अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग
01-06 ज्ञानयोग और कर्मयोग की एकता, सांख्य का विवरण और कर्मयोग की वरीयता
ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥5.3॥
ज्ञेयः-मानना चाहिएः सः-वह मनुष्य; नित्य-सदैव; संन्यासी-वैराग्य का अभ्यास करने वाला; यः-जो; न कभी नहीं; द्वेष्टि-घृणा करता है; न-न तो; काङ्क्षति-कामना करता है; निर्द्वन्द्वः सभी द्वंदों से मुक्त; हि-निश्चय ही; महाबाहो- बलिष्ठ भुजाओं वाला अर्जुन; सुखम्-सरलता से; बन्धात्-बन्धन से; प्रमुच्यते-मुक्त होना।
वे कर्मयोगी मनुष्य जो न तो कोई कामना करते हैं और न ही किसी से घृणा करते हैं उन्हें नित्य संन्यासी माना जाना चाहिए। हे महाबाहु अर्जुन! सभी प्रकार के राग-द्वेषादि द्वन्द्वों से रहित होने के कारण वे निश्चय ही माया के बंधनों से सरलता से मुक्ति पा लेते हैं॥5.3॥
(“महाबाहो” महाबाहो सम्बोधन के दो अर्थ होते हैं – एक तो जिसकी भुजाएँ बड़ी और बलवान् हों अर्थात् जो शूरवीर हो और दूसरा जिसके मित्र तथा भाई बड़े पुरुष हों। अर्जुन के मित्र थे प्राणिमात्र के सुहृद् भगवान् श्रीकृष्ण और भाई थे अजातशत्रु धर्मराज युधिष्ठिर। इसलिये यह सम्बोधन देकर भगवान् अर्जुनसे मानो यह कह रहे हैं कि कर्मयोग के अनुसार सबकी सेवा करने का बल तुम्हारे में है। अतः तुम सुगमता से कर्मयोग का पालन कर सकते हो। “यो न द्वेष्टि” कर्मयोगी वह होता है जो किसी भी प्राणी पदार्थ परिस्थिति सिद्धान्त आदि से द्वेष नहीं करता। कर्मयोगी का काम है सबकी सेवा करना सबको सुख पहुँचाना। यदि उसका किसी के भी साथ किञ्चिन्मात्र भी द्वेष होगा तो उसके द्वारा कर्मयोग का आचरण साङ्गोपाङ्ग नहीं हो सकेगा। अतः जिससे कुछ भी द्वेष हो उसकी सेवा कर्मयोगी को सर्वप्रथम करनी चाहिये। सबसे पहले न द्वेष्टि पद देने का तात्पर्य यह है कि जो किसी को भी बुरा समझता है और किसी का भी बुरा चाहता है वह कर्मयोगके तत्त्व को समझ ही नहीं सकता। मार्मिक बात प्राणिमात्र के हित के उद्देश्य से कर्मयोगी के लिये बुराई का त्याग करना जितना आवश्यक है उतना भलाई करना आवश्यक नहीं है। भलाई करने से केवल समाज का हित होता है परन्तु बुराईरहित होने से विश्वमात्र का हित होता है। कारण यह है कि भलाई करने में सीमित क्रियाओं और पदार्थों की प्रधानता रहती है परन्तु बुराई रहित होने में भीतर का असीम भाव प्रधान रहता है। यदि भीतर से बुरा भाव दूर न हुआ तो बाहर से भलाई करें तो इससे अभिमान पैदा होगा जो आसुरी सम्पत्ति का मूल है। भलाई करने का अभिमान तभी पैदा होता है जब भीतर कुछ न कुछ बुराई हो। जहाँ अपूर्णता (कमी) होती है वहीं अभिमान पैदा होता है परन्तु जहाँ पूर्णता है वहाँ अभिमान का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। गहराई से देखा जाय तो नाशवान् वस्तुओं की सहायता के बिना भलाई नहीं की जा सकती। जिन वस्तुओंसे हम भलाई करते हैं वे वस्तुएँ हमारी हैं ही नहीं प्रत्युत उन्हींकी हैं जिनकी हम भलाई करते हैं। फिर भी यदि भलाई का अभिमान होता है तो यह नाशवान् का सङ्ग है। जब तक नाशवान् का सङ्ग है तब तक योग की सिद्धि नहीं होती। मैंने भलाई की यह अभिमान बुराई से भी अधिक भयंकर है क्योंकि यह भाव मैंपन में बैठ जाता है। कर्म और फल तो मिट जाते हैं पर जब तक मैंपन रहता है तब तक मैंपन में बैठा हुआ भलाई का अभिमान नहीं मिटता। दूसरी बात बुराई को तो हम बुराईरूप से जानते ही हैं पर भलाई को बुराई रूप से नहीं जानते। इसलिये भलाई के अभिमान का त्याग करना बहुत कठिन है जैसे लोहे की हथकड़ी का तो त्याग कर सकते हैं पर सोने की हथकड़ी का त्याग नहीं कर सकते क्योंकि वह गहन रूप से दिखती है। इसलिये बुराईरहित होकर ही भलाई करनी चाहिये। वास्तव में बुराई का त्याग होनेपर विश्वमात्र की भलाई अपने आप होती है करनी नहीं पड़ती। इसलिये बुराईरहित महापुरुष अगर हिमालय की एकान्त गुफामें भी बैठा हो तो भी उसके द्वारा विश्व का बहुत हित होता है। “न काङ्क्षति” कर्मयोग में कामना का त्याग मुख्य है। कर्मयोगी किसी भी प्राणी पदार्थ परिस्थिति आदि की कामना नहीं करता। कामनात्याग और परहित में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। निष्काम होने के लिये दूसरे का हित करना आवश्यक है। दूसरे का हित करने से कामना के त्याग का बल आता है। कर्मयोग में कर्ता निष्काम होता है कर्म नहीं क्योंकि जड होने के कारण कर्म स्वयं निष्काम या सकाम नहीं हो सकते। कर्म कर्ता के अधीन होते हैं इसलिये कर्मों की अभिव्यक्ति कर्ता से ही होती है। निष्काम कर्ता के द्वारा ही निष्कामकर्म होते हैं जिसे कर्मयोग कहते हैं। अतः चाहे कर्मयोग कहें या निष्कामकर्म दोनों का अर्थ एक ही होता है। सकाम कर्मयोग होता ही नहीं। निष्काम होने से कर्ता कर्मफल से असङ्ग रहता है परन्तु जब कर्ता में सकामभाव आ जाता है तब वह कर्मफल से बँध जाता है (गीता 5। 12)। सकामभाव तभी नष्ट होता है जब कर्ता कोई भी कर्म अपने लिये नहीं करता बल्कि सम्पूर्ण कर्म दूसरों के हित के लिये ही करता है। इसलिये कर्ता का भाव नित्य-निरन्तर निष्काम रहना चाहिये। कर्ता में जितना निष्कामभाव होगा उतना ही कर्मयोग का सही आचरण होगा। कर्ताके सर्वथा निष्काम होने पर कर्मयोग सिद्ध हो जाता है। “ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी” अर्जुन ने युद्ध न करके भिक्षा माँगकर जीवननिर्वाह करने की इच्छा प्रकट की थी “गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके” (गीता 2। 5) अर्थात् गुरुजनोंको न मारकर संन्यास लेना ही श्रेष्ठ है। भगवान् उसी बात का उत्तर देते हुए मानो कह रहे हैं कि हे अर्जुन वह संन्यास तो गुरुजनों के मर जाने के भय से किया जाने वाला बाहरी संन्यास है पर कर्मयोगी का संन्यास राग-द्वेष के त्याग से होने वाला नित्य संन्यास अर्थात् भीतरी एवं सच्चा संन्यास है। आगे छठे अध्याय के पहले श्लोक में भी भगवान् ने केवल अग्नि का त्याग करनेवाले अर्थात् संन्यासआश्रम मात्र ग्रहण करने वाले पुरुष को संन्यासी न कहकर भीतर से संसार के आश्रय का त्याग करने वाले कर्मयोगी को ही संन्यासी कहा है। इस प्रकार भगवान् के मत में कर्मयोगी ही वास्तविक संन्यासी है। कर्म करते हुए भी कर्मों से किसी प्रकार का सम्बन्ध न रखना ही संन्यास है। कर्मों से किसी प्रकार का सम्बन्ध न रखने वाले को कर्मों का फल कभी किसी अवस्थामें किञ्चिन्मात्र भी नहीं मिलता । ” न तु संन्यासिनां क्वचित् ” (गीता 18। 12)। इसलिये शास्त्रविहित समस्त कर्म करते हुए भी कर्मयोगी सदा संन्यासी ही है। कर्मयोग का अनुष्ठान किये बिना सांख्ययोगका पालन करना कठिन है। इसलिये सांख्ययोग का साधक पहले कर्मयोगी होता है फिर संन्यासी (सांख्ययोगी) होता है परन्तु कर्मयोग के साधक के लिये सांख्ययोग का अनुष्ठान करना आवश्यक नहीं है। इसलिये कर्मयोगी आरम्भ से ही संन्यासी है। जिसके रागद्वेष का अभाव हो गया है उसे संन्यासआश्रम में जाने की आवश्यकता नहीं है। कोई भी व्यक्ति , वस्तु , शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि अपनी नहीं है और अपने लिये भी नहीं है ऐसा निश्चय होने के बाद रागद्वेष मिटकर ऐसा ही यथार्थ अनुभव हो जाता है फिर व्यवहार में संसार से सम्बन्ध दिखने पर भी भीतर से (रागद्वेष न रहने से) सम्बन्ध होता ही नहीं। यही नित्यसंन्यास है। लौकिक अथवा पारलौकिक प्रत्येक कार्य करते समय कर्मयोगी का संसार से सर्वथा संन्यास रहता है इसलिये वह नित्यसंन्यासी ही समझने योग्य है। संसार से सम्बन्ध-विच्छेद अर्थात् लिप्तता का अभाव ही संन्यास है और कर्मयोगी में राग-द्वेष न रहने से संसार से लिप्तता रहती ही नहीं। अतः कर्मयोगी नित्यसंन्यासी है। “निर्द्वन्द्वो हि सुखं बन्धात्प्रमुच्यते” (टिप्पणी प0 283) साधना के आरम्भ में साधक के अन्तःकरण में द्वन्द्व रहता है। सत्सङ्ग , स्वाध्याय , विचार आदि करने से वह परमात्मप्राप्ति को अपना ध्येय तो मान लेता है पर उसके अपने कहलाने वाले मन , इन्द्रियों आदि की रुचि स्वाभाविक ही भोग भोगने तथा संग्रह करने में रहती है। इसलिये साधक कभी परमात्मतत्त्व को प्राप्त करना चाहता है और कभी भोग एवं संग्रह को। उसे जैसा सङ्ग मिलता है उसी के अनुसार उसके भावों में परिवर्तन होता रहता है। ऐसा होने पर भी वह भोगों को शान्ति से नहीं भोग सकता क्योंकि सत्सङ्ग आदि के संस्कार उसके अन्तःकरण में वैराग्य (भोगों से अरुचि) पैदा करते रहते हैं। इस प्रकार साधक के अन्तःकरण में द्वन्द्व (भोग भोगूँ या साधन करूँ) चलता रहता है। इस द्वन्द्व पर ही अहंभाव टिका हुआ है। हमें सांसारिक भोग और संग्रह में लगना ही नहीं है बल्कि एकमात्र परमात्मतत्त्व को ही प्राप्त करना है ऐसा दृढ़ निश्चय होने पर द्वन्द्व नहीं रहता और अहंभाव परमात्मतत्त्व में लीन हो जाता है। वास्तव में संसार का महत्त्व अन्तःकरण में अङ्कित हो जाने से ही द्वन्द्व रहता है। भोग भोगते रहने से दूसरों से सुख चाहते रहने से संसार के प्राणी पदार्थों का महत्त्व अन्तःकरण में अङ्कित हो जाता है। उनसे सुख लेने से वह महत्त्व बढ़ता जाता है जिससे उनको प्राप्त करने की रुचि प्रबल हो जाती है। वह रुचि एक परमात्मप्राप्ति के उद्देश्य को स्थायी और दृढ़ नहीं होने देती। इससे साधक में द्वन्द्व बना रहता है। उद्देश्य की दृढ़ता के लिये साधक को यह पक्का विचार करना चाहिये कि कितना ही सुख , आराम , भोग क्यों न मिल जाय मुझे उसे लेना ही नहीं है बल्कि परहित के लिये उसका त्याग करना है। यह विचार जितना दृढ़ होगा उतना ही साधक निर्द्वन्द्व होगा। निर्द्वन्द्व होने की मुख्य बात इसी श्लोक में “न द्वेष्टि न काङ्क्षति” पदों से कही गयी है जिसका तात्पर्य है राग-द्वेष से रहित होना। राग-द्वेष को मिटाने के लिये यह विचार करना चाहिये कि अपने न चाहने पर भी अनुकूलता और प्रतिकूलता आती ही है अर्थात् अपने चाहने पर अनुकूलता आती हो ऐसी बात नहीं है और न चाहने पर प्रतिकूलता न आती हो ऐसी बात भी नहीं है। अनुकूलता-प्रतिकूलता तो प्रारब्ध के फलस्वरूप आती-जाती रहती है फिर इसके आने अथवा जाने की चाहना क्यों करें ? अनुकूलता के प्रति राग और प्रतिकूलता के प्रति द्वेष अपनी भूल से होता है। इस प्रकार विचार करने से भूल मिटकर राग-द्वेष सर्वथा समाप्त हो जाते हैं। दूसरी बात यह है कि अपनी (स्वयं की ) सत्ता स्वतन्त्र है किसी पदार्थ व्यक्ति क्रिया के अधीन नहीं है क्योंकि सुषुप्ति अवस्था में जब हम संसार को भूल जाते हैं तब भी अपनी सत्ता बनी रहती है जाग्रत् और स्वप्न अवस्था में भी हम प्राणी पदार्थ के बिना रह सकते हैं। फिर (अपनी स्वतन्त्र सत्ता होते हुए भी) उनमें राग-द्वेष करके हम उनके अधीन क्यों बनें इस प्रकार विचार करने से भी राग-द्वेष मिट जाते हैं। संसार का राग उत्पन्न और नष्ट होने वाला है। यह राग कभी स्थायी नहीं रहता किन्तु हम नये-नये प्राणी पदार्थों में राग करके इसे बनाये रखने की चेष्टा करते हैं परन्तु परमात्मा की अभिलाषा उत्पन्न और नष्ट होने वाली नहीं है क्योंकि परमात्मा का ही अंश होने के नाते जीव का परमात्मा से अखण्ड सम्बन्ध है। परमात्मा की अभिलाषा कभी घटती-ब़ढ़ती भी नहीं। केवल संसार में राग अधिक होने पर वह घटती हुई और राग कम होने पर वह बढ़ती हुई दिखती है। इसलिये मैं सदा जीता रहूँ मैं सब कुछ जान लूँ मैं सदा सुखी रहूँ इस रूप में सत्चित्आनन्दस्वरूप परमात्मा की अभिलाषा जीवमात्र में निरन्तर रहती है। जब संसार का राग मिट जाता है और एकमात्र परमात्मा की अभिलाषा रह जाती है तब द्वन्द्व नहीं रहता।कर्मयोग , ज्ञानयोग और भक्तियोग तीनों ही योगमार्गों में निर्द्वन्द्व होना बहुत आवश्यक है। जब तक द्वन्द्व है तब तक मुक्ति नहीं होती (गीता 7। 27)। परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में राग और द्वेष ये दो शत्रु हैं (गीता 3। 34)। निर्द्वन्द्व होने से ये दोनों मिट जाते हैं और इनके मिटने से सुखपूर्वक परमात्मतत्त्व की प्राप्ति हो जाती है। संसार में उलझने के दो ही कारण हैं राग और द्वेष। जितने भी साधन हैं सब राग-द्वेष को मिटाने के लिये ही हैं (टिप्पणी प0 284)। राग-द्वेष के मिटने पर नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्व की अनुभूति स्वतःसिद्ध है। इसमें परिश्रम है ही नहीं। कारण कि परमात्मतत्त्व की अनुभूति असत् के द्वारा नहीं होती बल्कि असत् के त्यागसे होती है। असत् की सत्ता राग-द्वेष पर ही टिकी हुई है। असत् संसार तो स्वतः ही मिट रहा है पर अपने में राग-द्वेष को पकड़ने से संसार स्थिर दिखता है। अतः जो संसार निरन्तर मिट रहा है उसमें राग-द्वेष न रहने से मुक्ति नहीं होगी तो क्या होगा इसलिये निर्द्वन्द्व अर्थात् राग-द्वेष से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है। इस अध्याय के दूसरे श्लोक के पूर्वार्ध में भगवान् ने ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों को परम कल्याण करने वाले बताया। उसकी व्याख्या अब आगे के दो श्लोकों में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )