Shrimad Bhagavad Gita Chapter 9

 

 

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राजविद्याराजगुह्ययोग-  नौवाँ अध्याय

अध्याय नौ : राज विद्या योग

राज विद्या द्वारा योग

 

26 – 34 निष्काम भगवद् भक्ति की महिमा

 

 

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 9अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्‌ ।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥9.30॥

 

अपि-भी; चेत् – यदि; सु-दुराचारः-अत्यन्त घृणित कर्म करने वाला पापी; भजते-सेवा करना ; माम्-मेरी; अनन्यभाक्-अनन्य भक्ति पूर्वक; साधु:-साधु पुरुष; एव–निश्चय ही; स:-वह; मन्तव्यः-संकल्पः सम्यक्-पूर्णतया; व्यवसित-संकल्प युक्त; हि-निश्चय ही; सः-वह।

 

यदि महापापी भी मेरी अनन्य भक्ति के साथ मेरी उपासना में लीन रहते हैं तब उन्हें साधु मानना चाहिए क्योंकि वे अपने संकल्प में दृढ़ रहते हैं अर्थात यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है। अर्थात्‌ उसने भली भाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है॥9.30॥

 

[कोई करोड़पति या अरबपति यह बात कह दे कि मेरे पास जो कोई आयेगा उसको मैं एक लाख रुपये दूँगा तो उसके इस वचन की परीक्षा तब होगी जब उससे सर्वथा ही विरुद्ध चलने वाला , उसके साथ वैर रखने वाला , उसका अनिष्ट करने वाला भी आकर उससे एक लाख रुपये माँगे और वह उसको दे दे। इससे सबको यह विश्वास हो जायगा कि जो यह माँगे , उसको दे देता है। इसी भाव को लेकर भगवान सबसे पहले दुराचारी का नाम लेते हैं।] ‘अपि चेत्’ – 7वें अध्याय में आया है कि जो पापी होते हैं वे मेरे शरण नहीं होते (7। 15) और यहाँ कहा है कि दुराचारी से दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भजन करता है – इन दोनों बातों में आपस में विरोध प्रतीत होता है। इस विरोध को दूर करने के लिये ही यहाँ ‘अपि’ और ‘चेत्’ ये दो पद दिये गये हैं। तात्पर्य है कि 7वें अध्याय में दुष्कृती मनुष्य मेरे शरण नहीं होते – ऐसा कहकर उनके स्वभाव का वर्णन किया है परन्तु वे भी किसी कारण से मेरे भजन में लगना चाहें तो लग सकते हैं। मेरी तरफ से किसी को कोई मना नहीं है (टिप्पणी प0 521.1) क्योंकि किसी भी प्राणी के प्रति मेरा द्वेष नहीं है। ये भाव प्रकट करने के लिये ही यहाँ ‘अपि’ और ‘चेत्’ पदों का प्रयोग किया है। ‘सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्’ – जो सुष्ठु दुराचारी है , साङ्गोपाङ्ग दुराचारी है अर्थात् दुराचार करने में कोई कमी न रहे , दुराचारका अङ्ग-उपाङ्ग न छूटे – ऐसा दुराचारी है वह भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मेरे भजन में लग जाय तो उसका उद्धार हो जाता है। यहाँ भजते क्रिया वर्तमान की है जिसका कर्ता है – साङ्गोपाङ्ग दुराचारी। इसका तात्पर्य हुआ कि पहले भी उसके दुराचार बनते आये हैं और अभी वर्तमान में वह अनन्यभाव से भजन करता है तो भी उसके द्वारा दुराचार सर्वथा नहीं छूटे हैं अर्थात् कभी-कभी किसी परिस्थिति में आकर पूर्व संस्कारवश उसके द्वारा पापक्रिया हो सकती है। ऐसी अवस्था में भी वह मेरा भजन करता है। कारण कि उसका ध्येय (लक्ष्य) अन्य का नहीं रहा है अर्थात् उसका लक्ष्य अब धन , सम्पत्ति , आदर-सत्कार , सुख-आराम आदि प्राप्त करने का नहीं रहा है। उसका एकमात्र लक्ष्य अनन्य भाव से मेरे में लगने का ही है। अब शङ्का यह होती है कि ऐसा दुराचारी अनन्यभाव से भगवान के भजन में कैसे लगेगा ? उसके लगने में कई कारण हो सकते हैं जैसे – (1) वह किसी आफत में पड़ जाय और उसको कहीं किञ्चिन्मात्र भी कोई सहारा न मिले। ऐसी अवस्था में अचानक उसको सुनी हुई बात याद आ जाय कि भगवान सबके सहायक हैं और उनकी शरण में जाने से सब काम ठीक हो जाता है आदि। (2) वह कभी किसी ऐसे वायुमण्डल में चला जाय जहाँ बड़े-बड़े अच्छे सन्त-महापुरुष हुए हैं और वर्तमान में भी हैं तो उनके प्रभाव से भगवान में रुचि पैदा हो जाय। (3) वाल्मीकि , अजामिल , सदन कसाई आदि पापी भी भगवान के भक्त बन चुके हैं और भजन के प्रभाव से उनमें विलक्षणता आयी है – ऐसी कोई कथा सुन करके पूर्व का कोई अच्छा संस्कार जाग उठे जो कि सम्पूर्ण प्राणियों में रहता है (टिप्पणी प0 521.2)। (4) कोई प्राणी ऐसी आफत में आ गया जहाँ उसके बचने की कोई सम्भावना ही नहीं थी पर वह बच गया। ऐसी घटना विशेष को देखने से उसके भीतर यह भाव पैदा हो जाय कि कोई ऐसी विलक्षण शक्ति है जो ऐसी आफत से बचाती है। वह विलक्षण शक्ति भगवान ही हो सकते हैं इसलिये अपने को भी उनके परायण हो जाना चाहिये। (5) उसको किसी सन्त के दर्शन हो जायँ और उसका पतन करने वाले दुष्कर्मों को देखकर उस पर सन्त की कृपा हो जाय जैसे – वाल्मीकि , अजामिल आदि पापियों पर सन्तों की कृपा हुई। ऐसे कई कारणों से अगर दुराचारी का भाव बदल जाय तो वह भगवान के भजन में अर्थात् भगवान की तरफ लग सकता है। चोर ,डाकू , लुटेरे , हत्या करने वाले बधिक आदि भी अचानक भाव बदल जाने से भगवान के अच्छे भक्त हुए हैं – ऐसी कई कथाएँ पुराणों में तथा भक्तमाल आदि ग्रन्थों में आती हैं। अब एक शङ्का होती है कि जो वर्षों से भजन-ध्यान कर रहे हैं उनका मन भी तत्परता से भगवान में नहीं लगता फिर जो दुराचारी से दुराचारी है उसका मन भगवान में तैलधारावत् कैसे लगेगा ? यहाँ ‘अनन्यभाक्’ का अर्थ ‘वह तैलधारावत् चिन्तन करता है’ – यह नहीं है बल्कि इसका अर्थ है – ‘न अन्यं भजति’ अर्थात् वह अन्य का भजन नहीं करता। उसका भगवान के सिवाय अन्य किसी का सहारा या आश्रय नहीं है केवल भगवान का ही आश्रय है। जैसे पतिव्रता स्त्री केवल पति का चिन्तन ही करती हो – ऐसी बात नहीं है। वह तो हरदम पति की ही बनी रहती है , स्वप्न में भी वह दूसरों की नहीं होती। तात्पर्य है कि उसका तो एक पति से ही अपनापन रहता है। ऐसे ही उस दुराचारी का केवल भगवान से ही अपनापन हो जाता है और एक भगावन का ही आश्रय रहता है। ‘अनन्यभाक्’ होने में खास बात है मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं इस प्रकार अपनी अहंता को बदल देना। अहंता परिवर्तन से जितनी जल्दी शुद्धि आती है ; जप , तप , यज्ञ , दान आदि क्रियाओं से उतनी जल्दी शुद्धि नहीं आती। इस अहंता के परिवर्तन के विषय में तीन बातें हैं – (1) अहंता को मिटाना – ज्ञानयोग से अहंता मिट जाती है। जिस प्रकाश में अहम् (मैंपन) का भान होता है वह प्रकाश मेरा स्वरूप है और एकदेशीयरूप में प्रतीत होने वाला अहम् मेरा स्वरूप नहीं है। कारण यह है कि अहम् दृश्य होता है और जो दृश्य होता है वह अपना स्वरूप नहीं होता। इस प्रकार दोनों का विभाजन करके अपने ज्ञप्तिमात्र स्वरूप में स्थित होने से अहंता मिट जाती है। (2) अहंता को शुद्ध करना – कर्मयोग से अहंता शुद्ध हो जाती है। जैसे पुत्र कहता है कि मैं पुत्र हूँ और ये मेरे पिता हैं तो इसका तात्पर्य है कि पिता की सेवा करना मात्र मेरा कर्तव्य है क्योंकि पिता-पुत्र का सम्बन्ध केवल कर्तव्यपालन के लिये ही है। पिता मेरे को पुत्र न मानें , मेरे को दुःख दे , मेरा अहित करें तो भी मेरे को उनकी सेवा करनी है , उनको सुख पहुँचाना है। ऐसे ही माता , भाई , भौजाई , स्त्री , पुत्र , परिवार के प्रति भी मेरे को केवल अपने कर्तव्य का ही पालन करना है। उनके कर्तव्य की तरफ मेरे को देखना ही नहीं कि वे मेरे प्रति क्या करते हैं? दुनिया के प्रति क्या करते हैं ? उनके कर्तव्य को देखना मेरा कर्तव्य नहीं है क्योंकि दूसरों के कर्तव्य को देखने वाला अपने कर्तव्य से च्युत हो जाता है। अतः उनका तो मेरे पर पूरा अधिकार है पर वे मेरे अनुकूल चलें – ऐसा मेरा किसी पर भी अधिकार नहीं है। इस प्रकार दूसरों का कर्तव्य न देखकर केवल अपना कर्तव्यपालन करने से अहंता शुद्ध हो जाती है। कारण कि अपने सुख-आराम की कामना होने से ही अहंता अशुद्ध होती है। (3) अहंता का परिवर्तन करना – भक्तियोग से अहंता बदल जाती है। जैसे विवाह में पति के साथ सम्बन्ध होते ही कन्या की अहंता बदल जाती है और वह पति के घर को ही अपना घर , पति के धर्म को ही अपना धर्म मानने लग जाती है। वह पतिव्रता अर्थात् एक पति की ही हो जाती है तो फिर वह माता-पिता , सास-ससुर आदि किसी की भी नहीं होती। इतना ही नहीं वह अपने पुत्र और पुत्री की भी नहीं होती क्योंकि जब वह सती होती है तब पुत्र-पुत्री के , माता-पिता के स्नेह की भी परवाह नहीं करती। हाँ , वह पति के नाते सेवा सबकी कर देती है पर उसकी अहंता केवल पति की ही हो जाती है। ऐसे ही मनुष्य की अहंता ‘मैं भगवान का हूँ’ और ‘भगवान मेरे हैं’ इस प्रकार भगवान के साथ हो जाती है तो उसकी अहंता बदल जाती है। इस अहंता के बदलने को ही यहाँ ‘अनन्यभाक्’ कहा है। ‘साधुरेव स मन्तव्यः’ – अब यहाँ एक प्रश्न होता है कि वह पहले भी दुराचारी रहा है और वर्तमान में भी उसके आचरण सर्वथा शुद्ध नहीं हुए हैं तो दुराचारों को लेकर उसको दुराचारी मानना चाहिये या अनन्यभाव को लेकर साधु ही मानना चाहिये तो भगवान कहते हैं कि उसको तो साधु ही मानना चाहिये। यहाँ ‘मन्तव्यः’ (मानना चाहिये) विधिवचन है अर्थात् यह भगवान की विशेष आज्ञा है। मानने की बात वहीं कही जाती है जहाँ साधुता नहीं दिखती। अगर उसमें किञ्चिन्मात्र भी दुराचार न होते तो भगवान उसको साधु ही मानना चाहिये ऐसा क्यों कहते ? तो भगवान के कहनेसे  यही सिद्ध होता है कि उसमें अभी दुराचार हैं। वह दुराचारों से सर्वथा रहित नहीं हुआ है। इसलिये भगवान कहते हैं कि वह अभी साङ्गोपाङ्ग साधु नहीं हुआ है तो भी उसको साधु ही मानना चाहिये अर्थात् बाहर से उसके आचरणों में , क्रियाओं में कोई कमी भी देखने में आ जाय तो भी वह असाधु नहीं है। इसका कारण यह है कि वह अनन्यभाक् हो गया अर्थात् मैं केवल भगवान का ही हूँ और केवल भगवान ही मेरे हैं , मैं संसार का नहीं हूँ और संसार मेरा नहीं है । इस प्रकार वह भीतर से ही भगवान का हो गया । उसने भीतर से ही अपनी अहंता बदल दी। इसलिये अब उसके आचरण सुधरते देरी नहीं लगेगी क्योंकि अहंता के अनुसार ही सब आचरण होते हैं। उसको साधु ही मानना चाहिये – ऐसा भगवान को क्यों कहना पड़ रहा है ? कारण कि लोगों में यह रीति है कि वे किसी के भीतरी भावों को न देखकर बाहर से जैसा आचरण देखते हैं वैसा ही उसको मान लेते हैं। जैसे एक आदमी वर्षों से परिचित है अर्थात् भजन करता है , अच्छे आचरणों वाला है – ऐसा बीसों , पचीसों वर्षों से जानते हैं पर एक दिन देखा कि वह रात्रि के समय एक वेश्या के यहाँ से बाहर निकला तो उसे देखते ही लोगों के मन में आता है कि देखो हम तो इसको बड़ा अच्छा मानते थे पर यह तो वैसा नहीं है । यह तो वेश्यागामी है – ऐसा विचार आते ही उनका जो अच्छेपन का भाव था , वह उड़ जाता है। जो कई दिनों की श्रद्धा-भक्ति थी , वह उठ जाती है। इसी तरह से लोग वर्षों से किसी व्यक्ति को जानते हैं कि वह अन्यायी है , पापी है , दुराचारी है और वही एक दिन गङ्गा के किनारे स्नान किये हुए , हाथ में गोमुखी लिये हुए बैठा है। उसका चेहरा बड़ा प्रसन्न है। उसको देखकर कोई कहता है कि देखो भगवान का भजन कर रहा है , बड़ा अच्छा पुरुष है तो दूसरा कहता है कि अरे ! तुम इसको जानते नहीं , मैं जानता हूँ । यह तो ऐसा-ऐसा है , कुछ नहीं है , केवल पाखण्ड करता है। इस प्रकार भजन करने पर भी लोग उसको वैसा ही पापी मान लेते हैं और उधर साधन-भजन करने वाले को भी वेश्या के घर से निकलता देखकर खराब मान लेते हैं। उसको न जाने किस कारण से वेश्या ने बुलाया था? क्या पता वह दयापरवश होकर वेश्या को शिक्षा देने के लिये गया हो? उसके सुधार के लिये गया हो – उस तरफ उनकी दृष्टि नहीं जाती। जिनका अन्तःकरण मैला हो , वे मैलापन की बात करके अपने अन्तःकरण को और मैला कर लेते हैं। उनका अन्तःकरण मैलापन की बात ही पकड़ता है परन्तु उपर्युक्त दोनों प्रकार की बातें होने पर भी भगवान की दृष्टि मनुष्य के भाव पर ही रहती है , आचरणों पर नहीं – ‘रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की।।’ (मानस 1। 29। 3) क्योंकि भगवान भावग्राही हैं  – ‘भावग्राही जनार्दनः।सम्यग्व्यवसितो ही सः ‘ – दूसरे अध्याय में कर्मयोग के प्रकरण में व्यवसायात्मिका बुद्धि की बात आयी है (2। 41) अर्थात् वहाँ पहले बुद्धि में यह निश्चय होता है कि मेरे को राग-द्वेष नहीं करने हैं , कर्तव्यकर्म करते हुए सिद्धि-असिद्धि में सम रहना है। अतः कर्मयोगी की बुद्धि व्यवसायात्मिका होती है और यहाँ कर्ता स्वयं व्यवसित है — सम्यग्व्यवसितः। कारण कि मैं केवल भगवान्का ही हूँ? अब मेरा काम केवल भजन करना ही है — यह निश्चय स्वयंका है? बुद्धिका नहीं। अतः सम्यक् निश्चयवाले की स्थिति भगवान में है। तात्पर्य यह हुआ कि वहाँ निश्चय करण (बुद्धि) में है और यहाँ निश्चय कर्ता (स्वयं) में है। करण में निश्चय होने पर भी जब कर्ता परमात्म तत्त्व से अभिन्न हो जाता है तो फिर कर्ता में निश्चय होने पर करण में भी निश्चय हो जाय – इसमें तो कहना ही क्या है ? जहाँ बुद्धि का निश्चय होता है वहाँ वह निश्चय तब तक एकरूप नहीं रहता जब तक स्वयं कर्ता उस निश्चय       के साथ मिल नहीं जाता। जैसे सत्सङ्ग-स्वाध्याय के समय मनुष्यों का ऐसा निश्चय होता है कि अब तो हम केवल भजन-स्मरण ही करेंगे परन्तु यह निश्चय सत्सङ्ग-स्वाध्याय के बाद स्थिर नहीं रहता। इसमें कारण यह है कि उनकी स्वयं की स्वाभाविक रुचि केवल परमात्मा की तरफ चलने की नहीं है बल्कि साथ में संसार का सुख-आराम आदि लेने की भी रुचि रहती है परन्तु जब स्वयं का यह निश्चय हो जाता है कि अब हमें परमात्मा की तरफ ही चलना है तो फिर यह निश्चय कभी मिटता नहीं क्योंकि यह निश्चय स्वयं का है। जैसे कन्या का विवाह होने पर अब मैं पति की हो गयी , अब मेरे को पति के घर का काम ही करना है – ऐसा निश्चय स्वयं में हो जाने से यह कभी मिटता नहीं बल्कि बिना याद किये ही हरदम याद रहता है। इसका कारण यह है कि उसने स्वयं को ही पति का मान लिया। ऐसे ही जब मनुष्य यह निश्चय कर लेता है कि मैं भगवान का हूँ और अब केवल भगवान का ही काम (भजन) करना है , भजन के सिवाय और कोई काम नहीं , किसी काम से कोई मतलब नहीं तो यह निश्चय स्वयं का होने से सदा के लिये पक्का हो जाता है फिर कभी मिटता ही नहीं। इसलिये भगवान कहते हैं कि उसको साधु ही मानना चाहिये। केवल मानने की ही बात नहीं स्वयं का निश्चय होने से वह बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जाता है – ‘क्षिप्रं भवति धर्मात्मा ‘ (9। 31)। भक्तियोग की दृष्टि से सम्पूर्ण दुर्गुण-दुराचार भगवान की विमुखता पर ही टिके रहते हैं। जब प्राणी अनन्यभाव से भगवान के सम्मुख हो जाता है तब सभी दुर्गुण-दुराचार मिट जाते हैं। अब आगे के श्लोक में सम्यक् निश्चय का फल बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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