राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय
अध्याय नौ : राज विद्या योग
राज विद्या द्वारा योग
20-25 सकाम और निष्काम उपासना का फल
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालंक्षीणे पुण्य मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥9.21॥
त- वे; तम्-उसको; भुक्त्वा–भोग करके; स्वर्गलोकम् – स्वर्ग; विशालम्-गहन; क्षणे-समाप्त हो जाने पर; पुण्ये-पुण्य और पाप कर्म; मर्त्यलोकम्-पृथ्वी लोक में; विशन्ति-लौट आते हैं; एवम्-इस प्रकार; त्रयीधर्म-वेदों के कर्मकाण्ड संबंधी भाग; अनुप्रपन्नाः-पालन करना; गतआगतम्-बार बार आवागमन; कामकामाः-इन्द्रिय भोग के विषय; लभन्ते–प्राप्त करते हैं।
वे उस विशाल स्वर्ग लोक के सुखों को भोगकर पुण्य कर्मों के फल क्षीण होने पर मृत्यु लोक ( पृथ्वी लोक ) को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्ग के साधनरूप तीनों वेदों में कहे हुए सकाम कर्म का आश्रय लेने वाले अर्थात जो अपने इच्छित पदार्थ प्राप्त करने हेतु वैदिक कर्मकाण्डों का पालन करते हैं और भोगों की कामना वाले जीव बार-बार संसार में आवागमन को प्राप्त होते हैं। ऐसे जीव पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग में जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक में लौट कर आते हैं॥9.21॥
(‘ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं ৷৷. कामकामा लभन्ते’ – स्वर्गलोक भी विशाल (विस्तृत) है , वहाँ की आयु भी विशाल (लम्बी ) है और वहाँ की भोगसामग्री भी विशाल (बहुत) है। इसलिये इन्द्रलोक को विशाल कहा गया है। स्वर्ग की प्राप्ति चाहने वाले न तो भगवान का आश्रय लेते हैं और न भगवत्प्राप्ति के किसी साधन का ही आश्रय लेते हैं। वे तो केवल तीनों वेदों में कहे हुए सकाम धर्मों (अनुष्ठानों ) का ही आश्रय लेते हैं। इसलिये उनको त्रयीधर्म के शरण बताया गया है। ‘गतागतम्’ का अर्थ है – जाना और आना। सकाम अनुष्ठान करने वाले स्वर्ग के प्रापक जिन पुण्यों के फलस्वरूप स्वर्ग में जाते हैं , उन पुण्यों के समाप्त होने पर वे पुनः मृत्युलोक में लौट आते हैं। इस प्रकार उनका घटीयन्त्र की तरह बार-बार सकाम शुभकर्म करके स्वर्ग में जाने और फिर लौटकर मृत्युलोक में आने का चक्कर चलता ही रहता है। इस चक्कर से वे कभी छूट नहीं पाते। अगर पूर्वश्लोक में आये ‘पूतपापाः’ पद से जिनके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो गये हैं और यहाँ आये ‘क्षीणे पुण्ये’ पदों से जिनके सम्पूर्ण पुण्य क्षीण हो गये हैं – ऐसा अर्थ लिया जाय तो उनको (पाप-पुण्य दोनों क्षीण होने से) मुक्त हो जाना चाहिये परन्तु वे मुक्त नहीं होते बल्कि आवागमन को प्राप्त होते हैं। इसलिये यहाँ ‘पूतपापाः’ पद से वे लिये गये हैं जिनके स्वर्ग के प्रतिबन्धक पाप यज्ञ करने से नष्ट हो गये हैं और ‘क्षीणे पुण्ये’ पदों से वे लिये गये हैं जिनके स्वर्ग के प्रापक पुण्य वहाँ का सुख भोगने से समाप्त हो गये हैं। अतः सम्पूर्ण पापों और पुण्यों के नाश की बात यहाँ नहीं आयी है। जो त्रयीधर्म का आश्रय लेते हैं उनको तो देवताओं से प्रार्थना -याचना करनी पड़ती है परन्तु जो केवल मेरा ही आश्रय लेते हैं उनको अपने योगक्षेम के लिये मन में चिन्ता , संकल्प अथवा याचना नहीं करनी पड़ती – यह बात भगवान आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )