ति के समान जगत् में होने वाली घटनाओं को जानने में अथवा अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने में समर्थ नहीं होता। इस श्लोक का अभिप्राय यह है कि ज्ञान के कारण उसे जो मन का समत्व प्राप्त होता है उसे ये घटनाएँ प्रभावित अथवा विचलित नहीं कर सकती हैं। तत्त्ववित् पुरुष की बुद्धि ज्ञान में स्थिर हो जाती है क्योंकि अहंकार और तज्जनित मिथ्या धारणाओं के विष का उसमें सर्वथा अभाव होता है। जिस क्रम से ज्ञानी पुरुष के विशेषण यहाँ बताये हैं उसका अध्ययन बड़ा रोचक है। प्रिय और अप्रिय वस्तुओं की उपस्थिति से जो विचलित रहता है वही स्थिरबुद्धि पुरुष है। स्थिर बुद्धि पुरुष संमोहरहित हो जाता है। जिसके मन में किसी प्रकार का मोह नहीं होता वही पुरुष ब्रह्मज्ञान का योग्य अधिकारी बनकर ब्रह्मवित् हो जाता है। और ब्रह्मवित् पुरुष ब्रह्म ही बनकर स्वस्वरूप में स्थित होकर इस जगत् में विचरण करता है – स्वामी चिन्मयानन्द जी )