राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय
अध्याय नौ : राज विद्या योग
राज विद्या द्वारा योग
01-06 परम गोपनीय ज्ञानोपदेश, उपासनात्मक ज्ञान, ईश्वर का विस्तार
श्रीभगवानुवाच।
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥9.1॥
श्रीभगवान् उवाच-परम प्रभु ने कहा; इदम्-इस; तु–लेकिन; ते-तुमको; गुह्यतमम् – अत्यन्त गूढ़; प्रवक्ष्यामि-मैं प्रदान करूँगा; अनसूयवे-ईर्ष्या न करने वाला; ज्ञानम्-ज्ञान; विज्ञान-अनुभूत ज्ञान; सहितम्-सहित; यत्-जिसे; ज्ञात्वा-जानकर; मोक्ष्यसे-मुक्त हो सकोगे; अशुभात्– भौतिक संसार के कष्ट।
परम प्रभु ने कहाः हे अर्जुन! क्योंकि तुम मुझसे ईर्ष्या नहीं करते इसलिए मैं तुम्हारे जैसे दोष दृष्टि रहित भक्त को विज्ञान सहित परम गुह्म ज्ञान बताऊँगा जिसे जानकर तुम इस दुःखरूप और जन्म मरण रूप भौतिक संसार से और उसके कष्टों और अशुभ से अर्थात संसार बंधन से मुक्त हो जाओगे ॥9.1॥
‘इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे’ – भगवान के मन में जिस तत्त्व को , विषय को कहनेकी इच्छा है , उसकी तरफ लक्ष्य कराने के लिये ही यहाँ भगवान सबसे पहले इदम् (यह ) शब्द का प्रयोग करते हैं। उस (भगवान के मन-बुद्धि में स्थित) तत्त्व की महिमा कहने के लिये ही उसको ‘गुह्यतमम्’ कहा है अर्थात् वह तत्त्व अत्यन्त गोपनीय है। इसी को आगे के श्लोक में ‘राजगुह्यम्’ और 18वें अध्याय के 64वें श्लोक में ‘सर्वगुह्यतमम्’ कहा है। यहाँ पहले ‘गुह्यतमम्’ कहकर पीछे (गीता 9। 34 में) ‘मन्मना भव ‘৷৷. कहा है और 18वें अध्याय में पहले ‘सर्वगुह्यतमम्’ कहकर पीछे (गीता 18। 65 में) ‘मन्मना भव ৷৷’ कहा है। तात्पर्य है कि यहाँ का और वहाँ का विषय एक ही है , दो नहीं। यह अत्यन्त गोपनीय तत्त्व हरेक के सामने नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसमें भगवान ने खुद अपनी महिमा का वर्णन किया है। जिसके अन्तःकरण में भगवान के प्रति थोड़ी भी दोषदृष्टि है उसको ऐसी गोपनीय बात कही जाय तो वह भगवान आत्मश्लाघी हैं , अपनी प्रशंसा करने वाले हैं – ऐसा उलटा अर्थ ले सकता है। इसी बात को लेकर भगवान अर्जुन के लिये अनसूयवे विशेषण देकर कहते हैं कि भैया तू दोष-दृष्टि रहित है। इसलिये मैं तेरे सामने अत्यन्त गोपनीय बात को फिर अच्छी तरह से कहूँगा अर्थात् उस तत्त्व को भी कहूँगा और उसके उपायों को भी कहूँगा – ‘प्रवक्ष्यामि’। ‘प्रवक्ष्यामि’ पद का दूसरा भाव है कि मैं उस बात को विलक्षण रीति से और साफ-साफ कहूँगा अर्थात् मात्र मनुष्य मेरे शरण होने के अधिकारी हैं। चाहे कोई दुराचारी से दुराचारी , पापी से पापी क्यों न हो तथा किसी वर्ण का , किसी आश्रम का , किसी सम्प्रदाय का , किसी देश का , किसी वेश का , कोई भी क्यों न हो , वह भी मेरे शरण होकर मेरी प्राप्ति कर लेता है – यह बात मैं विशेषता से कहूँगा। सातवें अध्याय में भगवान के मन में जितनी बातें कहने की आ रही थीं उतनी बातें वे नहीं कह सके। इसलिये भगवान् यहाँ ‘तु ‘पद देते हैं कि उसी विषय को मैं फिर कहूँगा। ‘ज्ञानं विज्ञानसहितम्’ – भगवान इस सम्पूर्ण जगत के महाकारण हैं – ऐसा दृढ़ता से मानना ज्ञान है और भगवान के सिवाय दूसरा कोई (कार्यकारण) तत्त्व नहीं है – ऐसा अनुभव होना विज्ञान है। इस विज्ञानसहित ज्ञान के लिये ही इस श्लोक के पूर्वार्ध में ‘इदम्’ और ‘गुह्यतमम् ‘ – ये दो विशेषण आये हैं। ज्ञान और विज्ञानसम्बन्धी विशेष बात – इस ज्ञान-विज्ञान को जानकर तू अशुभ संसार से मुक्त हो जायगा। यह ज्ञान-विज्ञान ही राजविद्या , राजगुह्य आदि है। इस धर्म पर जो श्रद्धा नहीं करते , इस पर विश्वास नहीं करते , इसको मानते नहीं , वे मौतरूपी संसार के रास्ते में पड़ जाते हैं और बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं (9। 1 – 3) – ऐसा कहकर भगवान ने ज्ञान बताया। अव्यक्त मूर्ति मेरे से ही यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है अर्थात् सब कुछ मैं ही मैं हूँ दूसरा कोई है ही नहीं (9। 4 – 6) – ऐसा कहकर भगवान ने विज्ञान बताया। प्रकृति के परवश हुए सम्पूर्ण प्राणी महाप्रलय में मेरी प्रकृति को प्राप्त हो जाते हैं और महासर्ग के आदि में मैं फिर उनकी रचना करता हूँ परन्तु वे कर्म मेरे को बाँधते नहीं। उनमें मैं उदासीन की तरह अनासक्त रहता हूँ। मेरी अध्यक्षता में प्रकृति सम्पूर्ण प्राणियों की रचना करती है। मेरे परम भाव को न जानते हुए मूढ़ लोग मेरी अवहेलना करते हैं। राक्षसी , आसुरी और मोहिनी प्रकृति का आश्रय लेने वालों की आशा , कर्म , ज्ञान सब व्यर्थ हैं। महात्मालोग दैवी प्रकृति का आश्रय लेकर और मेरे को सम्पूर्ण प्राणियों का आदि मानकर मेरा भजन करते हैं। मेरे को नमस्कार करते हैं। कई ज्ञानयज्ञ के द्वारा एकीभाव से मेरी उपासना करते हैं आदि आदि (9। 7 – 15) – ऐसा कहकर भगवान ने ज्ञान बताया। मैं ही क्रतु , यज्ञ , स्वधा , औषध आदि हूँ और सत् – असत भी मैं ही हूँ अर्थात् कार्य-कारण रूप से जो कुछ है , वह सब मैं ही हूँ (9। 16 – 19) – ऐसा कह कर विज्ञान बताया। जो यज्ञ करके स्वर्गमें जाते हैं , वे वहाँ पर सुख भोगते हैं और पुण्य समाप्त होने पर फिर लौटकर मृत्युलोक में आते हैं। अनन्यभाव से मेरा चिन्तन करने वाले का योगक्षेम मैं स्वयं वहन करता हूँ। श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओं का पूजन करने वाले वास्तव में मेरा ही पूजन करते हैं पर करते हैं अविधिपूर्वक। जो मुझे सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी नहीं मानते , उनका पतन हो जाता है। जो श्रद्धाप्रेमपूर्वक पत्र , पुष्प आदि को तथा सम्पूर्ण क्रियाओं को मेरे अर्पण करते हैं , वे शुभ-अशुभ कर्मों से मुक्त हो जाते हैं (9। 20 – 28) — ऐसा कहकर भगवान ने ज्ञान बताया। मैं सम्पूर्ण भूतों में सम हूँ। मेरा कोई प्रेम या द्वेष का पात्र नहीं है परन्तु जो मेरा भजन करते हैं वे मेरे में और मैं उनमें हूँ (9। 29) – ऐसा कहकर विज्ञान बताया। इसके आगे के पाँच श्लोक (9। 30 – 34) इस विज्ञान की व्याख्या में ही कहे गये हैं (टिप्पणी प0 484)। ‘यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्’ – असत् के साथ सम्बन्ध जोड़ना ही अशुभ है कि जो ऊँच-नीच योनियों में जन्म लेने का कारण है। असत् (संसार) के साथ अपना सम्बन्ध केवल माना हुआ है , वास्तविक नहीं है। जिसके साथ वास्तविक सम्बन्ध नहीं होता उसी से मुक्ति होती है। अपने स्वरूप से कभी किसी की मुक्ति नहीं होती। अतः मुक्ति उसी से होती है जो अपना नहीं है किन्तु जिसको भूल से अपना मान लिया है। इस भूलजनित मान्यता से ही मुक्ति होती है। भूलजनित मान्यता को न मानने मात्र से ही उससे मुक्ति हो जाती है। जैसे कपड़े में मैल लग जाने पर उसको साफ किया जाता है तो मैल छूट जाता है। कारण कि मैल आगन्तुक है और मैल की अपेक्षा कपड़ा पहले से है अर्थात् मैल और कपड़ा दो हैं , एक नहीं। ऐसे ही भगवान का अविनाशी अंश यह जीव भगवान से विमुख होकर जिस किसी योनि में जाता है , वहीं पर मैं – मेरापन करके शरीरसंसार के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है अर्थात् मैल चढ़ा लेता है और जन्मता-मरता रहता है। जब यह अपने स्वरूप को जान लेता है अथवा भगवान के सम्मुख हो जाता है तब यह अशुभ सम्बन्ध से मुक्त हो जाता है अर्थात् उसका संसार से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। इसी भाव को लेकर भगवान यहाँ अर्जुन से कहते हैं कि इस तत्त्व को जानकर तू अशुभ से मुक्त हो जायगा। पूर्वश्लोक में विज्ञानसहित ज्ञान कहने की प्रतिज्ञा करके उसका परिणाम अशुभ से मुक्त होना बताया। अब आगे के श्लोक में उसी विज्ञानसहित ज्ञान की महिमा का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी