Shrimad Bhagavad Gita Chapter 5

 

 

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अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग

 

01-06 ज्ञानयोग और कर्मयोग की एकता, सांख्य पर का विवरण और कर्मयोगकी वरीयता

 

 

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 5

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।

एकं सायं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥5.5॥

 

यत-क्या; साङ्ख्यैः -कर्म संन्यास के अभ्यास द्वारा ; प्राप्यते-प्राप्त किया जाता है; स्थानम्-स्थान; तत्-वह; योगैः-भक्ति युक्त कर्म द्वारा; अपि-भी; गम्यते-प्राप्त करता है; एकम्-एक; सांख्यम्-कर्म का त्यागः च-तथा; योगम्-कर्मयोगः च-तथा; यः-जो; पश्यति-देखता है; स:-वह; पश्चति-वास्तव में देखता है।

 

परमेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि सांख्य योग या कर्म संन्यास के माध्यम से जो प्राप्त होता है उसे भक्ति युक्त कर्मयोग से भी प्राप्त किया जा सकता है। अर्थात ज्ञान योगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। इस प्रकार जो मनुष्य ( सांख्य ) कर्म संन्यास और कर्मयोग को एक समान देखते हैं अर्थात जो मनुष्य ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरूप में एक देखते हैं वही वास्तव में सभी वस्तुओं को यथावत रूप में देखते हैं॥5.5॥

 

(“यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ” पूर्वश्लोक के उत्तरार्ध में भगवान ने कहा था कि एक साधन में भी अच्छी तरह से स्थित होकर मनुष्य दोनों साधनों के फलरूप परमात्मतत्त्व को प्राप्त कर लेता है। उसी बात की पुष्टि भगवान् उपर्युक्त पदों में दूसरे ढंग से कर रहे हैं कि जो तत्त्व सांख्ययोगी प्राप्त करते हैं वही तत्त्व कर्मयोगी भी प्राप्त करते हैं। संसार में जो यह मान्यता है कि कर्मयोग से कल्याण नहीं होता , कल्याण तो ज्ञानयोग से ही होता है इस मान्यता को दूर करने के लिये यहाँ अपि अव्यय का प्रयोग किया गया है। सांख्ययोगी और कर्मयोगी दोनों का ही अन्त में कर्मों से अर्थात् क्रियाशील प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद होता है। प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर दोनों ही योग एक हो जाते हैं। साधनकाल में भी सांख्य-योग का विवेक (जड़-चेतन का सम्बन्ध-विच्छेद) कर्मयोगी को अपनाना पड़ता है और कर्मयोग की प्रणाली (अपने लिये कर्म न करने की पद्धति) सांख्ययोगी को अपनानी पड़ती है। सांख्ययोग का विवेक प्रकृति-पुरुष का सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिये होता है और कर्मयोग का कर्म संसार की सेवा के लिये होता है। सिद्ध होने पर सांख्ययोगी और कर्मयोगी दोनों की एक स्थिति होती है क्योंकि दोनों ही साधकों की अपनी निष्ठाएँ हैं (गीता 3। 3)। संसार विषम है। घनिष्ठ से घनिष्ठ सांसारिक सम्बन्ध में भी विषमता रहती है परन्तु परमात्मा सम हैं। अतः समरूप परमात्मा की प्राप्ति संसार से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होने पर ही होती है। संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिये दो योगमार्ग हैं ज्ञानयोग और कर्मयोग। मेरे सत्स्वरूप में कभी अभाव नहीं होता जबकि कामना , आसक्ति अभाव में ही पैदा होती है ऐसा समझकर असङ्ग हो जाय यह ज्ञानयोग है। जिन वस्तुओं में साधक का राग है उन वस्तुओं को दूसरों की सेवा में खर्च कर दे और जिन व्यक्तियों में राग है उनकी निःस्वार्थभाव से सेवा कर दे यह कर्मयोग है। इस प्रकार ज्ञानयोग में विवेक-विचार के द्वारा और कर्मयोग में सेवा के द्वारा संसार से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। “एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति” पूर्वश्लोक के पूर्वार्ध में भगवान् ने व्यतिरेक रीति से कहा था कि सांख्ययोग और कर्मयोग को बेसमझ लोग ही अलग-अलग फल देने वाले कहते हैं। उसी बात को अब अन्वय रीति से कहते हैं कि जो मनुष्य इन दोनों साधनों को फलदृष्टि से एक देखता है वही यथार्थरूप में देखता है। इस प्रकार चौथे और पाँचवें श्लोक का सार यह है कि भगवान् सांख्ययोग और कर्मयोग दोनों को स्वतन्त्र साधन मानते हैं और दोनों का फल एक ही परमात्मतत्त्व की प्राप्ति मानते हैं। इस वास्तविकता को न जानने वाले मनुष्य को भगवान् बेसमझ कहते हैं और इस जानने वाले को भगवान् यथार्थ जानने वाला (बुद्धिमान्) कहते हैं। विशेष बात- किसी भी साधन की पूर्णता होने पर जीने की इच्छा , मरने का भय , पाने का लालच और करने का राग ये चारों सर्वथा मिट जाते हैं। जो निरन्तर मर रहा है अर्थात् जिसका निरन्तर अभाव हो रहा है उस शरीर में मरने का भय नहीं हो सकता और जो नित्यनिरन्तर रहता है उस स्वरूप में जीने की इच्छा नहीं हो सकती तो फिर जीने की इच्छा और मरने का भय किसे होता है ? जब स्वरूप शरीर के साथ तादात्म्य कर लेता है तब उसमें जीने की इच्छा और मरने का भय उत्पन्न हो जाता है। जीने की इच्छा और मरने का भय ये दोनों ज्ञानयोग से (विवेक द्वारा) मिट जाते हैं। पाने की इच्छा उसमें होती है जिसमें कोई अभाव होता है। अपना स्वरूप भावरूप है उसमें कभी अभाव नहीं हो सकता इसलिये स्वरूप में कभी पाने की इच्छा नहीं होती। पाने की इच्छा न होने से उसमें कभी करने का राग उत्पन्न नहीं होता। स्वयं भावरूप होते हुए भी जब स्वरूप अभावरूप शरीर के साथ तादात्म्य कर लेता है तब उसे अपने में अभाव प्रतीत होने लग जाता है जिससे उसमें पाने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है और पाने की इच्छा से करने का राग उत्पन्न हो जाता है। पाने की इच्छा और करने का राग ये दोनों कर्मयोग से मिट जाते हैं।ज्ञानयोग और कर्मयोग इन दोनों साधनों में से किसी एक साधन की पूर्णता होने पर जीने की इच्छा , मरने का भय , पाने का लालच और करने का राग ये चारों सर्वथा मिट जाते हैं। इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में भगवान् ने संन्यास (सांख्ययोग ) की अपेक्षा कर्मयोग को श्रेष्ठ बताया। अब उसी बातको दूसरे प्रकार से कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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