अथ चतुर्दशो ऽध्यायः
भक्तियोग की महिमा तथा ध्यानविधि का वर्णन
उद्धव उवाच
वदन्ति कृष्ण श्रेयांसि बहूनि ब्रह्म वादिनः ।
तेषां विकल्प प्राधान्य मुताहो एक मुख्यता ।। 1
उद्धव जी ने पूछा – श्रीकृष्ण ! ब्रह्म वादी महात्मा आत्म कल्याण के अनेकों साधन बतलाते हैं । उनमें अपनी – अपनी दृष्टि के अनुसार सभी श्रेष्ठ हैं अथवा किसी एक की प्रधानता है ? 1
भवतोदाहृतः स्वामिन भक्तियोगोऽनपेक्षितः ।
निरस्य सर्वतः संगम येन त्वय्या विशेन्मनः।। 2
मेरे स्वामी ! आपने तो अभी – अभी भक्ति योग को ही निरपेक्ष एवं स्वतन्त्र साधन बतलाया है ; क्योंकि इसी से सब ओर से आसक्ति छोड़ कर मन आप में ही तन्मय हो जाता है । 2
श्री भगवानुवाच
कालेन नष्टा प्रलये वाणियं वेद संज्ञिता।
मयाऽऽदौ ब्रह्मणे प्रोक्ता धर्मो यस्यां मदात्मकः।। 3
भगवान श्री कृष्ण ने कहा – प्रिय उद्धव ! यह वेदवाणी समय के फेर से प्रलय के अवसर पर लुप्त हो गयी थी ; फिर जब सृष्टि का समय आया , तब मैंने अपने संकल्प से ही इसे ब्रह्मा को उपदेश किया , इसमें मेरे भागवत धर्म का ही वर्णन है । 3
तेन प्रोक्ता च पुत्राय मनवे पूर्वजाय सा ।
ततो भृग्वादयो अगृह्णन सप्त ब्रह्ममहर्षयः ।। 4
ब्रह्मा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र स्वायम्भुव मनु को उपदेश किया और उनसे भृगु , अंगिरा , मरीचि , पुलह , अत्रि , पुलस्त्य और कृतु – इन सात प्रजापति – महर्षियों ने ग्रहण किया ।। 4
तेभ्यः पितृभ्यासतत्पुत्र देव दानव गुह्यकाः ।
मनुष्याः सिद्ध गन्धर्वाः सविद्याधरचारणाः ।। 5
किन्देवाः किन्नरा नागा रक्षः किम्पुरुषादयः ।
बह्वयस्तेषां प्रकृतयो रजः सत्त्व तमो भुवः ।।6
याभिर्भूतानी भिद्यन्ते भूतानां मत्यस्तथा।
यथा प्रकृति सर्वेषां चित्रा वाचः श्रवंती हि।। 7
तदनन्तर इन ब्रह्मर्षियों की संतान देवता , दानव , गुह्यक , मनुष्य , सिद्ध , गन्धर्व , विद्याधर , चारण , किंदेव , किन्नर , नाग , राक्षस और किम्पुरुष आदि ने इसे अपने पूर्वज इन्ही ब्रह्मर्षियों से प्राप्त किया । सभी जातियों और व्यक्तियों के स्वभाव – उनकी वासनाएं सत्व , रज और तमोगुण के कारण भिन्न हैं , इसलिए उनमें और उनकी बुद्धि – वृत्तियों में भी अनेकों भेद हैं । इसीलिए वे सभी अपनी – अपनी प्रकृति के अनुसार उस वेद वाणी का भिन्न – भिन्न अर्थ ग्रहण करते हैं । वह वाणी ही ऐसी अलौकिक है कि उससे विभिन्न अर्थ निकलना स्वाभिक ही है । 5-7
एवं प्रकृति वैचित्र्याद भिद्यन्ते मतयो नृणाम ।
पारम्पर्येण केषाञ्चित पाखण्ड मतयो ऽपरे।। 8
इसी प्रकार स्वभाव भेद तथा परंपरागत उपदेश के भेद से मनुष्यों की बुद्धि में भिन्नता आ जाती है और कुछ लोग तो बिना किसी विचार के वेद विरुद्ध पाखंड मतावलम्बी हो जाते हैं ।। 8
मन्मायामोहित धियः पुरुषाः पुरुषर्षभ ।
श्रेयो वदंत्य नेकान्तं यथा कर्म यथा रूचि ।।9
प्रिय उद्धव ! सभी की बुद्धि मेरी माया से मोहित हो रही है ; इसी से वे अपने – अपने कर्म – संस्कार और अपनी – अपनी रूचि के अनुसार आत्म कल्याण के साधन भी एक नहीं , अनेकों बतलाते हैं ।। 9
धर्म मेके यशश्चान्ये कामं सत्यं दमं शमं।
अन्य वदन्ति स्वार्थं वा ऐश्वर्यं त्याग भोजनम ।। 10
पूर्व मीमांसक धर्म को , साहित्याचार्य यश को , कामशास्त्री काम को , योगवेत्ता सत्य और शमदमादि को , दंड नीतिकार ऐश्वर्य को, त्यागी त्याग को और लोकायतिक भोग को ही मनुष्य – जीवन का स्वार्थ – परम लाभ बतलाते हैं ।। 10
केचिद यज्ञतपोदानं व्रतानि नियमान यमान ।
आद्यंतवंत एवैषां लोकाः कर्म विनिर्मिताः ।
दुःखोदर्कास्त मोनिष्ठाः क्षुद्रानन्दाः शुचार्पिताः ।। 11
कर्म योगी लोग यज्ञ , तप , दान , व्रत तथा यम – नियम आदि को पुरुषार्थ बतलाते हैं । परन्तु ये सभी कर्म हैं ; इनके फलस्वरूप जो लोक मिलते हैं , उत्पत्ति और नाश वाले हैं । कर्मों का फल समाप्त हो जाने पर उनसे दुःख ही मिलता है और सच पूछो , तो उनकी अंतिम गति घोर अज्ञान ही है । उनसे जो सुख मिलता है वह तुच्छ है – नगण्य है और वे लोग भोग के समय भी असूया आदि दोषों के कारण शोक से परिपूर्ण हैं । इसलिए इन विभिन्न साधनों के फेर में नहीं पड़ना चाहिए ) 11
मय्यर्पितात्मनः सभ्य निर्पेक्षस्य सर्वतः ।
मयाऽऽत्मना सुखं यत्तत कुतः स्याद विषयात्मनां ।। 12
प्रिय उद्धव ! जो सब ओर से निरपेक्ष – बेपरवाह हो गया है , किसी भी कर्म या फल आदि की आवश्यकता नहीं रखता और अपने अंतःकरण को सब प्रकार से मुझे ही समर्पित कर चुका है , परमानन्दस्वरूप मैं उसकी आत्मा के रूप में स्फुरित होने लगता हूँ । इससे वह जिस सुख का अनुभव करता है , वह विषय – लोलुप प्राणियों को किसी प्रकार मिल नहीं सकता ।। 12
अकिञ्चनस्य दान्तस्य शान्तस्य संचेतसः ।
मया संतुष्ट मनसः सर्वाः सुखमया दिशः।। 13
जो सब प्रकार के संग्रह – परिग्रह से रहित – अकिंचन है , जो अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर के शांत और समदर्शी हो गया है , जो मेरी प्राप्ति से ही मेरे सान्निध्य का अनुभव कर के ही सदा – सर्वदा पूर्ण संतोष का अनुभव करता है , उसके लिए आकाश का एक – एक कोना आनंद से भरा हुआ है ।। 13
न पारमेष्ठ्यं न महेन्द्रधिष्ण्यं
न सार्व भौमं न रसाधिपत्यं ।
न योग सिद्धीरपुनर्भवम वा
मय्यर्पितात्मेच्छति मद विनान्यत।। 14
जिसने अपने को मुझे सौंप दिया है , वह मुझे छोड़ कर न तो ब्रह्मा का पद चाहता है और न देवराज इंद्र का उसके मन में न तो सार्वभौम सम्राट बनने की इच्छा होती है और न वह स्वर्ग से भी श्रेष्ठ रसातल का ही स्वामी होना चाहता है । वह योग की बड़ी – बड़ी सिद्धियों और मोक्ष तक की अभिलाषा नहीं करता ।। 14
न तथा मे प्रियतम आत्मयोनिर्न शङ्करः ।
न च संकर्षणो न श्रीर्नैवात्मा च यथा भवान।।15
उद्धव ! मुझे तुम्हारे जैसे प्रेमी भक्त जितने प्रियतम हैं , उतने प्रिय मेरे पुत्र ब्रह्मा , आत्मा शंकर , सगे भाई बलरामजी स्वयं अर्धांगिनी लक्ष्मी जी और मेरा अपना आत्मा भी नहीं है ।। 15
निर्पेक्षं मुनिं शान्तं निर्वैरम समदर्शनं
अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्घ्रिरेणुभिः ।। 16
जिसे किसी की अपेक्षा नहीं , जो जगत के चिंतन से सर्वथा उपरत हो कर मेरे ही मनन – चिंतन में तल्लीन रहता है और राग – द्वेष न रख कर सबके प्रति समान दृष्टि रखता है , उस महात्मा के पीछे – पीछे मैं निरंतर यह सोचकर घूमा करता हूँ की उसके चरणों की धूल उड़कर मेरे ऊपर पड़ जाये और मैं पवित्र हो जाऊं ।। 16
निष्किंचना मय्यनुरक्त चेतसः ।
शांता महान्तोऽखिल जीव वत्सलाः.
कामैरनालब्धधियो जुषन्ति यत
तन्नैर पेक्ष्यम न विदुः सुखं मम ।। 17
जो सब प्रकार के संग्रह – परिग्रह से रहित है – यहाँ तक कि शरीर आदि में भी अहंता – ममता नहीं रखते , जिनका चित्त मेरे ही प्रेम के रंग में रंग गया है , जो संसार की वासनाओं से शांत – उपरत हो चुके हैं और जो अपनी महत्ता – उदारता के कारण स्वभाव से ही समस्त प्राणियों के प्रति दया और प्रेम का भाव रखते हैं , किसी प्रकार की कामना जिनकी बुद्धि का स्पर्श नहीं कर पाती, उन्हें मेरे जिस परमानन्द स्वरूप का अनुभव होता है , उस और कोई नहीं जान सकता ; क्योंकि वह परमानन्द तो केवल निरपेक्षता से ही प्राप्त होता है ।। 17
बाध्य मानोऽपि मद्भक्तो विषयैर जितेन्द्रियः ।
प्रायः प्रगल्भया भक्त्या विषयैर्नाभि भूयते ।। 18
उद्धव जी ! मेरा जो भक्त अभी जितेन्द्रिय नहीं हो सका है और संसार के विषय बार – बार उसे बाधा पहुंचाते रहते हैं – अपनी ओर खींच लिया करते हैं , वह भी क्षण – क्षण में बढ़ने वाली मेरी प्रगल्भ भक्ति के प्रभाव से प्रायः विषयों से पराजित नहीं होता ।। 18
यथाग्निः सुसमृद्धार्चिः करोत्येधांसि भस्मसात ।
तथा मद्विषया भक्तिरुद्ध वैनांसि कृत्स्नशः ।। 19
उद्धव ! जैसे धधकती हुई आग लकड़ियों के बड़े ढेर को भी जला कर भस्म कर देती है , वैसे ही मेरी भक्ति भी समस्त पाप-राशि को पूर्णतया जला डालती है ।। 19
न साधयति मां योगो न सांख्यं धर्म उद्धव ।
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता।। 20
उद्धव ! योग – साधन , ज्ञान – विज्ञान, धर्मानुष्ठान , जप – पाठ और तप – त्याग मुझे प्राप्त कराने में उतने समर्थ नहीं हैं , जितनी दिनों – दिन बढ़ने वाली अनन्य प्रेममयी मेरी भक्ति ।। 20
भक्त्याहमेकया ग्राह्य श्रद्धयाऽऽत्मा प्रियः सतां ।
भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि सम्भवात।। 21
मैं संतों का प्रियतम आत्मा हूँ , मैं अनन्य श्रद्धा और अनन्य भक्ति से ही पकड़ में आता हूँ । मुझे प्राप्त करने का यह एक ही उपाय है । मेरी अनन्य भक्ति उन लोगों को भी पवित्र तथा जातिदोष से मुक्त कर देती है जो जन्म से ही चांडाल हैं ।। 21
धर्मः सत्य दयोपेतो विद्या वा तपसान्विता।
मद्भक्त्यापेतमात्मानं न सम्यक प्रपुनाति हि।। 22
इसके विपरीत जो मेरी भक्ति से वंचित हैं , उनके चित्त को सत्य और दया से युक्त , धर्म और तपस्या से युक्त विद्या भी भली – भाँति पवित्र करने में असमर्थ है। 22
कथं विना रोमहर्षं द्रवता चेतसा विना ।
विनाऽऽनन्दाश्रुकलया शुद्धयेद भक्त्या विनाऽऽशयः ।। 23
जब तक सारा शरीर पुलकित नहीं हो जाता , चित्त पिघल कर गदगद नहीं हो जाता , आनंद के आंसू आँखों से छलकने नहीं लगते तथा अंतरंग और बहिरंग भक्ति की बाढ़ में चित्त डूबने – उतराने नहीं लगता , तब तक इसके शुद्ध होने की कोई सम्भावना नहीं है ।। 23
वाग गदगदा द्रवते यस्य चित्तं
रूदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च।
विलज्ज उद्गायती नृत्यते च
मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति।। 24
जिसकी वाणी प्रेम से गदगद हो रही है , चित्त पिघल कर एक ओर बहता रहता है , एक क्षण के लिए भी रोने का तांता नहीं टूटता , परन्तु जो कभी – कभी खिलखिलाकर हंसने भी लगता है , कहीं लाज छोड़ कर ऊंचे स्वर से गाने भी लगता है , तो कहीं नाचने लगता है , भैया उद्धव ! मेरा वह भक्त न केवल अपने को बल्कि सारे संसार को पवित्र कर देता है ।। 24
यथाग्निना हेम मलं जहाति
ध्मातं पुनः स्वं भजते च रूपम ।
आत्मा च कर्मानुशयं विधूय
मद्भक्ति योगेन भजत्यथो माम।।25
जैसे आग में तपाने पर सोना मैल छोड़ देता है – निखर जाता है और अपने असली रूप में स्थित हो जाता है , वैसे ही मेरे भक्ति योग के द्वारा आत्मा कर्म – वासनाओं से मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त हो जाता है , क्योंकि मैं ही उसका वास्तविक स्वरूप हूँ । 25
यथा यथऽऽत्मा परिमृज्यतेऽसौ
मत्पुण्यगाथाश्रवनाभिधानैः ।
तथा तथा पश्यति वास्तु सूक्ष्मं
चक्षुर्यथैवांजनसम्प्रयुक्तं ।। 26
उद्धव जी ! मेरी परम पावन लीला – कथा के श्रवण – कीर्तन से ज्यों – ज्यों चित्त का मैल धुलता जाता है , त्यों – त्यों उसे सूक्ष्म वस्तु के – वास्तविक तत्व के दर्शन होने लगते है – जैसे अनजान के द्वारा नेत्रों का दोष मिटने पर उनमें सूक्ष्म वस्तुओं को देखने की शक्ति आने लगती है । 26
विषयान ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषज्जते ।
मामनुस्मरतश्चित्तं मय्येव प्रविलीयते ।। 27
जो पुरुष नित्य विषय – चिंतन किया करता है , उसका चित्त विषयों में फंस जाता है और जो मेरा स्मरण करता है , उसका चित्त मुझमें तल्लीन हो जाता है ।। 27
तस्मादसदभिध्यानं यथा स्वप्न मनोरथम ।
हित्वा मयि समाधत्श्व मनो मद्भाव भावितं।। 28
इसलिए तुम दूसरे साधनों और फलों का चिंतन छोड़ दो । अरे भाई ! मेरे अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं , जो कुछ जान पड़ता है , वह ठीक वैसा ही है जैसे स्वप्न अथवा मनोरथ का राज्य । इसलिए मेरे चिंतन से तुम अपना चित्त शुद्ध कर लो और उसे पूरी तरह से – एकाग्रता से मुझमें ही लगा दो । 28
स्त्रीणां स्त्रीसंगिनां सङ्गं त्यक्त्वा दूरत आत्मवान
क्षेमे विविक्त आसीनश्चिन्त्येन्माम तन्द्रितः ।। 29
संयमी पुरुष स्त्रियों और उनके प्रेमियों का संग दूर से ही छोड़ कर , पवित्र एकांत स्थान में बैठ कर बड़ी सावधानी से मेरा ही चिंतन करें ।। 29
न तथास्य भवेत् क्लेशो बन्धश्चान्य प्रसंगतः ।
योषित्संगाद यथा पुंसो यथा तत्संगीसंगतः।। 30
प्यारे उद्धव ! स्त्रियों के संग से और स्त्री संगियों के – लम्पटों के संग से पुरुष को जैसे क्लेश और बंधन में पड़ना पड़ता है , वैसा क्लेश और फँसावट और किसी के भी संग से नहीं होती ।। 30
उद्धव उवाच
यथा त्वामरविन्दाक्ष यादृशं वा यदात्मकं ।
ध्यायेन मुमक्षुरेतन्मे ध्यानं त्वं वक्तुमर्हसि ।। 31
उद्धव जी ने पूछा – कमलनयन श्यामसुन्दर ! आप कृपा कर के यह बतलाइये कि मुमुक्षु पुरुष आपका किस रूप से , किस प्रकार और किस भाव से ध्यान करें ? 31
श्री भगवानुवाच
सम आसन आसीनः समकायो यथासुखम ।
हस्ता वुत्संग आधाय स्व नासाग्र कृतेक्षणः ।। 32
प्रिय उद्धव ! जो न तो बहुत ऊंचा हो , न बहुत नीचा ही- ऐसे आसन पर शरीर को सीधा रखकर आराम से बैठ जाए , हाथों को अपनी गोद में रख ले और दृष्टि अपनी नासिका के अग्र भाग पर जमावे ।। 32
प्राणस्य शोधयेन्मार्गं पुअर कुम्भक रेचकैः ।
विपर्ययेणापि शनैरभ्य सेन्निर्जितेन्द्रियः ।।
इसके बाद पूरक , कुम्भक और रेचक तथा रेचक , कुम्भक और पूरक – इन प्राणायामों के द्वारा नाड़ियों का शोधन करे । प्राणायाम का अभ्यास धीरे – धीरे बढ़ाना चाहिए और उसके साथ – साथ इन्द्रियों को जीतने का भी अभ्यास करना चाहिए । 33
हृद्यविच्छिन्नमोमकारं घंटानादं विसोर्णवत
प्राणे नोदीर्य तत्राथ पुनः संवेशयेत स्वरम ।। 34
ह्रदय में कमलनालगत पतले सूट के समान ॐकार का चिंतन करे , प्राण के द्वारा उसे ऊपर ले जाये और उसमें घंटा नाद के समान स्वर स्थित करे । उस स्वर का तांता टूटने न पावे । 34
एवं प्रणव संयुक्तं प्राणमेव समभ्यसेत
दशकृत्वस्त्रिषवणम मसादर्वाग जितानिलः।। 35
इस प्रकार प्रतिदिन तीन समय दस – दस बार ॐकार सहित प्राणायाम का अभ्यास करे । ऐसा करने से एक महीने के अंदर ही प्राण वायु वश में हो जाता है ।। 35
हृत्पुण्डरी कमन्तः स्थमूर्ध्वनालमधोमुखम ।
ध्यात्वोर्ध्व मुख मुन्निद्रमष्टपत्रं सकर्णिकम।।36
इसके बाद ऐसा चिंतन करे कि ह्रदय एक कमल है , वह शरीर के भीतर इस प्रकार स्थित है मानो उसकी डंडी तो ऊपर की ओर है और मुँह नीचे की ओर । अब ध्यान करना चाहिए कि उसका मुख ऊपर की ओर होकर खिल गया है , उसके आठ दल ( पंखुरियाँ ) हैं। और उनके बीचों – बीच पीली – पीली अत्यंत सुकुमार कर्णिका ( गद्दी ) है ।। 36
कर्णिकायां न्यसेत सूर्य सोमाग्नी नुत्तरोत्तरं ।
वह्निमध्ये स्मरेद रूपं ममैतद ध्यानमंगलम ।। 37
कर्णिका पर क्रमशः सूर्य , चन्द्रमा और अग्नि का न्यास करना चाहिए । तदनन्तर अग्नि के अंदर मेरे इस रूप का स्मरण करना चाहिए । मेरा यह स्वरूप ध्यान के लिए बड़ा ही मंगलमय है ।। 37
समं प्रशान्तं सुमुखं दीर्घचारुचतुर्भुजम ।
सुचारुसुन्दरग्रीवं सुकपोलं शुचिस्मितम ।। 38
समान कर्ण विन्यस्तस्फुरन्मकर कुण्डलं ।
हेमाम्बरम घनश्यामं श्रीवत्स श्रीनिकेतनं ।। 39
शंख चक्र गदा पद्म वनमाला विभूषितम।
नूपुरैर्विलसत्पादम कौस्तुभ प्रभया युतं ।। 40
द्युमत्किरीट कटक कटि सूत्रांगदायुतम।
सर्वांगसुंदरम हृद्यं प्रसादसुमुखे क्षणम ।
सुकुमारमभिध्यायेत सर्वाङ्गेषु मनो दधत ।। 41
मेरे अवयवों की गठन बड़ी ही सुडौल है । रोम – रोम से शान्ति टपकती है। मुखकमल अत्यंत प्रफुल्लित और सुन्दर है । घुटनों तक लम्बी मनोहर चार भुजाएं हैं। बड़ी ही सुन्दर और मनोहर गर्दन है । मरकत – मणि के समान सुस्निग्ध कपोल हैं । मुख पर मंद – मंद मुस्कान की अनोखी ही छटा है । दोनों ओर के कान बराबर हैं और उनमें मकराकृत कुण्डल झिलमिल – झिलमिल कर रहे हैं । वर्षा कालीन मेघ के समान श्यामल शरीर पर पीताम्बर फहरा रहा है । श्री वत्स एवं लक्ष्मी जी का चिह्न वक्षः स्थल पर दाएं – बाएं विराजमान है । हाथों में क्रमशः शंख , चक्र , गदा एवं पद्म धारण किये हुए हैं । गले में वनमाला लटक रही है । चरणों में नूपुर शोभा दे रहे हैं , गले में कौस्तुभ मणि जगमगा रही है । अपने – अपने स्थान पर चमचमाते हुए किरीट , कंगन , करधनी और बाजूबंद शोभायमान हो रहे हैं । मेरा एक- एक अंग अत्यंत सुन्दर एवं हृदयहारी है । सुंदर मुख और प्यार भरी चितवन कृपा – प्रसाद की वर्षा कर रही है । उद्धव ! मेरे इस सुकुमार रूप का ध्यान करना चाहिए और अपने मन को एक – एक अंग में लगाना चाहिए । 38-41
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो मनसाऽऽकृष्य तन्मनः।
बुद्ध्या सारथिना धीरः प्रणयेन्मयि सर्वतः ।। 42
बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से खींच ले और मन को बुद्धि रूप सारथि की सहायता से मुझ में ही लगा दे , चाहे मेरे किसी भी अंग में क्यों न लगे ।। 42
तत सर्व व्यापकं चित्त माकृष्यै कत्र धारयेत।
नान्यानि चिंतयेद भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखं।। 43
जब सारे शरीर का ध्यान होने लगे तब अपने चित्त को खींच कर एक स्थान में स्थिर करें और अन्य अंगों का चिंतन न कर के केवल मंद – मंद मुस्कान की छटा से युक्त मेरे मुख का ही ध्यान करे ।। 43
तत्र लब्ध पदं चित्त माकृष्य व्योम्नि धारयेत ।
तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किञ्चिदपि चिन्तयेत ।। 44
जब चित्त मुखारविंद में ठहर जाये , तब उसे वहां से हटा कर आकाश में स्थिर करे । तदनन्तर आकाश का चिंतन भी त्याग कर मेरे स्वरूप में आरूढ़ हो जाये और मेरे सिवा किसी भी वस्तु का चिंतन न करे ।। 44
एवं समाहितमतिर्मा मेवात्मान मात्मनि।
विचष्टे मयि सर्वात्मन ज्योतिर्ज्योतिषि संयुतम ।। 45
जब इस प्रकार चित्त समाहित हो जाता है , तब जैसे एक ज्योति दूसरी ज्योति से मिलकर एक हो जाती है , वैसे ही अपने में मुझे और मुझ सर्वात्मा में अपने को अनुभव करने लगता है ।। 45
ध्यानेनेत्थं सुतीव्रेण युञ्जतो योगिनो मनः ।
संयास्यत्याशु निर्वाणं दृव्य ज्ञान क्रिया भ्रमः ।। 46
जो योगी इस प्रकार तीव्र ध्यान योग के द्वारा मुझमें ही अपने चित्त का संयम करता है , उसके चित्त से वस्तु की अनेकता , तत्सम्बन्धी ज्ञान और उनकी प्राप्ति के लिए होने वाले कर्मों का भ्रम शीघ्र ही निवृत्त हो जाता है ।। 46
इति श्रीमद्भागवतमहापुराणे पारम हंस्यां संहितायामेकादश स्कन्धे चतुर्दशोऽध्यायः ।। 14