राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय
अध्याय नौ : राज विद्या योग
राज विद्या द्वारा योग
26 – 34 निष्काम भगवद् भक्ति की महिमा
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्य से कर्मबंधनैः ।
सन्न्यासयोगमुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥9.28॥
शुभअशुभफलैः-शुभ और अशुभ परिणाम; एवम्-इस प्रकार; मोक्ष्यसे-तुम मुक्त हो जाओगे; कर्म-कर्म; बन्धनैः-बन्धन से; संन्यासयोग-स्वार्थ के त्याग से; युक्तआत्मा-मन को मुझमें अनुरक्त करके; विमुक्तः-मुक्त होना; माम्-मुझे ; उपैष्यसि–प्राप्त होगे।
इस प्रकार, समस्त कर्म मुझ भगवान को अर्पण कर के – ऐसे संन्यासयोग युक्त चित्त वाले तुम शुभ और अशुभ फलों के कर्मबंधन से मुक्त हो जाओगे और उनसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त होगे अर्थात वैराग्य द्वारा मन को मुझ में अनुरक्त कर तुम मुक्त होकर मेरे पास आ पाओगे॥9.28॥
‘शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः’ – पूर्वोक्त प्रकार से सब पदार्थ और क्रियाएँ मेरे अर्पण करने से अर्थात् तेरे स्वयं के मुझे अर्पित हो जाने से अनन्त जन्मों के जो शुभ-अशुभ कर्मों के फल हैं उन सबसे तू मुक्त हो जायगा। वे कर्मफल तेरे को जन्म-मरण देने वाले नहीं होंगे। यहाँ शुभ और अशुभ कर्मों से अनन्त जन्मों के किये हुए संचित शुभ – अशुभ कर्म लेने चाहिये। कारण कि भक्त वर्तमान में भगवद आज्ञा के अनुसार किये हुए कर्म ही भगवान को अर्पण करता है। भगवद आज्ञा के अनुसार किये हुए कर्म शुभ ही होते हैं , अशुभ होते ही नहीं। हाँ? अगर किसी रीति से , किसी परिस्थिति के कारण , किसी पूर्वाभ्यास के प्रवाह के कारण भक्त के द्वारा कदाचित , किञ्चिन्मात्र भी कोई आनुषङ्गिक अशुभकर्म बन जाय तो उसके हृदय में विराजमान भगवान उस अशुभकर्म को नष्ट कर देते हैं (टिप्पणी प0 517.1)। जितने भी कर्म किये जाते हैं वे सभी बाह्य होते हैं अर्थात् शरीर , मन , बुद्धि , इन्द्रियों आदि के द्वारा ही होते हैं। इसलिये उन शुभ और अशुभ कर्मों का अनुकल-प्रतिकूल परिस्थिति के रूप में जो फल आता है वह भी बाह्य ही होता है। मनुष्य भूल से उन परिस्थितियों के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ कर सुखी-दुःखी होता रहता है। यह सुखी-दुःखी होना ही कर्मबन्धन है और इसीसे वह जन्मता-मरता है परन्तु भक्त की दृष्टि अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों पर न रहकर भगवान की कृपा पर रहती है अर्थात् भक्त उनको भगवान का विधान ही मानता है , कर्मों का फल मानता ही नहीं। इसलिये वह अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिरूप कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। ‘संन्यासयोगयुक्तात्मा’ – सम्पूर्ण कर्मों को भगवान के अर्पण करने का नाम संन्यासयोग है। इस संन्यासयोग अर्थात् समर्पण योग से युक्त होने वाले को यहाँ ‘संन्यासयोगयुक्तात्मा’ कहा गया है। ऐसे तो गीता में बहुत जगह संन्यास शब्द सांख्ययोग का वाचक आता है पर इसका प्रयोग भक्ति में भी होता है जैसे – ‘मयि संन्यस्य’ (18। 57)। जैसे सांख्ययोगी सम्पूर्ण कर्मों को मन से नवद्वार वाले शरीर में रख कर स्वयं सुख पूर्वक अपने स्वरूप में स्थित रहता है। (गीता 5। 13) ऐसे ही भक्त कर्मों के साथ अपने माने हुए सम्बन्ध को भगवान में रख देता है। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे कोई सज्जन अपनी धरोहर को कहीं रख देता है , ऐसे ही भक्त अपने सहित अनन्त जन्मों के संचित कर्मों को , उनके फलों को और उनके सम्बन्ध को भगवान में रख देता है। इसलिये इसको संन्यासयोग कहा गया है। ‘विमुक्तो मामुपैष्यसि’ – पूर्वश्लोक में ‘तत्कुरुष्व मदर्पणम्’ कहकर अर्पण करने की आज्ञा दी। यहाँ कहते हैं कि इस प्रकार अर्पण करने से तू शुभ-अशुभ कर्मफलों से मुक्त हो जायगा। शुभ-अशुभ कर्मफलों से मुक्त होने पर तू मेरे को प्राप्त हो जायगा। तात्पर्य यह हुआ कि सम्पूर्ण कर्मफलों से मुक्त होना तो प्रेमप्राप्ति का साधन है और भगवान की प्राप्ति होना प्रेम की प्राप्ति है। विशेष बात- शुभ (टिप्पणी प0 517.2) और अशुभ कर्मों का बन्धन क्या है ? शुभ अथवा अशुभ किसी भी कर्म को किया जाय उस कर्म का आरम्भ और अन्त होता है। ऐसे ही उन कर्मों के फलस्वरूप में जो परिस्थिति आती है उसका भी संयोग और वियोग होता है। तात्पर्य यह हुआ कि जब कर्म और उनके फल निरन्तर नहीं रहते तो फिर उनके साथ सम्बन्ध निरन्तर कैसे रह सकता है परन्तु जब कर्ता (कर्म करने वाला) कर्मों के साथ अपनापन कर लेता है तब उसका फल के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है। यद्यपि कर्म और फल के साथ सम्बन्ध कभी रह नहीं सकता तथापि कर्ता उस सम्बन्ध को अपने में मान लेता है। कर्ता स्वयं (स्वरूप से) नित्य है इसलिये उस सम्बन्ध को अपने में स्वीकार करने से वह सम्बन्ध भी नित्य प्रतीत होने लगता है। कर्ता शुभकर्मों का फल चाहता है जो कि अनुकूल परिस्थिति के रूप में सामने आता है। उस परिस्थिति में यह सुख मानता है। जब तक इस सुख की चाहना रहती है तब तक वह दुःख से बच नहीं सकता। कारण कि सुख के आदि में और अन्त में दुःख ही रहता है तथा सुख से भी प्रतिक्षण स्वाभाविक वियोग होता रहता है। जिसके वियोग को यह प्राणी नहीं चाहता। उसका वियोग तो हो ही जाता है , यह नियम है। तात्पर्य यह हुआ कि सुख की इच्छा को यह नहीं छोड़ता और दुःख इसको नहीं छोड़ता। जीव जब अपने आपको प्रभु के समर्पित कर देता है तब (साक्षात् परमात्मा का ही अंश होने से) इसकी परमात्मा के साथ स्वतः अभिन्नता हो जाती है और शरीर के साथ भूल से माना हुआ सम्बन्ध मिट जाता है। यह परमात्मा के साथ अभिन्न तो पहले से ही था। केवल अपने लिये कर्म करने से इस अभिन्नता का अनुभव नहीं होता था। अब अपने सहित कर्मों को भगवान के अर्पण करने से उसकी अपने लिये कर्म करने की मान्यता मिट जाती है तो उसको स्वाभाविक प्रेम की प्राप्ति हो जाती है। इसी को भगवान ने यहाँ ‘विमुक्तो मामुपैष्यसि’ कहा है। जब यह जीव अपने आपको भगवान के समर्पित कर देता है तो फिर उसके सामने जो कुछ अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है वह सब दया और कृपा के रूप में परिणित हो जाती है। तात्पर्य है कि जब उसके सामने अनुकूल परिस्थिति आती है तब वह उसमें भगवान की दया को मानता है और जब प्रतिकूल परिस्थिति आती है तब वह उसमें भगवान की कृपा को मानता है। दया और कृपा में भेद यह है कि कभी भगवान् प्यार , स्नेह करके जीव को कर्मबन्धन से मुक्त करते हैं – यह दया है और कभी शासन करके , ताड़ना करके उसके पापों का नाश करते हैं – यह कृपा है। इस प्रकार दया और कृपा करके भगवान भक्त को सबल और सहिष्णु बनाते हैं परन्तु भक्त तो दोनों में ही प्रसन्न रहता है। कारण कि उसकी दृष्टि अनुकूलता-प्रतिकूलता की तरफ न रहकर केवल भगवान की तरफ ही रहती है। अतः उसकी दृष्टि में भगवान की दया और कृपा दो रूप से नहीं होती बल्कि एक ही रूप से होती है। जैसे कि कहा है – ‘लालने ताडने मातुर्नाकारुण्यं यथार्भके।तद्वदेव महेशस्य नियन्तुर्गुणदोषयोः।।’ जिस प्रकार बालक का पालन करने और ताड़ना करने – दोनों में माँ की कहीं अकृपा नहीं होती उसी प्रकार जीवों के गुण-दोषों का नियन्त्रण करने वाले परमेश्वर की कहीं किसी पर अकृपा नहीं होती। अब एक शंका होती है कि जो भगवान के समर्पित होते हैं उनको तो भगवान मुक्त कर देते हैं और जो भगवान के समर्पित नहीं होते उनको भगवान मुक्त नहीं करते – इसमें तो भगवान की दयालुता और समता नहीं हुई बल्कि विषमदृष्टि और पक्षपात हुआ इस पर आगे कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )