राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय
अध्याय नौ : राज विद्या योग
राज विद्या द्वारा योग
26 – 34 निष्काम भगवद् भक्ति की महिमा
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥9.29॥
समः-समभाव से व्यवस्थित करना; अहम्-मैं; सर्वभूतेषु-सभी जीवों को; न-कोई नहीं; मे–मुझको; द्वेष्यः-द्वेष; अस्ति–हे; न-न तो; प्रियः-प्रिय; ये-जो; भजन्ति–प्रेममयी भक्ति; तु-लेकिन; माम्-मुझको; भक्त्या-भक्ति से; मयि–मुझमें; ते-ऐसा व्यक्ति; तेषु-उनमें; च-भी; अपि-निश्चय ही; अहम्-मैं।
मैं सब भूतों में सम भाव से व्यापक हूँ अर्थात मैं समभाव से सभी जीवों के साथ व्यवहार करता हूँ । न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है अर्थात न तो मैं किसी के साथ द्वेष करता हूँ और न ही पक्षपात करता हूँ । परंतु जो भक्त मुझको प्रेम से भजते हैं अर्थात जो भक्त मेरी प्रेममयी भक्ति करते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ अर्थात मैं उनके हृदय में और वे मेरे हृदय में निवास करते हैं ॥9.29॥
(जैसे सूक्ष्म रूप से सब जगह व्यापक हुआ भी अग्नि साधनों द्वारा प्रकट करने से ही प्रत्यक्ष होता है, वैसे ही सब जगह स्थित हुआ भी परमेश्वर भक्ति से भजने वाले के ही अंतःकरण में प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होता है)
(‘समोऽहं सर्वभूतेषु’ – मैं स्थावरजंगम आदि सम्पूर्ण प्राणियों में व्यापकरूप से और कृपादृष्टि से सम हूँ। तात्पर्य है कि मैं सब में समान रूप से व्यापक और परिपूर्ण हूँ – ‘मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना’ (गीता 9। 4) और मेरी सब पर समान रूप से कृपादृष्टि है – ‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (गीता 5। 29)। मैं कहीं कम हूँ और कहीं अधिक हूँ अर्थात् चींटी छोटी होने से उसमें कम हूँ और हाथी बड़ा होने से उसमें अधिक हूँ , अन्त्यज में कम हूँ और ब्राह्मण में अधिक हूँ , जो मेरे प्रतिकूल चलते हैं उनमें मैं कम हूँ और जो मेरे अनुकूल चलते हैं उनमें मैं अधिक हूँ – यह बात है ही नहीं। कारण कि सब के सब प्राणी मेरे अंश हैं , मेरे स्वरूप हैं। मेरे स्वरूप होने से वे मेरे से कभी अलग नहीं हो सकते और मैं भी उनसे कभी अलग नहीं हो सकता। इसलिये मैं सबमें समान हूँ , मेरा कहीं कोई पक्षपात नहीं है। तात्पर्य यह हुआ कि प्राणियों में जन्म से , कर्म से , परिस्थिति से , घटना से , संयोग से , वियोग आदि से अनेक तरह से विषमता होने पर भी मैं सर्वथा-सर्वदा सबमें समान रीति से व्यापक हूँ , कहीं कम और कहीं ज्यादा नहीं हूँ। ‘न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः’ (टिप्पणी प0 518.2) – पहले भगवान ने कहा कि मैं सम्पूर्ण प्राणियों में समान हूँ अब उसी का विवेचन करते हुए कहते हैं कि कोई भी प्राणी मेरे राग-द्वेष का विषय नहीं है। तात्पर्य है कि मेरे से विमुख होकर कोई प्राणी शास्त्रीय यज्ञ , दान आदि कितने ही शुभ कर्म करे तो भी वह मेरे राग का विषय नहीं है और दूसरा शास्त्रनिषिद्ध अन्याय , अत्याचार आदि कितने ही अशुभ कर्म करे तो भी वह मेरे द्वेष का विषय नहीं है। कारण कि मैं सम्पूर्ण प्राणियों में समान रीति से व्याप्त हूँ , सब पर मेरी समान रीति से कृपा है और सब प्राणी मेरे अंश होने से मेरे को समान रीति से प्यारे हैं। हाँ , यह बात जरूर है कि जो सकामभावपूर्वक शुभकर्म करेगा वह ऊँची गति में जायगा और जो अशुभकर्म करेगा वह नीची गति में अर्थात् नरकों तथा चौरासी लाख योनियों में जायगा परन्तु वे दोनों पुण्यात्मा और पापात्मा होने पर भी मेरे राग-द्वेष के विषय नहीं हैं। मेरे रचे हुए पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु और आकाश – ये भौतिक पदार्थ भी प्राणियों के अच्छे-बुरे आचरणों तथा भावों को लेकर उनको रहने का स्थान देने में , उनकी प्यास बुझाने में , उनको प्रकाश देने में , उनको चलने-फिरने के लिये अवकाश देने में राग-द्वेषपूर्वक विषमता नहीं करते बल्कि सबको समान रीति से देते हैं। फिर प्राणी अपने अच्छे-बुरे आचरणों को लेकर मेरे राग-द्वेष के विषय कैसे बन सकते हैं ? अर्थात् नहीं बन सकते। कारण कि वे साक्षात् मेरे ही अंश हैं , मेरे ही स्वरूप हैं। जैसे किसी व्यक्ति के एक हाथ में पीड़ा हो रही है वह हाथ शरीर के किसी काम में नहीं आता , दर्द होने से रात में नींद नहीं लेने देता , काम करने में बाधा डालता है और दूसरा हाथ सब प्रकार से शरीर के काम आता है परन्तु उस व्यक्ति का किसी हाथ के प्रति राग या द्वेष नहीं होता कि यह तो अच्छा है और यह मन्दा है क्योंकि दोनों ही हाथ उसके अङ्ग हैं और अपने अङ्ग के प्रति किसी के राग-द्वेष नहीं होते। ऐसे ही कोई मेरे वचनों और सिद्धान्तों के अनुसार चलने वाला हो , पुण्यात्मा से पुण्यात्मा हो और दूसरा कोई मेरे वचनों और सिद्धान्तों का खण्डन करने वाला हो , मेरे विरुद्ध चलने वाला हो , पापी से पापी हो तो उन दोनों को लेकर मेरे राग-द्वेष नहीं होते। उनके अपने-अपने बर्तावों में , आचरणों में भेद है । इसलिये उनके परिणाम (फल ) में भेद होगा पर मेरा किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं है। अगर किसी के प्रति राग-द्वेष होता तो ‘समोऽहं सर्वभूतेषु’ यह कहना ही नहीं बनता क्योंकि विषमता के कारण ही राग-द्वेष होते हैं। ‘ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्’ – परन्तु जो भक्तिपूर्वक मेरा भजन करते हैं अर्थात् जिनकी संसार में आसक्ति , राग , खिंचाव नहीं है जो केवल मेरे को ही अपना मानते हैं , केवल मेरे ही परायण रहते हैं , केवल मेरी प्रसन्नता के लिये ही रात-दिन काम करते हैं और जो शरीर , इन्द्रियों , मन और वाणी के द्वारा मेरी तरफ ही चलते हैं (गीता 9। 14 10। 9) वे मेरे में हैं और मैं उनमें हूँ। प्रेमपूर्वक मेरा भजन करने वाले मेरे में हैं और मैं उनमें हूँ – इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जो सामान्य जीव हैं तथा मेरी आज्ञा के विरुद्ध चलने वाले हैं वे मेरे में और मैं उनमें नहीं हूँ बल्कि वे अपने को मेरे में मानते ही नहीं। वे ऐसा कह देते हैं कि हम तो संसारी जीव हैं , संसार में रहने वाले हैं । वे यह नहीं समझते कि संसार – शरीर तो कभी एकरूप और एकरस रहता ही नहीं तो ऐसे संसार – शरीर में हम कैसे स्थित रह सकते हैं ? इसको न जानने के कारण ही वे अपने को संसार – शरीर में स्थित मानते हैं। उनकी अपेक्षा जो रात-दिन मेरे भजन-स्मरण में लगे हुए हैं , बाहर-भीतर , ऊपर-नीचे , सब देश में , सब काल में , सब वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति , क्रिया आदि में और अपने आप में भी मेरे को ही मानते हैं वे मेरे में विशेषरूप से हैं और मैं उनमें विशेषरूप से हूँ। दूसरा भाव यह है कि जो मेरे साथ मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं – ऐसा सम्बन्ध जोड़ लेते हैं उनकी मेरे साथ इतनी घनिष्ठता हो जाती है कि मैं और वे एक हो जाते हैं – ‘तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्’ (नारदभक्तिसूत्र 41)। इसलिये वे मेरे में और मैं उनमें हूँ। तीसरा भाव यह कि उनमें मैंपन नहीं रहता क्योंकि मैंपन एक परिच्छिन्नता है। इस परिच्छिन्नता (एकदेशीयता) के मिटने से वे मेरे में ही रहते हैं। अब कोई भगवान से कहे कि आप भक्तों में विशेषता से प्रकट हो जाते हैं और दूसरों में कमरूप से प्रकट होते हैं – यह आपकी विषमता क्यों ? तो भगवान् कहते हैं कि भैया मेरे में यह विषमता तो भक्तों के कारण है। अगर कोई मेरा भजन करे , मेरे परायण हो जाय , शरण हो जाय और मैं उससे विशेष प्रेम न करूँ , उसमें विशेषता से प्रकट न होऊँ तो यह मेरी विषमता हो जायगी। कारण कि भजन करने वाले और भजन न करने वाले – दोनों में मैं बराबर ही रहूँ तो यह न्याय नहीं होगा बल्कि मेरी विषमता होगी। इससे भक्तों के भजन का और उनका मेरी तरफ लगने का कोई मूल्य ही नहीं रहेगा। यह विषमता मेरे में न आ जाय इसलिये जो जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं मैं भी उसी प्रकार उनको आश्रय देता हूँ – ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता 4। 11)। अतः यह विषमता मेरे में भक्तों के भावों को लेकर ही है (टिप्पणी प0 520)। जैसे कोई पुत्र अच्छा काम करता है तो सुपुत्र कहलाता है और खराब काम करता है तो कुपुत्र कहलाता है। यह सुपुत्र-कुपुत्र का भेद तो उनके आचरणों के कारण हुआ है। माँ-बाप के पुत्रभाव में कोई फरक नहीं प़ड़ता। गाय के थनों में चींचड़ रहते हैं वे दूध न पीकर खून पीते हैं तो यह विषमता गाय की नहीं है बल्कि चींचड़ों की अपनी बनायी हुई है। बिजली के द्वारा कहीं बर्फ जम जाती है और कहीं आग पैदा हो जाती है तो यह विषमता बिजली की नहीं है बल्कि यन्त्रों की है। ऐसे ही जो भगवान में रहते हुए भी भगवान को नहीं मानते , उनका भजन नहीं करते तो यह विषमता उन प्राणियों की ही है भगवान की नहीं। जैसे लकड़ी का टुकड़ा , काँच का टुकड़ा और आतशी शीशा – इन तीनों में सूर्य की कोई विषमता नहीं है परन्तु सूर्य के सामने (धूप में) रखने पर लकड़ी का टुकड़ा सूर्य की किरणों को रोक देता है , काँच का टुकड़ा किरणों को नहीं रोकता और आतशी शीशा किरणों को एक जगह केन्द्रित करके अग्नि प्रकट कर देता है। तात्पर्य है कि यह विषमता सामने आने वाले पदार्थों की है , सूर्यकी नहीं। सूर्य की किरणें तो सब पर एक समान ही पड़ती हैं। वे पदार्थ उन किरणों को जितनी पकड़ लेते हैं उतनी ही वे किरणें उनमें प्रकट हो जाती हैं। ऐसे ही भगवान सब प्राणियों में समान रूप से व्यापक हैं , परिपूर्ण है परन्तु जो प्राणी भगवान के सम्मुख हो जाते हैं , भगवान का और भगवान की कृपा का प्राकट्य उनमें विशेषता से हो जाता है। उनकी भगवान में जितनी अधिक प्रियता होती है भगवान की भी उतनी ही अधिक प्रियता प्रकट हो जाती है। वे अपने आपको भगवान को दे देते हैं तो भगवान भी अपने आपको उनको दे देते हैं। इस प्रकार भक्तों के भावों के अनुसार ही भगवान की विशेष कृपा , प्रियता आदि प्रकट होती है। तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य सांसारिक राग के कारण ही अपने को संसार में मानते हैं। जब वे भगवान का प्रेमपूर्वक भजन करने लग जाते हैं तब उनका सांसारिक राग मिट जाता है और वे अपनी दृष्टि से भगवान में हो जाते हैं और भगवान उनमें हो जाते हैं। भगवान की दृष्टि से तो वे वास्तव में भगवान में ही थे और भगवान भी उनमें थे। केवल राग के कारण वे अपने को भगवान में और भगवान को अपने में नहीं मानते थे। भगवान ने यहाँ ‘ये भजन्ति’ पदों में ये सर्वनाम पद दिया है जिसका तात्पर्य है कि मनुष्य किसी भी देश के हों , किसी भी वेश में हों , किसी भी अवस्था के हों , किसी भी सम्प्रदाय के हों , किसी भी वर्ण के हों , किसी भी आश्रम के हों , कैसी ही योग्यता वाले हों वे अगर भक्तिपूर्वक मेरा भजन करते हैं तो वे मेरे में और मैं उनमें हूँ। अगर भगवान यहाँ किसी वर्ण , आश्रम , सम्प्रदाय , जाति आदि को लेकर कहते तब तो भगवान में विषमता , पक्षपात का होना सिद्ध हो जाता परन्तु भगवान ने ये पद से सबको भजन करने की और मैं भगवान में हूँ और भगवान मेरे में हैं – इसका अनुभव करने की पूरी स्वतन्त्रता दे रखी है । पूर्वश्लोक में भगवान ने ‘ये भजन्ति तु मां भक्त्या’ पदों से भक्तिपूर्वक अपना भजन करने की बात कही। अब आगे के श्लोक में भजन करने वालों का विवेचन आरम्भ करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )