राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय
अध्याय नौ : राज विद्या योग
राज विद्या द्वारा योग
01-06 परम गोपनीय ज्ञानोपदेश, उपासनात्मक ज्ञान, ईश्वर का विस्तार
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥9.2॥
राजविद्या-विद्याओं का राजा; राजगुह्यम्-अत्यन्त गहन रहस्य का राजा; पवित्रम्-शुद्ध; इदम् – यह; उत्तमम्-सर्वोच्च; प्रत्यक्ष–प्रत्यक्ष; अवगमम्-प्रत्यक्ष समझा जाने वाला; धर्म्यम्-धर्म युक्त; सु-सुखम् अत्यन्त सरल; कर्तुम् – अभ्यास करने में; अव्ययम्-अविनाशी।
यह विज्ञान सहित ज्ञान राजविद्या अर्थात सभी विद्याओं का राजा और राजगुह्य अर्थात सब गुह्यों ( रहस्यों ) का राजा एवं अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष ज्ञानवाला और धर्मयुक्त है, तथा करने में बड़ा सरल और अविनाशी है । जो इसका श्रवण करते हैं उन्हें यह शुद्ध कर देता है और यह प्रत्यक्ष अनुभूति कराने वाला है। धर्म की मर्यादा का पालन करने के लिए सरलता से इसका अभ्यास किया जा सकता है और यह नित्य प्रभावी है तथा सभी रहस्यों से सर्वाधिक गहन है ॥9.2॥
(राजविद्या – यह विज्ञानसहित ज्ञान सम्पूर्ण विद्याओं का राजा है क्योंकि इसको ठीक तरह से जान लेने के बाद कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता। भगवान ने सातवें अध्याय के आरम्भ में कहा है कि मेरे समग्ररूप को जानने के बाद जानना कुछ बाकी नहीं रहता। 15वें अध्याय के अन्त में कहा है कि जो असम्मूढ़ पुरुष मेरे को क्षर से अतीत और अक्षर से उत्तम जानता है वह सर्ववित् हो जाता है अर्थात् उसको जानना कुछ बाकी नहीं रहता । इससे ऐसा मालूम होता है कि भगवान के सगुण-निर्गुण , साकार-निराकार , व्यक्त-अव्यक्त आदि जितने स्वरूप हैं , उन सब स्वरूपों में भगवान के सगुण-साकार स्वरूप की बहुत विशेष महिमा है। ‘राजगुह्यम्’ – संसार में रहस्य की जितनी गुप्त बाते हैं उन सब बातों का यह राजा है क्योंकि संसार में इससे बड़ी दूसरी कोई रहस्य की बात है ही नहीं। जैसे नाटक में सबके सामने खेलता हुआ कोई पात्र अपना असली परिचय दे देता है तो उसका परिचय देना विशेष गोपनीय बात है क्योंकि वह नाटक में जिस स्वाँग में खेलता है उसमें वह अपने असली रूप को छिपाये रखता है। ऐसे ही भगवान जब मनुष्यरूप में लीला करते हैं तब अभक्त लोग उनको मनुष्य मानकर उनकी अवज्ञा करते हैं। इससे भगवान उनके समाने अपने-आपको प्रकट नहीं करते (गीता 7। 25)। परन्तु जो भगवान के ऐकान्तिक प्यारे भक्त होते हैं उनके सामने भगवान अपने आपको प्रकट कर देते हैं – यह अपने आपको प्रकट कर देना ही अत्यन्त गोपनीय बात है। ‘पवित्रमिदम्’ – इस विद्या के समान पवित्र करने वाली दूसरी कोई विद्या है ही नहीं अर्थात् यह विद्या पवित्रता की आखिरी हद है। पापी से पापी , दुराचारी से दुराचारी भी इस विद्या से बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जाता है अर्थात् पवित्र बन जाता है और शाश्वती शान्ति को प्राप्त कर लेता है (9। 31)। दसवें अध्याय में अर्जुन ने भगवान को परम पवित्र बताया – ‘पवित्रं परमं भवान्’ (10। 12) चौथे अध्याय में भगवान ने ज्ञान को पवित्र बताया – ‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते’ (4। 38) और यहाँ राजविद्या आदि आठ विशेषण देकर विज्ञानसहित ज्ञान को पवित्र बताते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि पवित्र परमात्मा का नाम , रूप , लीला , धाम , स्मरण , कीर्तन , जप , ध्यान , ज्ञान आदि सब पवित्र हैं अर्थात् भगवत्सम्बन्धी जो कुछ है , वह सब महान् पवित्र है और प्राणिमात्र को पवित्र करने वाला है (टिप्पणी प0 485)। ‘उत्तमम्’ – यह सर्वश्रेष्ठ है। इसके समकक्ष दूसरी कोई वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति आदि है ही नहीं। यह श्रेष्ठता की आखिरी हद है क्योंकि इस विद्या से मेरा भक्त सर्वश्रेष्ठ हो जाता है। इतना श्रेष्ठ हो जाता है कि मैं भी उसकी आज्ञा का पालन करता हूँ। इस विज्ञानसहित ज्ञान को जानकर जो मनुष्य इसका अनुभव कर लेते हैं उनके लिये भगवान कहते हैं कि वे मेरे में हैं और मैं उनमें हूँ – ‘मयि ते तेषु चाप्यहम्’ (9। 29) अर्थात् वे मेरे में तल्लीन होकर मेरा स्वरूप ही बन जाते हैं। ‘प्रत्यक्षावगमम्’ – इसका फल प्रत्यक्ष है। जो मनुष्य इस बात को जितना जानेगा वह उतना ही अपने में विलक्षणता का अनुभव करेगा। इस बात को जानते ही परमगति प्राप्त हो जाय – यह इसका प्रत्यक्ष फल है। ‘धर्म्यम्’ – यह धर्ममय है। परमात्मा का लक्ष्य होने पर निष्कामभावपूर्वक जितने भी कर्तव्यकर्म किये जाएँ , वे सब के सब इस धर्म के अन्तर्गत आ जाते हैं। अतः यह विज्ञानसहित ज्ञान सभी धर्मों से परिपूर्ण है। दूसरे अध्याय में भगवान ने अर्जुन को कहा कि इस धर्ममय युद्ध के सिवाय क्षत्रिय के लिये दूसरा कोई श्रेयस्कर साधन नहीं है – ‘धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते’ (2। 31)। इससे यही सिद्ध होता है कि अपने-अपने वर्ण , आश्रम आदि के अनुसार शास्त्रविहित जितने कर्तव्यकर्म हैं , वे सभी धर्म्य हैं। इसके सिवाय भगवत्प्राप्ति के जितने साधन हैं और भक्तों के जितने लक्षण हैं , उन सबका नाम भगवान ने ‘धर्म्यामृत’ रखा है (गीता 12। 20) अर्थात् ये सभी भगवान की प्राप्ति कराने वाले होने से धर्ममय हैं। ‘अव्ययम्’ – इसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं आती इसलिये यह अविनाशी है। भगवान ने अपने भक्त के लिये भी कहा है कि मेरे भक्त का विनाश ( पतन ) नहीं होता – ‘न मे भक्तः प्रणश्यति’ (9। 31)। ‘कर्तुं सुसुखम्’ — यह करने में बहुत सुगम है। पत्र , पुष्प, फल, जल आदि चीजों को भगवान की मानकर भगवान को ही देना कितना सुगम है (9। 26) चीजों को अपनी मानकर भगवान को देने से भगवान् उनको अनन्त गुणा करके देते हैं और उनको भगवान की ही मानकर भगवान के अर्पण करने से भगवान अपने आपको ही दे देते हैं। इसमें क्या परिश्रम करना पड़ा ? इसमें तो केवल अपनी भूल मिटानी है। मेरी प्राप्ति सुगम है , सरल है क्योंकि मैं सब देश में हूँ तो यहाँ भी हूँ , सब काल में हूँ तो अभी भी हूँ। जो कुछ भी देखने , सुनने , समझने में आता है उसमें मैं ही हूँ। जितने भी मनुष्य हैं उनका मैं हूँ और वे मेरे हैं परन्तु मेरी तरफ दृष्टि न रखकर प्रकृति की तरफ दृष्टि रखने से वे मुझे प्राप्त न होकर बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं। अगर वे थोड़ा सा भी मेरी तरफ ध्यान दें तो उनको मेरी अलौकिकता , विलक्षणता दिखने लग जाती है तथा प्रकृति के साथ अपना सम्बन्ध नहीं है और भगवान के साथ अपना घनिष्ठ सम्बन्ध है — इसका अनुभव हो जाता है – स्वामी रामसुखदास जी
(जो लोग भगवद्भक्ति में रत हैं और उनके सारे पापकर्म चाहे फलीभूत हो चुके हो, सामान्य हों या बीज रूप में हों, क्रमशः नष्ट हो जाते हैं । अतः भक्ति की शुद्धिकारिणी शक्ति अत्यन्त प्रबल है और पवित्रम् उत्तमम् अर्थात् विशुद्धतम कहलाती है । उत्तम का तात्पर्य दिव्य है । तमस् का अर्थ यह भौतिक जगत् या अंधकार है और उत्तम का अर्थ भौतिक कार्यों से परे हुआ । भक्तिमय कार्यों को कभी भी भौतिक नहीं मानना चाहिए यद्यपि कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि भक्त भी सामान्य जनों की भाँति रत रहते हैं । जो व्यक्ति भक्ति से अवगत होता है, वही जान सकता है कि भक्तिमय कार्य भौतिक नहीं होते । वे आध्यात्मिक होते हैं और प्रकृति के गुणों से सर्वथा अदूषित रहते हैं । कहा जाता है कि भक्ति की सम्पन्नता इतनी पूर्ण होती है कि उसके फलों का प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है । जो व्यक्ति कृष्ण के पवित्र नाम (हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे) का कीर्तन करता है उसे जप करते समय कुछ दिव्य आनन्द का अनुभव होता है और वह तुरन्त ही समस्त भौतिक कल्मष से शुद्ध हो जाता है । ऐसा सचमुच दिखाई पड़ता है | यही नहीं, यदि कोई श्रवण करने में ही नहीं अपितु भक्तिकार्यों के सन्देश को प्रचारित करने में भी लगा रहता है या कृष्णभावनामृत के प्रचार कार्यों में सहायता करता है, तो उसे क्रमशः आध्यात्मिक उन्नति का अनुभव होता रहता है । आध्यात्मिक जीवन की यह प्रगति किसी पूर्व शिक्षा या योग्यता पर निर्भर नहीं करती । यह विधि स्वयं इतनी शुद्ध है कि इसमें लगे रहने से मनुष्य शुद्ध बन जाता है । वेदान्तसूत्र में (३.३.३६) भी इसका वर्णन ‘प्रकाशश्र्चकर्मण्यभ्यासात्’ के रूप में हुआ है, जिसका अर्थ है कि भक्ति इतनी समर्थ है कि भक्तिकार्यों में रत होने मात्र से बिना किसी संदेह के प्रकाश प्राप्त हो जाता है । इसका उदाहरण नारद जी के पूर्वजन्म में देखा जा सकता है, जो पहले दासी के पुत्र थे । वे न तो शिक्षित थे, न ही राजकुल में उत्पन्न हुए थे, किन्तु जब उनकी माता भक्तों की सेवा करती रहती थीं, नारद भी सेवा करते थे और कभी-कभी माता की अनुपस्थिति में भक्तों की सेवा करते रहते थे। नारद स्वयं कहते हैं-
उच्छिष्टलेपाननुमोदितो द्विजैः
सकृत्स्म भुञ्जे तदपास्तकिल्बिषः
एवं प्रवृत्तस्य विशुद्धचेतस-
स्तद्धर्म एवात्मरुचिः प्रजायते ।।
श्रीमद्भागवत के इस श्लोक में (१.५.२५) नारद जी अपने शिष्य व्यासदेव से अपने पूर्वजन्म का वर्णन करते हैं । वे कहते हैं कि पूर्णजन्म में बाल्यकाल में वे चातुर्मास में शुद्धभक्तों (भागवतों) की सेवा किया करते थे जिससे उन्हें उनकीसंगति प्राप्त हुई ।कभी-कभी वे ऋषि अपनी थालियों में उच्छिष्ट भोजन छोड़ देते और यह बालक थालियाँ धोते समय उच्छिष्ट भोजन को चखना चाहता था । अतः उसने उन ऋषियों से अनुमति माँगी और जब उन्होंने अनुमति दे दी तो बालक नारद उच्छिष्ट भोजन को खाता था । फलस्वरूप वह अपने समस्त पापकर्मों से मुक्त हो गया | ज्यों-ज्यों वह उच्छिष्ट खाता रहा त्यों-त्यों वह ऋषियों के समान शुद्ध-हृदय बनता गया । चूँकि वे महाभागवत भगवान् की भक्ति का आस्वाद श्रवण तथा कीर्तन द्वारा करते थे अतः नारद ने भी क्रमशः वैसी रूचि विकसित कर ली ।नारद आगे कहते हैं –
तत्रान्वहं कृष्णकथाः प्रगायताम्
अनुग्रहेणाशृणवं मनोहराः
ताः श्रद्धया मेऽनुपदं विशृण्वतः
प्रियश्रवस्यंग ममाभवद् रूचि: ।।
ऋषियों की संगति करने से नारद में भी भगवान् की महिमा के श्रवण तथा कीर्तन की रूचि उत्पन्न हुई और उन्होंने भक्ति की तीव्र इच्छा विकसित की । अतः जैसा कि वेदान्तसूत्र में कहा गया है – प्रकाशश्र्च कर्मण्यभ्यासात् – जो भगवद्भक्ति के कार्यों में केवल लगा रहता है उसे स्वतः सारी अनुभूति हो जाती है और वह सब समझने लगता है । इसी का नाम प्रत्यक्ष अनुभूति है ।
धर्म्यम् शब्द का अर्थ है “धर्म का पथ” । नारद वास्तव में दासी के पुत्र थे । उन्हें किसी पाठशाला में जाने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ था । वे केवल माता के कार्यों में सहायता करते थे और सौभाग्यवश उनकी माता को भक्तों की सेवा का सुयोग प्राप्त हुआ था । बालक नारद को भी यह सुअवसर उपलब्ध हो सका कि वे भक्तों की संगति करने से ही समस्त धर्म के परमलक्ष्य को प्राप्त हो सके । यह लक्ष्य है – भक्ति, जैसा कि श्रीमद्भागवत में कहा गया है (स वै पुंसां परो धमों यतो भक्तिरधोक्षजे) । सामान्यतः धार्मिक व्यक्ति यह नहीं जानते कि धर्म का परमलक्ष्य भक्ति की प्राप्ति है जैसा कि हम पहले ही आठवें अध्याय के अन्तिम श्लोक की व्याख्या करते हुए कहचुके हैं (वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव) सामान्यतया आत्म-साक्षात्कार के लिए वैदिक ज्ञान आवश्यक है । किन्तु यहाँ पर नारद न तो किसी गुरु के पास पाठशाला में गये थे, न ही उन्हें वैदिक नियमों की शिक्षा मिली थी, तो भी उन्हें वैदिक अध्ययन के सर्वोच्च फल प्राप्त हो सके | यह विधि इतनी सशक्त है कि धार्मिक कृत्य किये बिना भी मनुष्य सिद्धि-पद को प्राप्त होता है । यह कैसे सम्भव होता है ? इसकी भी पुष्टि वैदिक साहित्य में मिलती है- आचार्यवान् पुरुषो वेद| महान आचार्यों के संसर्ग में रहकर मनुष्य आत्म-साक्षात्कार के लिए आवश्यक समस्त ज्ञान से अवगत हो जाता है, भले ही वह अशिक्षित हो या उसने वेदों का अध्ययन न किया हो । भक्तियोग अत्यन्त सुखकर (सुसुखम्) होता है | ऐसा क्यों? क्योंकि भक्ति में श्रवणं कीर्तनं विष्णोः रहता है, जिससे मनुष्य भगवान् की महिमा के कीर्तन को सुन सकता है, या प्रामाणिक आचार्यों द्वारा दिये गये दिव्यज्ञान के दार्शनिक भाषण सुन सकता है । मनुष्य केवल बैठे रहकर सीख सकता है, ईश्र्वर को अर्पित अच्छे स्वादिष्ट भोजन का उच्छिष्ट खा सकता है । प्रत्येक दशा में भक्ति सुखमय है । मनुष्य गरीबी की हालत में भी भक्ति कर सकता है । भगवान् कहते हैं – पत्रं पुष्पं फलं तोयं– वे भक्त से हर प्रकार की भेंट लेने को तैयार रहते हैं । चाहे पात्र हो, पुष्प हो, फल हो या थोडा सा जल, जो कुछ भी संसार के किसी भी कोने में उपलब्ध हो, या किसी व्यक्ति द्वारा, उसकी सामाजिक स्थिति पर विचार किये बिना, अर्पित किये जाने पर भगवान् को वह स्वीकार है, यदि उसे प्रेमपूर्वक चढ़ाया जाय । इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण प्राप्त हैं । भगवान् के चरणकमलों पर चढ़े तुलसीदल का आस्वादन करके सनत्कुमार जैसे मुनि महान भक्त बन गये । अतः भक्तियोग अति उत्तम है और इसे प्रसन्न मुद्रा में सम्पन्न किया जा सकता है । भगवान् को तो वह प्रेम प्रिय है, जिससे उन्हें वस्तुएँ अर्पित की जाती हैं । यहाँ कहा गया है कि भक्ति शाश्र्वत है । यह वैसी नहीं है, जैसा कि मायावादी चिन्तक साधिकार कहते हैं । यद्यपि वे कभी-कभी भक्ति करते हैं, किन्तु उनकी यह भावना रहती है कि जब तक मुक्ति न मिल जाये, तब तक उन्हें भक्ति करते रहना चाहिए, किन्तु अन्त में जब वे मुक्त हो जाएँगे तो ईश्र्वर से उनका तादात्म्य हो जाएगा । इस प्रकार की अस्थायी सीमित स्वार्थमय भक्ति शुद्ध भक्ति नहीं मानी जा सकती । वास्तविक भक्ति तो मुक्ति के बाद भी बनी रहती है । जब भक्त भगवद्धाम को जाता है तो वहाँ भी वह भगवान् की सेवा में रत हो जाता है । वह भगवान् से तदाकार नहीं होना चाहता – श्रीला प्रभुपाद )