Shrimad Bhagavad Gita Chapter 9

 

 

Previous         Menu         Next

 

राजविद्याराजगुह्ययोग-  नौवाँ अध्याय

अध्याय नौ : राज विद्या योग

राज विद्या द्वारा योग

 

26 – 34 निष्काम भगवद् भक्ति की महिमा

 

 

Bhagavad Gita chapter 9क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।

कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥9.31॥

 

क्षिप्रम्-शीघ्रः भवति–बन जाता है; धर्मआत्मा-धर्म पर चलने वाला; शश्वत् शान्तिम्-चिरस्थायी शान्ति; निगच्छति–प्राप्त करना; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन ; प्रतिजानीहि-निश्चयपूर्वक घोषित कर दो; न-कभी नहीं; मे-मेरा; भक्त:-भक्त; प्रणश्यति–विनाश।

 

हे कुन्ती पुत्र! वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली चिरस्थायी परम शान्ति को प्राप्त होता है। तुम निश्चयपूर्वक निडर हो कर यह घोषणा कर दो और इस तथ्य को सत्य जानो कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता अर्थात मेरे भक्त का कभी पतन नहीं होता ॥9.31॥

 

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा’ – वह तत्काल धर्मात्मा हो जाता है अर्थात् महान पवित्र हो जाता है। कारण कि यह जीव स्वयं परमात्मा का अंश है और जब इसका उद्देश्य भी परमात्मा की प्राप्ति करना हो गया तो अब उसके धर्मात्मा होने में क्या देरी लगेगी । अब वह पापात्मा कैसे रहेगा क्योंकि वह धर्मात्मा तो स्वतः था ही केवल संसार के सम्बन्ध के कारण उसमें पापात्मापन आया था जो कि आगन्तुक था। अब जब अहंता बदलने से संसार का सम्बन्ध नहीं रहा तो वह ज्यों का त्यों (धर्मात्मा) रह गया। यह जीव जब पापात्मा नहीं बना था तब भी पवित्र था और जब पापात्मा बन गया तब भी वैसा ही पवित्र था। कारण कि परमात्मा का अंश होने से जीव सदा ही पवित्र है। केवल संसार के सम्बन्ध से वह पापात्मा बना था। संसार का सम्बन्ध छूटते ही वह ज्यों का त्यों पवित्र रह गया। पाप करने की भावना रहते हुए मनुष्य मेरे को केवल भगवान की तरफ ही चलना है – ऐसा निश्चय नहीं कर सकता , यह बात ठीक है परन्तु पापी मनुष्य ऐसा निश्चय नहीं कर सकता – यह नियम नहीं है। कारण कि जीवमात्र परमात्मा का अंश होने से तत्त्वतः निर्दोष है। संसार की आसक्ति के कारण ही उसमें आगन्तुक दोष आ जाते हैं। यदि उसके मन में पापों से घृणा हो जाय और ऐसा निश्चय हो जाय कि अब भगवान का ही भजन करना है तो वह बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जाता है। कारण कि जहाँ संसार की कामना है वहीं भगवान की तरफ चलने की रुचि भी है। अगर भगवान की तरफ चलने की रुचि जम जाय तो कामना और आसक्ति नष्ट हो जाती है। फिर भगवत्प्राप्ति में देरी नहीं लग सकती। वह बहुत जल्दी धर्मात्मा हो जाता है – इसका तात्पर्य यह हुआ कि उसमें जो यत्किञ्चित् दुराचार दिखते हैं वे भी टिकेंगे नहीं। कारण कि सब के सब दुराचार टिके हुए हैं – संसार को महत्त्व देने पर परन्तु जब वह संसार की कामना से रहित होकर केवल भगवान को ही चाहता है तब उसके भीतर संसार का महत्त्व न रहकर केवल भगवान का महत्त्व हो जाता है। भगवान का महत्त्व होने से वह धर्मात्मा हो जाता है। मार्मिक बात-यह एक सिद्धान्त है कि कर्ता के बदलने पर क्रियाएँ अपने आप बदल जाती हैं । जैसे कोई धर्मरूपी क्रिया करके धर्मात्मा होना चाहता है तो उसे धर्मात्मा होने में देरी लगेगी परन्तु अगर वह कर्ता को ही बदल ले अर्थात् मैं धर्मात्मा हूँ ऐसे अपनी अहंता को ही बदल ले तो वह बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जायगा। ऐसे ही दुराचारी से दुराचारी भी मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं – ऐसे अपनी अहंता को बदल देता है तो वह बुहत जल्दी धर्मात्मा हो जाता है , साधु हो जाता है , भक्त हो जाता है। तात्पर्य यह है कि मनुष्य जब संसार-शरीर के साथ मैं और मेरापन करके संयोगजन्य सुख चाहने लगता है तब वह कामात्मा (गीता 2। 43) बन जाता है और जब संसार से सर्वथा विमुख होकर भगवान के साथ अनन्य सम्बन्ध जोड़ लेता है जो कि वास्तव में है तब वह धर्मात्मा बन जाता है। साधारण दृष्टि से लोग यही समझते हैं कि मनुष्य सत्य बोलने से सत्यवादी होता है और चोरी करने से चोर होता है परन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं है। जब स्वयं सत्यवादी होता है अर्थात् ‘मैं सत्य बोलने वाला हूँ’ ऐसी अहंता को अपने में पकड़ लेता है तब वह सत्य बोलता है और सत्य बोलने से उसकी सत्यवादिता दृढ़ हो जाती है। ऐसे ही चोर होता है । वह ‘मैं चोर हूँ’ ऐसी अहंता को पकड़कर ही चोरी करता है और चोरी करने से उसका चोरपना दृढ़ हो जाता है परन्तु जिसकी अहंता में ‘मैं चोर हूँ ही नहीं’ ऐसा दृढ़ भाव है वह चोरी नहीं कर सकता। तात्पर्य यह हुआ कि अहंता के परिवर्तन से क्रियाओं का परिवर्तन हो जाता है। इन दोनों दृष्टान्तों से यह सिद्ध हुआ कि कर्ता जैसा होता है उसके द्वारा वैसे ही कर्म होते हैं और जैसे कर्म होते हैं वैसा ही कर्तापन दृढ़ हो जाता है। ऐसे ही यहाँ दुराचारी भी अनन्यभाक् होकर अर्थात् ‘मैं केवल भगवान का हूँ’ और केवल भगवान ही मेरे हैं – ऐसे अनन्यभाव से भगवान के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है तो उसकी अहंता में मैं भगवान का हूँ , संसार का नहीं हूँ , यह भाव दृढ़ हो जाता है जो कि वास्तव में सत्य है। इस प्रकार अहंता के बदल जाने पर क्रियाओं में किञ्चिन्मात्र कमी रहने पर भी वह बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जाता है। यहाँ शङ्का हो सकती है कि पूर्वश्लोक में भगवान ‘सुदुराचारः’ कहकर आये हैं तो फिर यहाँ भगवान ने उसको धर्मात्मा क्यों कहा है ? इसका समाधान है कि दुराचारी के दुराचार मिट जायँ तो वह सदाचारी अर्थात् धर्मात्मा ही होगा। अतः सदाचारी कहो या धर्मात्मा कहो – एक ही बात है। ‘शश्वच्छान्तिं निगच्छति’ – केवल धार्मिक क्रियाओं से जो धर्मात्मा बनता है उसके भीतर भोग और ऐश्वर्य की कामना होने से उसको भोग और ऐश्वर्य तो मिल सकते हैं  पर शाश्वती शान्ति नहीं मिल सकती। दुराचारीकी अहंता बदलने पर जब वह भगवान के साथ भीतर से एक हो जाता है तब उसके भीतर कामना नहीं रह सकती , असत् का महत्त्व नहीं रह सकता। इसलिये उसको निरन्तर रहने वाली शान्ति मिल जाती है। दूसरा भाव यह है कि स्वयं परमात्मा का अंश होने से चेतन , अमल , सहज , सुखराशि  है। अतः उसमें अपने स्वरूप की जो अनादि , अनन्त , स्वतःसिद्ध शान्ति है ; धर्मात्मा होने से अर्थात् भगवान के साथ अनन्यभाव से सम्बन्ध होने से वह शाश्वती शान्ति प्राप्त हो जाती है। केवल संसार  के साथ सम्बन्ध माननेसे ही उसका अनुभव नहीं हो रहा था। ‘कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति’ – यहाँ मेरे भक्त का पतन नहीं होता । ऐसी प्रतिज्ञा भगवान अर्जुन से करवाते हैं स्वयं नहीं करते। इसका आशय यह है कि अभी युद्ध का आरम्भ होनेवाला है और भगवान ने पहले ही हाथ में शस्त्र न लेने की प्रतिज्ञा कर ली है परन्तु जब आगे भीष्मजी यह प्रतिज्ञा कर लेंगे कि ‘आजु जौ हरिहिं न सस्त्र गहाऊँ। तौ लाजौं गङ्गाजननीकों शान्तनु सुत न कहाऊँ।। ‘ तो उस समय भगवान की प्रतिज्ञा तो टूट जायगी पर भक्त (भीष्मजी ) की प्रतिज्ञा नहीं टूटेगी। भगवान ने चौथे अध्याय के तीसरे श्लोक में ‘भक्तोऽसि मे सखा चेति’ कहकर अर्जुन को अपना भक्त स्वीकार किया है। अतः भगवान अर्जुन से कहते हैं कि भैया तू प्रतिज्ञा कर ले। कारण कि तेरे द्वारा प्रतिज्ञा करने पर अगर मैं खुद भी तेरी प्रतिज्ञा तोड़ना चाहूँगा तो भी तो़ड़ नहीं सकूँगा फिर और तोड़ेगा ही कौन? तात्पर्य हुआ कि अगर भक्त प्रतिज्ञा करे तो उस प्रतिज्ञा  के विरुद्ध मेरी प्रतिज्ञा भी नहीं चलेगी। मेरे भक्त का विनाश अर्थात् पतन नहीं होता – यह कहने का तात्पर्य है कि जब वह सर्वथा मेरे सम्मुख हो गया है तो अब उसके पतन की किञ्चिन्मात्र भी सम्भावना नहीं रही। पतन का कारण तो शरीर के साथ अपना सम्बन्ध मान लेना ही था। उस माने हुए सम्बन्ध से सर्वथा विमुख होकर जब वह अनन्यभाव से मेरे ही सम्मुख हो गया तो अब उसके पतन की सम्भावना हो ही कैसे सकती है ? दुराचारी भी जब भक्त हो सकता है तो फिर भक्त होने के बाद वह पुनः दुराचारी भी हो सकता है – ऐसा न्याय कहता है। इस न्याय को दूर करने के लिये भगवान कहते हैं कि यह न्याय यहाँ नहीं लगता। मेरे यहाँ तो दुराचारी से दुराचारी भी भक्त बन सकते हैं पर भक्त होने के बाद उनका फिर पतन नहीं हो सकता अर्थात् वे फिर दुराचारी नहीं बन सकते। इस प्रकार भगवान के न्याय में भी दया भरी हुई है। अतः भगवान न्यायकारी और दयालु – दोनों ही सिद्ध होते हैं। इस प्रकरण में भगवान ने अपनी भक्ति के सात अधिकारी बताये हैं। उनमें से दुराचारी का वर्णन दो श्लोकों में किया। अब आगे के श्लोक में भक्ति के चार अधिकारियों का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

         Next

 

 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!