Shrimad Bhagavad Gita Chapter 9

 

 

Previous       Menu       Next

 

राजविद्याराजगुह्ययोग-  नौवाँ अध्याय

अध्याय नौ : राज विद्या योग

राज विद्या द्वारा योग

 

01-06 परम गोपनीय ज्ञानोपदेश, उपासनात्मक ज्ञान, ईश्वर का विस्तार

 

 

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 9न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।

भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥9.5॥

 

न–कभी नहीं; च-और; मत् स्थानि–मुझमें स्थित; भूतानि–सभी जीव; पश्य-देखो; मे–मेरा; योगम् ऐश्वरम्-दिव्य शक्ति; भूतभृत्-जीवों का निर्वाहक; न-नहीं; च-भी; भूतस्थ:-में रहते हैं; मम–मेरा; आत्मा-स्वयं; भूतभावन-सभी जीवों का सृजनकर्ता ;

 

वे सब भूत अर्थात जीव मुझमें स्थित नहीं हैं, किंतु मेरी दिव्य ईश्वरीय योगशक्ति को तो देखो कि भूतों अर्थात जीवों का धारण-पोषण करने वाला और भूतों या प्राणियों को उत्पन्न करने वाला भी स्वयं मैं या मेरा आत्मा वास्तव में उन भूतों या प्राणियों में स्थित नहीं है॥9.5॥

 

[यह सब संसार मेरे निराकार स्वरूप से व्याप्त है। परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ तथा मेरे द्वारा उत्पन्न वे प्राणी भी मुझमें स्थित नहीं रहते हैं । और मैं उनसे या प्राकृतिक शक्ति से प्रभावित नहीं होता हूँ । मेरे इस ईश्वर-सम्बन्धी योग (सामर्थ्य) को देख ! सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाला अर्थात उनका रचयिता तथा उनका धारण और भरण-पोषण करने वाला मेरा स्वरूप उन प्राणियों में स्थित नहीं है। अर्थात मेरे द्वारा उत्पन्न सारी वस्तुएँ मुझमें स्थित नहीं रहतीं | जरा, मेरे योग-ऐश्र्वर्य को देखो! यद्यपि मैं समस्त जीवों का पालक (भर्ता) हूँ और सर्वत्र व्याप्त हूँ, लेकिन मैं इस विराट अभिव्यक्ति का अंश नहीं हूँ, मैं सृष्टि का कारणस्वरूप हूँ ।]

[भगवान् का कहना है यद्यपि सारी वस्तुएँ उन पर टिकी हैं, किन्तु वे उनसे पृथक् रहते हैं । सारे लोक अन्तरिक्ष में तैर रहें हैं और यह अन्तरिक्ष परमेश्र्वर की शक्ति है । किन्तु वे अन्तरिक्ष से भिन्न हैं, वे पृथक् स्थित हैं । अतः भगवान् कहते हैं “यद्यपि ये सब रचित पदार्थ मेरी अचिन्त्य शक्ति पर टिके हैं, किन्तु भगवान् के रूप में मैं उनसे पृथक् हूँ ।” यह भगवान् का अचिन्त्य ऐश्र्वर्य है । यद्यपि वे समस्त सृष्टि के पालन तथा धारणकर्ता हैं, किन्तु वे इस सृष्टि का स्पर्श नहीं करते। केवल उनकी परम इच्छा से प्रत्येक वस्तु सृजन, धारण, पालन एवं संहार होता है । वे भौतिक जगत् से भिन्न हैं तो भी प्रत्येक वस्तु उन्हीं पर आश्रित है ।]

 

(‘न च मत्स्थानि भूतानि’ (टिप्पणी प0 489) – अब भगवान दूसरी बात (सम्पूर्ण प्राणी मेरे में स्थित हैं ) के विरुद्ध यहाँ कहते हैं कि वे प्राणी मेरे में स्थित नहीं हैं। कारण कि अगर वे प्राणी मेरे में स्थित होते तो मैं जैसा निरन्तर निर्विकाररूप से ज्यों का त्यों रहता हूँ , वैसा संसार भी निर्विकाररूप से ज्यों का त्यों रहता। मेरा कभी उत्पत्तिविनाश नहीं होता तो संसार का भी उत्पत्तिविनाश नहीं होता। एक देश में हूँ और एक देश में नहीं हूँ , एक काल में हूँ और एक काल में नहीं हूँ , एक व्यक्ति में हूँ और एक व्यक्ति में नहीं हूँ  – ऐसी परिच्छिन्नता मेरे में नहीं है तो संसार में भी ऐसी परिच्छिन्नता नहीं होती। तात्पर्य है कि निर्विकारता , नित्यता , व्यापकता , अविनाशीपन आदि जैसे मेरे में हैं वैसे ही उन प्राणियों में भी होते परन्तु ऐसी बात नहीं है। मेरी स्थिति निरन्तर रहती है और उनकी स्थिति निरन्तर नहीं रहती तो इससे सिद्ध हुआ कि वे मेरे में स्थित नहीं हैं। अब उपर्युक्त विधिपरक और निषेधपरक चारों बातों को दूसरी रीति से इस प्रकार समझें। संसार में परमात्मा हैं और परमात्मा में संसार है तथा परमात्मा संसार में नहीं हैं और संसार परमात्मा में नहीं है। जैसे अगर तरंग की सत्ता मानी जाय तो तरंग में जल है और जल में तरंग है। कारण कि जल को छोड़कर तरंग रह ही नहीं सकती। तरंग जल से ही पैदा होती है , जल में ही रहती है और जल में ही लीन हो जाती है । अतः तरंग का आधार , आश्रय केवल जल ही है। जल के बिना उसकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इसलिये तरंग में जल है और जल में तरंग है। ऐसे ही संसार की सत्ता मानी जाय तो संसार में परमात्मा हैं और परमात्मा में संसार है। कारण कि परमात्मा को छोड़कर संसार रह ही नहीं सकता। संसार परमात्मा से ही पैदा होता है , परमात्मा में ही रहता है और परमात्मा में ही लीन हो जाता है। परमात्मा के सिवाय संसार की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इसलिये संसार में परमात्मा हैं और परमात्मा में संसार है। अगर तरंग उत्पन्न और नष्ट होने वाली होने से तथा जल के सिवाय उसकी स्वतन्त्र सत्ता न होने से तरंग की सत्ता न मानी जाय तो न तरंग में जल है और न जल में तरंग है अर्थात् केवल जल ही जल है और जल ही तरंगरूप से दिख रहा है। ऐसे ही संसार उत्पन्न और नष्ट होने वाला होने से तथा परमात्मा के सिवाय उसकी स्वतन्त्र सत्ता न होने से संसार की सत्ता न मानी जाय तो न संसार में परमात्मा हैं और न परमात्मा में संसार है अर्थात् केवल परमात्मा ही परमात्मा हैं और परमात्मा ही संसार-रूप से दिख रहे हैं। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे तत्त्व से एक जल ही है , तरंग नहीं है – ऐसे ही तत्त्व से एक परमात्मा ही हैं , संसार नहीं है – ‘वासुदेवः सर्वम्’ (7। 19)। अब कार्यकारण की दृष्टि से देखें तो जैसे मिट्टी से बने हुए जितने बर्तन हैं उन सब में मिट्टी ही है क्योंकि वे मिट्टी से ही बने हैं , मिट्टी में ही रहते हैं और मिट्टी में ही लीन होते हैं अर्थात् उनका आधार मिट्टी ही है। इसलिये बर्तनों में मिट्टी है और मिट्टी में बर्तन हैं परन्तु वास्तव में देखा जाय तो बर्तनों में मिट्टी और मिट्टी में बर्तन नहीं हैं। अगर बर्तनों में मिट्टी होती तो बर्तनों के मिटने पर मिट्टी भी मिट जाती परन्तु मिट्टी मिटती ही नहीं। अतः मिट्टी ,मिट्टी में ही रही अर्थात् अपने आप में ही स्थित रही। ऐसे ही अगर मिट्टी में बर्तन होते तो मिट्टी के रहने पर बर्तन हरदम रहते परन्तु बर्तन हरदम नहीं रहते। इसलिये मिट्टी में बर्तन नहीं हैं। ऐसे ही संसार में परमात्मा और परमात्मा में संसार रहते हुए भी संसार में परमात्मा और परमात्मा में संसार नहीं है। कारण कि अगर संसार में परमात्मा होते तो संसार के मिटने पर परमात्मा भी मिट जाते परन्तु परमात्मा मिटते ही नहीं। इसलिये संसार में परमात्मा नहीं हैं। परमात्मा तो अपने आप में स्थित हैं। ऐसे ही परमात्मा में संसार नहीं है। अगर परमात्मा में संसार होता तो परमात्मा के रहने पर संसार भी रहता परन्तु संसार नहीं रहता। इसलिये परमात्मा में संसार नहीं है। जैसे किसी ने हरिद्वार को याद किया तो उसके मन में हरि की पैड़ी दिखने लग गयी। बीच में घण्टाघर बना हुआ है। उसके दोनों ओर गङ्गाजी बह रही हैं। सीढ़ियों पर लोग स्नान कर रहे हैं। जल में मछलियाँ उछल-कूद मचा रही हैं। यह सब का सब हरिद्वार मन में है। इसलिये हरिद्वार में बना हुआ सब कुछ (पत्थर , जल , मनुष्य , मछलियाँ आदि ) मन ही है परन्तु जहाँ चिन्तन छोड़ा वहाँ फिर हरिद्वार नहीं रहा – केवल मन ही मन रहा। ऐसे ही परमात्मा ने ‘बहु स्यां प्रजायेय संकल्प किया’ तो संसार प्रकट हो गया। उस संसार के कण-कण में परमात्मा ही रहे और संसार परमात्मा में ही रहा क्योंकि परमात्मा ही संसाररूप में प्रकट हुए हैं परन्तु जहाँ परमात्मा ने संकल्प छोड़ा वहाँ फिर संसार नहीं रहा केवल परमात्मा ही परमात्मा रहे। तात्पर्य यह हुआ कि परमात्मा हैं और संसार है – इस दृष्टि से देखा जाय तो संसार में परमात्मा और परमात्मा में संसार है परन्तु तत्त्व की दृष्टि से देखा जाय तो न संसार में परमात्मा हैं और न परमात्मा में संसार है क्योंकि वहाँ संसार की स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है। वहाँ तो केवल परमात्मा ही परमात्मा हैं – वासुदेवः सर्वम्। यही जीवन्मुक्तों की , भक्तों , की दृष्टि है। ‘पश्य मे योगमैश्वरम्’ (टिप्पणी प0 490) – मैं सम्पूर्ण जगत में और सम्पूर्ण जगत् मेरे में होता हुआ भी सम्पूर्ण जगत् मेरे में नहीं है और मैं सम्पूर्ण जगत में नहीं हूँ अर्थात् मैं संसार से सर्वथा निर्लिप्त हूँ , अपने आप में ही स्थित हूँ – मेरे इस ईश्वरसम्बन्धी योग को अर्थात् प्रभाव (सामर्थ्य) को देख। तात्पर्य है कि मैं एक ही अनेक रूप से दिखता हूँ और अनेकरूप से दिखता हुआ भी मैं एक ही हूँ ।  अतः केवल मैं ही मैं हूँ। ‘पश्य’ क्रिया के दो अर्थ होते हैं – जानना और देखना। जानना बुद्धि से और देखना नेत्रों से होता है। भगवान के योग (प्रभाव ) को जानने की बात यहाँ आयी है और उसे देखने की बात 11वें अध्याय के 8वें श्लोक में आयी है। ‘भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः’ – मेरा जो स्वरूप है वह सम्पूर्ण प्राणियों को पैदा करने वाला , सबको धारण करने वाला तथा उनका भरण-पोषण करने वाला है परन्तु मैं उन प्राणियों में स्थित नहीं हूँ अर्थात् मैं उनके आश्रित नहीं हूँ , उनमें लिप्त नहीं हूँ। इसी बात को भगवान ने 15वें अध्याय के 17वें श्लोक में कहा है कि क्षर (जगत्) और अक्षर (जीवात्मा) – दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है , जिसको परमात्मा नाम से कहा गया है और जो सम्पूर्ण लोकों में व्याप्त होकर सबका भरण- पोषण करता हुआ सबका शासन करता है। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे मैं सबको उत्पन्न करता हुआ और सबका भरण-पोषण करता हुआ भी अहंता-ममता से रहित हूँ और सबमें रहता हुआ भी उनके आश्रित नहीं हूँ , उनसे सर्वथा निर्लिप्त हूँ। ऐसे ही मनुष्य को चाहिये कि वह कुटुम्ब-परिवार का भरण-पोषण करता हुआ और सबका प्रबन्ध – संरक्षण करता हुआ उनमें अहंता-ममता न करे और जिस किसी देश , काल , परिस्थिति में रहता हुआ भी अपने को उनके आश्रित न माने अर्थात् सर्वथा निर्लिप्त रहे।भक्त के सामने जो कुछ परिस्थिति आये , जो कुछ घटना घटे , मन में जो कुछ संकल्प-विकल्प आये – उन सब में उसको भगवान की ही लीला देखनी चाहिये। भगवान ही कभी उत्पत्ति की लीला , कभी स्थिति की लीला और कभी संहार की लीला करते हैं। यह सब संसार स्वरूप से तो भगवान का ही रूप है और इसमें जो परिवर्तन होता है वह सब भगवान की ही लीला है – इस तरह भगवान और उनकी लीला को देखते हुए भक्तको हरदम प्रसन्न रहना चाहिये। मार्मिक बात- सब कुछ परमात्मा ही है – इस बात को खूब गहरा उतरकर समझने से साधक को इसका यथार्थ अनुभव हो जाता है। यथार्थ अनुभव होने की कसौटी यह है कि अगर उसकी कोई प्रशंसा करे कि आपका सिद्धान्त बहुत अच्छा है आदि तो उसको अपने में बड़प्पन का अनुभव नहीं होना चाहिये। संसार में कोई आदर करे या निरादर – इसका भी साधक पर असर नहीं होना चाहिये। अगर कोई कह दे कि संसार नहीं है और परमात्मा हैं – यह तो आपकी कोरी कल्पना है और कुछ नहीं आदि तो ऐसी काट- छांट से साधक को किञ्चिन्मात्र भी बुरा नहीं लगना चाहिये।  उस बात को सिद्ध करने के लिये दृष्टान्त देने की , प्रमाण खोजने की इच्छा ही नहीं होनी चाहिये और कभी भी ऐसा भाव नहीं होना चाहिये कि यह हमारा सिद्धान्त है , यह हमारी मान्यता है , इसको हमने ठीक समझा है आदि। अपने सिद्धान्त के विरुद्ध कोई कितना ही विवेचन करे तो भी अपने सिद्धान्त में किसी कमी का अनुभव नहीं होना चाहिये और अपने में कोई विकार भी पैदा नहीं होना चाहिये। अपना यथार्थ अनुभव स्वाभाविक रूप से सदा-सर्वदा अटल और अखण्ड रूप से बना रहना चाहिये। इसके विषय में साधक को कभी सोचना ही नहीं पड़े। अब भगवान पीछे के दो श्लोकों में कही हुई बातों को दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

   Next

 

 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!