राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय
अध्याय नौ : राज विद्या योग
राज विद्या द्वारा योग
26 – 34 निष्काम भगवद् भक्ति की महिमा
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥9.27॥
यत्-जो कुछ; करोषि-करते हो; यत्-जो भी; अश्नासि-खाते हो; यत्-जो कुछ; जुहोषि-यज्ञ में अर्पित करना; ददासि-उपहार स्वरूप प्रदान करना; यत्-जो; यत्-जो भी; तपस्यसि-तप करते हो; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; तत्-वह सब; कुरूष्व-करो; मत्-मुझको; अर्पणम -अर्पण के रूप में।
हे कुन्ती पुत्र! तुम जो भी करते हो, जो भी खाते हो, पवित्र यज्ञाग्नि में जो आहुति डालते हो, जो भी दान देते हो, जो भी तपस्या करते हो, यह सब मुझे अर्पित करते हुए करो॥9.27॥
[भगवान का यह नियम है कि जो जैसे मेरी शरण लेते हैं मैं वैसे ही उनको आश्रय देता हूँ (गीता 4। 11)। जो भक्त अपनी वस्तु मेरे अर्पण करता है मैं उसे अपनी वस्तु देता हूँ। भक्त तो सीमित ही वस्तु देता है पर मैं अनन्त गुणा करके देता हूँ परन्तु जो अपने आपको ही मुझे दे देता है मैं अपने आपको उसे दे देता हूँ। वास्तव में मैंने अपने आपको संसारमात्र को दे रखा है (गीता 9। 4)? और सबको सब कुछ करने की स्वतन्त्रता दे रखी है। अगर मनुष्य मेरी दी हुई स्वतन्त्रता को मेरे अर्पण कर देता है तो मैं भी अपनी स्वतन्त्रता को उसके अर्पण कर देता हूँ अर्थात् मैं उसके अधीन हो जाता हूँ। इसलिये यहाँ भगवान उस स्वतन्त्रता को अपने अर्पण करने के लिये अर्जुन से कहते हैं।] ‘यत्करोषि’ – यह पद ऐसा विलक्षण है कि इसमें शास्त्रीय , शारीरिक , व्यावहारिक , सामाजिक , पारमार्थिक आदि यावन्मात्र क्रियाएँ आ जाती हैं। भगवान कहते हैं कि तू इन सम्पूर्ण क्रियाओं को मेरे अर्पण कर दे अर्थात् तू खुद ही मेरे अर्पित हो जा तो तेरी सम्पूर्ण क्रियाएँ स्वतः मेरे अर्पित हो जायँगी। अब आगे भगवान उन्हीं क्रियाओं का विभाग करते हैं – यदश्नासि – इस पद के अन्तर्गत सम्पूर्ण शारीरिक क्रियाएँ लेनी चाहिये अर्थात् शरीर के लिये तू जो भोजन करता है , जल पीता है , कुपथ्य का त्याग और पथ्य का सेवन करता है , औषधि सेवन करता है , कपड़ा पहनता है , सरदी-गरमी से शरीर की रक्षा करता है , स्वास्थ्य के लिये समयानुसार सोता और जागता है , घूमता-फिरता है , शौच स्नान करता है आदि सभी क्रियाओं को तू मेरे अर्पण कर दे। यह शारीरिक क्रियाओं का पहला विभाग है। ‘यज्जुहोषि — इस पद में यज्ञसम्बन्धी सभी क्रियाएँ आ जाती हैं अर्थात् शाकल्य सामग्री इकट्ठी करना , अग्नि प्रकट करना , मन्त्र पढ़ना , आहुति देना आदि सभी शास्त्रीय क्रियाएँ मेरे अर्पण कर दे। ‘ददासि यत्’ – तू जो कुछ देता है अर्थात् दूसरों की सेवा करता है , दूसरों की सहायता करता है , दूसरों की आवश्यकतापूर्ति करता है आदि जो कुछ शास्त्रीय क्रिया करता है वह सब मेरे अर्पण कर दे। ‘यत्तपस्यसि’ – तू जो कुछ तप करता है अर्थात् विषयों से अपनी इन्द्रियों का संयम करता है अपने कर्तव्य का पालन करते हुए अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों को प्रसन्नतापूर्वक सहता है और तीर्थ , व्रत , भजन-ध्यान , जप-कीर्तन , श्रवण-मनन , समाधि आदि जो कुछ पारमार्थिक क्रिया करता है वह सब मेरे अर्पण कर दे। उपर्युक्त तीनों पद शास्त्रीय और पारमार्थिक क्रियाओं का दूसरा विभाग है। ‘तत्कुरुष्व मदर्पणम्’ – यहाँ भगवान ने ‘परस्मैपदी कुरु’ क्रियापद न देकर ‘आत्मनेपदी कुरुष्व ‘ क्रियापद दिया है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि तू सब कुछ मेरे अर्पण कर देगा तो मेरी कमी की पूर्ति हो जायगी – यह बात नहीं है किन्तु सब कुछ मेरे अर्पण करने पर तेरे पास कुछ नहीं रहेगा अर्थात् तेरापन मैं और मेरापन सब खत्म हो जायगा जो कि बन्धनकारक है। सब कुछ मेरे अर्पण करने के फलस्वरूप तेरे को पूर्णता की प्राप्ति हो जायगी अर्थात् जिस लाभ से बढ़कर दूसरा कोई लाभ सम्भव ही नहीं है और जिस लाभ में स्थित होने पर बड़े भारी दुःख से भी विचलित नहीं किया जा सकता अर्थात् जहाँ दुःखों के संयोग का ही अत्यन्त वियोग है (गीता 6। 22 23) – ऐसा लाभ तेरे को प्राप्त हो जायगा। इस श्लोक में यत् पद पाँच बार कहने का तात्पर्य है कि एक-एक क्रिया अर्पण करने का भी अपार माहात्म्य है फिर सम्पूर्ण क्रियाएँ अर्पण की जाएँ तब तो कहना ही क्या है । विशेष बात- 26वें श्लोक में तो भगवान ने पत्र , पुष्प आदि अर्पण करने की बात कही जो कि अनायास अर्थात् बिना परिश्रम के प्राप्त होते हैं परन्तु इसमें कुछ न कुछ उद्योग तो करना ही पड़ेगा अर्थात् सुगम से सुगम वस्तु को भी भगवान को अर्पण करने का नया उद्योग करना पड़ेगा परन्तु इस 27वें श्लोक में भगवान ने उससे भी विलक्षण बात बतायी है कि नये पदार्थ नहीं देने हैं , कोई नयी क्रिया नहीं करनी है और कोई नया उद्योग भी नहीं करना है बल्कि हमारे द्वारा भी लौकिक, पारमार्थिक आदि स्वाभाविक क्रियाएँ होती हैं उनको भगवान के अर्पण कर देना है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि भगवान के लिये किसी वस्तु और क्रियाविशेष को अर्पण करने की जरूरत नहीं है बल्कि खुद को ही अर्पित करने की जरूरत है। खुद अर्पित होने से सब क्रियाएँ स्वाभाविक भगवान के अर्पण हो जायँगी , भगवान की प्रसन्नता का कारण हो जायँगी। जैसे बालक अपनी माँ के सामने खेलता है , कभी दौड़कर दूर चला जाता है और फिर दौड़कर गोद में आ जाता है , कभी पीठ पर चढ़ जाता है आदि जो कुछ क्रिया बालक करता है उस क्रिया से माँ प्रसन्न होती है। माँ की इस प्रसन्नता में बालक का माँ के प्रति अपनेपन का भाव ही हेतु है। ऐसे ही शरणागत भक्त का भगवान के प्रति अपनेपन का भाव होने से भक्त की प्रत्येक क्रिया से भगवान को प्रसन्नता होती है। यहाँ ‘करोषि’ क्रिया के साथ सामान्य ‘यत्’ पद होने से अर्थात् तू जो कुछ करता है – ऐसा कहने से निषिद्ध क्रिया भी आ सकती है परन्तु अन्त में ‘तत्कुरुष्व मदर्पणम् ‘ वह मेरे अर्पण कर दे – ऐसा आया है। अतः जो चीज या क्रिया भगवान के अर्पण की जायगी वह भगवान की आज्ञा के अनुसार भगवान के अनुकूल ही होगी। जैसे किसी त्यागी पुरुष को कोई वस्तु दी जायगी तो उसके अनुकूल ही दी जायगी , निषिद्ध वस्तु नहीं दी जायगी। ऐसे ही भगवान को कोई वस्तु या क्रिया अर्पण की जायगी तो उनके अनुकूल विहित वस्तु या क्रिया ही अर्पण की जायगी , निषिद्ध नहीं। कारण कि जिसका भगवान के प्रति अर्पण करने का भाव है , उसके द्वारा न तो निषिद्ध क्रिया होने की सम्भावना है और न निषिद्ध क्रिया अर्पण करने की ही सम्भावना है।अगर कोई कहे कि हम तो चोरी आदि निषिद्ध क्रिया भी भगवान के अर्पण करेंगे तो यह नियम है कि भगवान को दिया हुआ अनन्त गुणा हो करके मिलता है। इसलिये अगर चोरी आदि निषिद्ध क्रिया भगवान के अर्पण करोगे तो उसका फल भी अनन्त गुणा हो करके मिलेगा अर्थात् उसका साङ्गोपाङ्ग दण्ड भोगना ही पड़ेगा । पीछे के दो श्लोकों में पदार्थों और क्रियाओं को भगवान के अर्पण करने का वर्णन करके अब आगे के श्लोक में उस अर्पण का फल बाताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )