राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय
अध्याय नौ : राज विद्या योग
राज विद्या द्वारा योग
20-25 सकाम और निष्काम उपासना का फल
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥9.22॥
अनन्या:-सदैव; चिन्तयन्तः-सोचते हुए; माम्–मुझको; ये-जो; जनाः-व्यक्ति; पर्युपासते-पूजा करते हैं; तेषाम्-उनके; नित्य-सदा; अभियुक्तानाम्-सदैव भक्ति में तल्लीन मनुष्यों की; योग-आध्यात्मिक सम्पत्ति की आपूर्ति; क्षेम्-आध्यात्मिक संपदा की सुरक्षा; वहामि-वहन करता हूँ; अहम्-मैं।
जो अनन्य प्रेमी भक्त जन मुझ परमेश्वर को निरंतर चिंतन करते हुए निष्कामभाव से भजते हैं, उन नित्य-निरंतर मेरा चिंतन करने वाले पुरुषों का योगक्षेम (भगवत्स्वरूप की प्राप्ति का नाम ‘योग’ है और भगवत्प्राप्ति के निमित्त किए हुए साधन की रक्षा का नाम ‘क्षेम’ है) मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ अर्थात जो लोग सदैव मेरे बारे में सोचते हैं और मेरी अनन्य भक्ति में लीन रहते हैं एवं जिनका मन सदैव मुझमें तल्लीन रहता है, उनकी जो आवश्यकताएँ होती हैं उन्हें मैं पूरा करता हूँ और जो कुछ उनके स्वामित्व में होता है, उसकी रक्षा करता हूँ॥9.22॥
(‘अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते’ – जो कुछ देखने , सुनने और समझने में आ रहा है वह सब का सब भगवान का स्वरूप ही है और उसमें जो कुछ परिवर्तन तथा चेष्टा हो रही है वह सब की सब भगवान की ही लीला है – ऐसा जो दृढ़ता से मान लेते हैं , समझ लेते हैं उनकी फिर भगवान के सिवाय कहीं भी महत्त्वबुद्धि नहीं होती। वे भगवान में ही लगे रहते हैं। इसलिये वे अनन्य हैं। केवल भगवान में ही महत्ता और प्रियता होने से उनके द्वारा स्वतः भगवान का ही चिन्तन होता है। ‘अनन्याः’ कहने का दूसरा भाव यह है कि उनके साधन और साध्य केवल भगवान ही हैं अर्थात् केवल भगवान के ही शरण होना है , उन्हीं का चिन्तन करना है , उन्हीं की उपासना करनी है और उन्हीं को प्राप्त करना है – ऐसा उनका दृढ़ भाव है। भगवान के सिवाय उनका कोई अन्य भाव है ही नहीं क्योंकि भगवान के सिवाय अन्य सब नाशवान है। अतः उनके मन में भगवान के सिवाय अन्य कोई इच्छा नहीं है । अपने जीवननिर्वाह की भी इच्छा नहीं है। इसलिये वे अनन्य हैं। वे खाना-पीना , चलना-फिरना , बात-चीत करना , व्यवहार करना आदि जो कुछ भी काम करते हैं , वह सब भगवान की ही उपासना है क्योंकि वे सब काम भगवान की प्रसन्नता के लिये ही करते हैं। ‘तेषां नित्याभियुक्तानाम्’ – जो अनन्य होकर भगवान का ही चिन्तन करते हैं और भगवान की प्रसन्नता के लिये ही सब काम करते हैं उन्हींके लिये यहाँ ‘नित्याभियुक्तानाम्’ पद आया है। इसको दूसरे शब्दों में इस प्रकार समझें कि वे संसार से विमुख हो गये – यह उनकी अनन्यता है। वे केवल भगवान के सम्मुख हो गये – यह उनका चिन्तन है और सक्रिय-अक्रिय सभी अवस्थाओं में भगवत्सेवापरायण हो गये – यह उनकी उपासना है। ये तीनों बातें जिनमें हो जाती हैं वे ही नित्याभियुक्त हैं। ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ – अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति करा देना योग है और प्राप्त सामग्री की रक्षा करना क्षेम है। भगवान कहते हैं कि मेरे में नित्य-निरन्तर लगे हुए भक्तों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ। वास्तव में देखा जाय तो अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति कराने में भी योग का वहन है और प्राप्ति न कराने में भी योग का वहन है। कारण कि भगवान तो अपने भक्त का हित देखते हैं और वही काम करते हैं जिसमें भक्त का हित होता हो। ऐसे ही प्राप्त वस्तु की रक्षा करने में भी क्षेम का वहन है और रक्षा न करने में भी क्षेमका वहन है। अगर भक्त की भक्ति बढ़ती हो , उसका कल्याण होता हो तो भगवान प्राप्त की रक्षा करेंगे क्योंकि इसी में उसका क्षेम है। अगर प्राप्त की रक्षा करने से उसकी भक्ति न बढ़ती हो , उसका हित न होता हो तो भगवान उस प्राप्त वस्तु को नष्ट कर देंगे क्योंकि नष्ट करने में ही उसका क्षेम है। इसलिये भगवान के भक्त अनुकूल और प्रतिकूल – दोनों परिस्थितियों में परम प्रसन्न रहते हैं। भगवान पर निर्भर रहने के कारण उनका यह दृढ़ विश्वास हो जाता है कि जो भी परिस्थिति आती है वह भगवान की ही भेजी हुई है। अतः अनुकूल परिस्थिति ठीक है और प्रतिकूल परिस्थिति बेठीक है – उनका यह भाव मिट जाता है। उनका भाव रहता है कि भगवान ने जो किया है वही ठीक है और भगवान ने जो नहीं किया है वही ठीक है , उसी में हमारा कल्याण है। ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये – यह सोचने की हमें किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। कारण कि हम सदा भगवान के हाथ में ही हैं और भगवान सदा ही हमारा वास्तविक हित करते रहते हैं। इसलिये हमारा अहित कभी हो ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि भक्त का मनचाहा हो जाय तो उसमें भी कल्याण है और मनचाहा न हो तो उसमें भी कल्याण है। भक्त का चाहा और न चाहा कोई मूल्य नहीं रखता । मूल्य तो भगवान के विधान का है। इसलिये अगर कोई अनुकूलता में प्रसन्न और प्रतिकूलता में खिन्न होता है तो वह भगवान का दास नहीं है बल्कि अपने मन का दास है। वास्तव में तो ‘योग’ नाम भगवान के साथ सम्बन्ध का है और ‘क्षेम’ नाम जीव के कल्याण का है। इस दृष्टि से भगवान भक्त के सम्बन्ध को अपने साथ दृढ़ करते हैं – यह तो भक्त का योग हुआ और भक्त के कल्याण की चेष्टा करते हैं – यह भक्त का क्षेम हुआ। इसी बात को लेकर दूसरे अध्याय के 45वें श्लोक में भगवान ने अर्जुन के लिये आज्ञा दी कि तू ‘निर्योगक्षेम’ हो जा अर्थात् तू योग और क्षेमसम्बन्धी किसी प्रकार की चिन्ता मत कर। ‘वहाम्यहम्’ का तात्पर्य है कि जैसे छोटे बच्चे के लिये माँ किसी वस्तु की आवश्यकता समझती है तो बड़ी प्रसन्नता और उत्साह के साथ स्वयं वह वस्तु लाकर देती है। ऐसे ही मेरे में निरन्तर लगे हुए भक्तों के लिये मैं किसी वस्तु की आवश्यकता समझता हूँ तो वह वस्तु मैं स्वयं ढोकर लाता हूँ अर्थात् भक्तों के सब काम मैं स्वयं करता हूँ। पूर्वश्लोक में अपनी उपासना की बात कह करके अब भगवान अन्य देवताओं की उपासना की बात कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )