राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय
अध्याय नौ : राज विद्या योग
राज विद्या द्वारा योग
11-15 भगवान का तिरस्कार करने वाले आसुरी प्रकृति वालों की निंदा और देवी प्रकृति वालों के भगवद् भजन का प्रकार
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥9.14॥
सततम् – सदैव; कीर्तयन्तः-दिव्य महिमा का गान; माम्-मेरी; यतन्तः-प्रयास करते हुए; च-भी; दृढव्रताः-दृढ़ संकल्प से; नमस्यन्तः-नतमस्तक होकर; च-तथा; माम्-मुझको; भक्त्या-भक्ति में; नित्ययुक्ताः -निरंतर मेरे ध्यान में युक्त होकर; उपासते-पूजा करते हैं।
ये महात्मा मेरी दिव्य महिमा का सदैव कीर्तन करते हुए दृढ़ निश्चय के साथ विनय पूर्वक मेरे समक्ष नतमस्तक होकर निरन्तर प्रेम और भक्ति के साथ मेरी आराधना करते हैं। अर्थात वे दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरंतर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करते हुए और मुझको बार-बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यान में युक्त होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं॥9.14॥
(‘नित्ययुक्ताः’ – मात्र मनुष्य भगवान में ही नित्ययुक्त रह सकते हैं , हरदम लगे रह सकते हैं , सांसारिक भोगों और संग्रह में नहीं। कारण कि समय-समय पर भोगों से भी ग्लानि होती है और संग्रह से भी उपरति होती है परन्तु भगवान की प्राप्ति का भगवान की तरफ चलने का जो एक उद्देश्य बनता है , एक दृढ़ विचार होता है , उसमें कभी भी फरक नहीं पड़ता। भगवान का अंश होने से जीव का भगवान के साथ अखण्ड सम्बन्ध है। मनुष्य जब तक उस सम्बन्ध को नहीं पहचानता तभी तक वह भगवान से विमुख रहता है , अपने को भगवान से अलग मानता है परन्तु जब वह भगवान के साथ अपने नित्यसम्बन्ध को पहचान लेता है तो फिर वह भगवान के सम्मुख हो जाता है भगवान से अलग नहीं रह सकता और उसको भगवान के सम्बन्ध की विस्मृति भी नहीं होती -यही उसका नित्ययुक्त रहना है।मनुष्य का भगवान के साथ मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं – ऐसा जो स्वयं का सम्बन्ध है – वह जाग्रत् , स्वप्न और सुषुप्ति – इन अवस्थाओं में , एकान्त में भजन-ध्यान करते हुए अथवा सेवारूप से संसार के सब काम करते हुए भी कभी खण्डित नहीं होता, अटलरूप से सदा ही बना रहता है। जैसे मनुष्य अपने को जिस माँ-बाप का मान लेता है ,सब काम करते हुए भी उसका मैं अमुक का लड़का हूँ यह भाव सदा बना रहता है। उसको याद रहे चाहे न रहे , वह याद करे चाहे न करे पर यह भाव हरदम रहता है क्योंकि मैं अमुक का लड़का हूँ – यह भाव उसके मैं -पन में बैठ गया है ऐसे ही जो अनादि , अविनाशी सर्वोपरि भगवान ही मेरे हैं और मैं उनका ही हूँ – इस वास्तविकता को जान लेता है , मान लेता है तो यह भाव हरदम बना रहता है। इस प्रकार भगवान के साथ अपना वास्तविक सम्बन्ध मान लेना ही नित्ययुक्त होना है। दृढव्रताः – जो सांसारिक भोग और संग्रह में लगे हुए हैं वे जो पारमार्थिक निश्चय करते हैं वह निश्चय दृढ़ नहीं होता (गीता 2। 44) परन्तु जिन्होंने भीतर से ही अपने मैंपन को बदल दिया है कि हम भगवान के हैं और भगवान हमारे हैं , उनका यह दृढ़ निश्चय हो जाता है कि हम संसार के नहीं हैं और संसार हमारा नहीं है । अतः हमें सांसारिक भोग और संग्रह की तरफ कभी जाना ही नहीं है बल्कि भगवान के नाते केवल सेवा कर देनी है। इस प्रकार उनका निश्चय बहुत दृढ़ होता है। अपने निश्चय से वे कभी विचलित नहीं होते। कारण कि उनका उद्देश्य भगवान का है और वे स्वयं भी भगवान के अंश हैं। उनके निश्चय में अदृढ़ता आने का प्रश्न ही नहीं है। अदृढ़ता तो सांसारिक निश्चय में आती है जो कि टिकने वाला नहीं है। ‘यतन्तश्च’ – जैसे सांसारिक मनुष्य कुटुम्ब का पालन करते हैं तो ममतापूर्वक करते हैं , रुपये कमाते हैं तो लोभपूर्वक कमाते हैं – ऐसे ही भगवान के भक्त भगवत्प्राप्ति के लिये यत्न (साधन ) करते हैं तो लगनपूर्वक ही करते हैं। उनके प्रयत्न सांसारिक दिखते हुए भी वास्तव में सांसारिक नहीं होते क्योंकि उनके प्रयत्नमात्र का उद्देश्य भगवान ही होते हैं। ‘भक्त्या कीर्तयन्तो माम्’ – वे भक्त प्रेमपूर्वक कभी भगवान के नाम का कीर्तन करते हैं , कभी नामजप करते हैं , कभी पाठ करते हैं , कभी नित्यकर्म करते हैं , कभी भगवत्सम्बन्धी बातें सुनाते हैं आदि आदि। वे जो कुछ वाणी सम्बन्धी क्रियाएँ करते हैं , वह सब भगवान का स्तोत्र ही होता है – ‘स्तोत्राणि सर्वा गिरः।नमस्यन्तश्च ‘ – वे भक्तिपूर्वक भगवान को नमस्कार करते हैं। उनमें सद्गुण-सदाचार आते हैं , उनके द्वारा भगवान के अनुकूल कोई चेष्टा होती है तो वे इस भाव से भगवान को नमस्कार करते हैं कि हे नाथ ! यह सब आपकी कृपा से ही हो रहा है। आपकी तरफ इतनी अभिरुचि और तत्परता मेरे उद्योग से नहीं हुई है। अतः इन सद्गुण-सदाचारों को , इस साधन को आपकी कृपा से हुआ समझकर , मैं तो आपको केवल नमस्कार ही कर सकता हूँ। ‘सततं मां उपासते’ – इस प्रकार मेरे अनन्यभक्त निरन्तर मेरी उपासना करते हैं। निरन्तर उपासना करने का तात्पर्य है कि वे कीर्तन-नमस्कार आदि के सिवाय जो भी खाना-पीना , सोना-जगना तथा व्यापार करना , खेती करना आदि साधारण क्रियाएँ करते हैं , उन सबको भी मेरे लिये ही करते हैं। उनकी सम्पूर्ण लौकिक , पारमार्थिक क्रियाएँ केवल मेरे उद्देश्य से , मेरी प्रसन्नता के लिये ही होती हैं। अनित्य संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करके नित्यतत्त्व की तरफ चलने वाले साधक कई प्रकार के होते हैं। उनमें से भक्ति के साधकों का वर्णन पीछे के दो श्लोकों में कर दिया । अब दूसरे साधकों का वर्णन आगे के श्लोक में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )