uddhav gita

 

 

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अथ पंचदशो ऽध्यायः

भिन्न – भिन्न सिद्धियों के नाम और लक्षण

 

श्री भगवानुवाच

जितेन्द्रियस्य युक्तस्य जितश्वासस्य योगिनः

मयि धारयतश्चेत उपतिष्ठन्ति सिद्धयः ।। 1

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं – प्रिय उद्धव ! जब साधक इन्द्रिय , प्राण और मन को अपने वश में करके अपना चित्त मुझमें लगाने लगता है , मेरी धारणा करने लगता है , तब उसके सामने बहुत सी सिद्धियां उपस्थित होती हैं ।

 

उद्धव उवाच

कया धारणया कास्वित कथंस्वित सिद्धिरच्युत।

कति वा सिद्धयो ब्रूहि योगिनां सिद्धिदो भवान।। 2

उद्धव जी ने कहा – अच्युत ! कौन सी धारणा करने से किस प्रकार की सिद्धि प्राप्त होती है और उनकी संख्या कितनी है , आप ही योगियों को सिद्धि देते हैं , अतः आप इनका वर्णन कीजिये ।। 2

 

श्री भगवानुवाच

सिद्धयो अष्टादश प्रोक्ता धारणा योग पारगैः ।

तासा मष्टौ मत्प्रधाना दशैव गुणहेतवः ।। 3

भगवान् श्री कृष्ण ने कहा – प्रिय उद्धव ! धारणा योग के पारगामी योगियों ने अठारह प्रकार की सिद्धियां बतलायी हैं । उनमें आठ सिद्धियां तो प्रधान रूप से मुझमें ही रहती हैं और दूसरों में न्यून ; तथा दस सत्वगुण के विकास से भी मिल जाती हैं ।। 3

 

अणिमा महिमा मूर्तेर्लघिमा प्राप्तिरिन्द्रियैः ।

प्राकाम्यं श्रुत दृष्टेषु शक्ति प्रेरण मीशिता।। 4

उनमें तीन सिद्धियां तो शरीर की हैं – ‘ अणिमा ‘ , ‘ महिमा ‘ और ‘ लघिमा ‘ इन्द्रियों की एक सिद्धि है – ‘ प्राप्ति ‘ . लौकिक और पारलौकिक पदार्थों का इच्छानुसार अनुभव करने वाली सिद्धि ‘ प्राकाम्य ‘ है । माया और उसके कार्यों को इच्छानुसार संचालित करना ‘ ईशिता ‘ नाम की सिद्धि है ।। 4

 

गुणेष्वसंगो वशिता यत्कामस्तद वस्यति । 

एता मे सिद्धयः सौम्य अष्टा वौतपत्तिका मताः ।। 5

विषयों मे रहकर भी उनमें आसक्त न होना ‘ वशिता ‘ है और जिस – जिस सुख की कामना करे , उसकी सीमा तक पहुंच जाना ‘ कामावासायिता’ नाम की आठवीं सिद्धि है । ये आठों सिद्धियां मुझमें स्वभाव से ही रहती हैं और जिन्हें मैं देता हूँ , उन्ही को अंशतः प्राप्त होती हैं ।। 5

 

अनूर्मिमत्वं देहेऽस्मिन दूरश्रवण दर्शनम ।

मनोजवः कामरूपं परकाय प्रवेशनम ।। 6

स्वच्छंद मृत्युर्देवानां सह क्रीडानुदर्शनम ।

यथा संकल्प संसिद्धि राज्ञा प्रति हता गतिः ।। 7

इनके अतिरिक्त और भी कई सिद्धियां हैं । शरीर में भूख – प्यास आदि वेगों का न होना , बहुत दूर की वस्तु देख लेना और बहुत दूर की बात सुन लेना , मन के साथ ही शरीर का उस स्थान पर पहुँच जाना , जो इच्छा हो वही रूप बना लेना , दूसरे शरीर में प्रवेश करना , जब इच्छा हो तभी शरीर छोड़ना , अप्सराओं के साथ होने वाली देव क्रीड़ा का दर्शन , संकल्प की सिद्धि , सब जगह सब के द्वारा बिना ननु – नच के आज्ञापालन – ये दस सिद्धियां सत्वगुण के विशेष विकास से होती हैं ।। 6-7

 

त्रिकालज्ञत्वमद्वन्द्वं परचित्ताद्यभिज्ञता ।

अग्न्यरकाम्बु विषादीनां प्रतिष्टम्भो ऽपराजयः ।। 8

भूत , भविष्य और वर्तमान की बात जान लेना ; शीत – ऊष्ण , सुख – दुःख , राग – द्वेष आदि द्वंद्वों के वश में न होना , दूसरे के मन की बात आदि जान लेना ; अग्नि , सूर्य , जल , विष आदि की शक्ति को स्तंभित कर देना और किसी से भी पराजित न होना – ये पांच सिद्धियां भी योगियों को प्राप्त होती हैं । 8

 

एताश्चोद्देशतः प्रोक्ता योगधारणसिद्धयः ।

यया धारणाय या स्याद यथा वा स्यान्निबोध में ।। 9

प्रिय उद्धव ! योग – धारणा करने से जो सिद्धियां प्राप्त होती हैं , उनका मैंने नाम – निर्देशक के साथ वर्णन कर दिया । अब किस धारणा से कौन सी सिद्धि कैसे प्राप्त होती है , यह बतलाता हूँ , सुनो ।। 9

 

भूत सूक्ष्मात्मनि मयि तन्मात्रम धारयेन्मनः ।

अणिमानमवाप्नोति तन्मात्रोपासको मम ।। 10

प्रिय उद्धव ! पंचभूतों की सूक्ष्मतम मात्राएं मेरा ही शरीर है । जो साधक केवल मेरे उसी शरीर की उपासना करता है और अपने मन को तदाकार बनाकर उसी में लगा देता है अर्थात मेरे तन्मात्रात्मक शरीर के अतिरिक्त और किसी भी वस्तु का चिंतन नहीं करता , उसे ‘ अणिमा ‘ नाम की सिद्धि अर्थात पत्थर की चट्टान आदि में भी प्रवेश करने की शक्ति – अणुता प्राप्त हो जाती है ।। 10

 

महत्यात्मनमयि परे यथासंस्थं मनो दधत।

महिमानमवाप्नोति भूतानां च पृथक पृथक ।। 11

महतत्व के रूप में भी मैं ही प्रकाशित हो रहा हूँ और उस रूप में समस्त व्यावहारिक ज्ञानों का केंद्र हूँ । जो मेरे उस रूप में अपने मन को महतत्त्वाकार कर के तन्मय कर देता है , उसे ‘ महिमा ‘ नाम की सिद्धि प्राप्त होती है , और इसी प्रकार आकाशादि पंचभूतों में – जो मेरे ही शरीर हैं – अलग – अलग मन लगाने से उन – उन की महत्ता प्राप्त हो जाती है , यह भी ‘ महिमा ‘ सिद्धि के अंतर्गत है ।। 11

 

परमाणुमये चित्तं भूतानां मयि रंजयन।

काल सूक्ष्मार्थतां योगी लघिमानमवाप्नुयात।। 12

जो योगी वायु आदि चार भूतों के परमाणुओं को मेरा ही रूप समझ कर चित्त को तदाकार कर देता है , उसे ‘ लघिमा ‘ सिद्धि प्राप्त हो जाती है – उसे परमाणु रूप काल के समान सूक्ष्म वस्तु बनने का सामर्थ्य प्राप्त हो जाता है ।। 12

 

धारयन मय्य हंतत्वे मनो वैकारिके ऽखिलं ।

सर्वेन्द्रियाणा मात्मत्वं प्राप्तिं प्राप्नोति मन्मनाः।। 13

जो सात्विक अहंकार को मेरा स्वरूप समझ कर मेरे उसी रूप में चित्त की धारणा करता है , वह समस्त इन्द्रियों का अधिष्ठाता हो जाता है । मेरा चिंतन करने वाला भक्त इस प्रकार ‘ प्राप्ति ‘ नाम की सिद्धि प्राप्त कर लेता है ।। 13

 

महात्यात्मनि यः सूत्रे धारयेन्मयि मानसं।

प्राकाम्यं पारमेष्ठ्यं मे विन्दते व्यक्त जन्मनः ।। 14

जो पुरुष मुझ महतत्त्वाभिमानी सूत्रात्मा मे अपना चित्त स्थिर करता है , उसे मुझ अव्यक्तजन्मा ( सूत्रात्मा ) की ‘ प्राकाम्य ‘ नाम की सिद्धि प्राप्त होती है – जिससे इच्छानुसार सभी भोग प्राप्त हो जाते हैं ।।14

 

विष्णौ त्रयधीश्वरे चित्तं धारयेत कालविग्रहे ।

स ईशित्वमवाप्नोति क्षेत्रक्षेत्रज्ञचोदनाम।। 15

जो त्रिगुणमयी माया के स्वामी मेरे काल – स्वरूप विश्व रूप की धारणा करता है , वह शरीरों और जीवों को अपने इच्छानुसार प्रेरित करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है । इस सिद्धि का नाम ‘ ईशित्व ‘ है ।। 15

 

नारायणे तुरीयाख्ये भगवच्छब्द शब्दिते ।

मनो मय्यादधद योगी द्धर्मा वशितामियात।। 16

जो योगी मेरे नारायण स्वरूप में जिसे तुरीय और भगवान भी कहते हैं – मन को लगा देता है , मेरे स्वाभाविक गुण उसमें प्रकट होने लगते हैं और उसे ‘ वशिता ‘ नाम की सिद्धि प्राप्त हो जाती है ।।

 

निर्गुणे ब्रह्मणि मयि धारयन विशदं मनः ।

परमानन्दमाप्नोति यात्रा कामो ऽवसीयते।। 17

निर्गुण ब्रह्म भी मैं ही हूँ । जो अपना निर्मल मन मेरे इस ब्रह्म स्वरूप में स्थित कर लेता है , उसे परमानन्द – स्वरूपणी ‘ कामावसायिता ‘ नाम की सिद्धि प्राप्त हो जाती है । इसके मिलने पर उसकी सारी कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं , समाप्त हो जाती हैं ।। 17

 

श्वेतद्वीपपतौ चित्तं शुद्धे धर्ममये मयि ।

धारयन्छेप्ततां याति षडूर्मिरहितो नरः ।।  18

प्रिय उद्धव ! मेरा वह रूप , जो श्ववेत द्वीप का स्वामी है , अत्यंत शुद्ध और धर्ममय है । जो उसकी धारणा करता है , वह भूख – प्यास , जन्म – मृत्यु और शोक – मोह – इन छः ऊर्मियों से मुक्त हो जाता है और उसे शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति होती है ।। 18

 

मय्याकाशात्मनि प्राणे मनसा घोषमुद्वहन।

तत्रोपलब्धा भूतानां हंसो वाचः शृणोत्यसौ ।। 19

मैं ही समष्टि – प्राण रूप आकाशात्मा हूँ । जो मेरे इस स्वरूप में मन के द्वारा अनाहत नाद का चिंतन करता है , वह ‘ दूर श्रवण ‘ नाम की सिद्धि से सम्पन्न हो जाता है और आकाश में उपलब्ध होने वाली विविध प्राणियों की बोली सुन – समझ सकता है ।। 19

 

चक्षुस्त्वष्टरि संयोज्य त्वष्टारमपि चक्षुषी।

मां तत्र मनसा ध्यायन विश्वम पश्यति सूक्ष्मदृक।। 20

जो योगी नेत्रों को सूर्य में और सूर्य को नेत्रों में संयुक्त कर देता है और दोनों के संयोग में मन – ही – मन मेरा ध्यान करता है , उसकी दृष्टि सूक्ष्म हो जाती है , उसे ‘ दूरदर्शन ‘ नाम की सिद्धि प्राप्त होती है और वह सरे संसार को देख सकता है ।। 20

 

मनो मयि सुसंयोज्य देहं तदनु वायुना ।

मद्धारणानुभावेन तत्रात्मा यत्र वै मनः।। 21

मन और शरीर को प्राण वायु के सहित मेरे साथ संयुक्त कर दे और शरीर को प्राण वायु के सहित मेरे साथ संयुक्त कर दे और मेरी धारणा करे तो इससे ‘ मनोजव ‘ नाम की सिद्धि प्राप्त हो जाती है । इसके प्रभाव से वह योगी जहाँ भी जाने का संकल्प करता है, वहीँ उसका शरीर उसी क्षण पहुँच जाता है ।। 21

 

यदा मन उपादाय यद् यद् रूपम बभूषति।

तत्तद भवेन्मनोरूपं मद्योगबलमाश्रयः।। 22

जिस समय योगी मन को उपादान कारण बनाकर किसी देवता आदि का रूप धारण करना चाहता है तो वह अपने मन के अनुकूल वैसा ही रूप धारण कर लेता है । इसका कारण यह है कि उसने अपने चित्त को मेरे साथ जोड़ दिया है ।। 22

 

परकायं विशन सिद्ध आत्मानं तत्र भावयेत ।

पिण्डं हित्वा विशेत प्राणो वायुभूतः षडङ्घ्रिवत।।23

जो योगी दूसरे शरीर में प्रवेश करना चाहे , वह ऐसी भावना करे कि मैं उसी शरीर में हूँ । ऐसा करने से उसका प्राण वायु रूप धारण कर लेता है और वह एक फूल से दूसरे फूल पर जाने वाले भौंरे के सामान अपना शरीर छोड़ कर दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है । 23

 

पार्ष्ण्याऽऽपीड्य गुदम प्राणं हृदुरः कंठमूर्धसु ।

आरोप्य ब्रह्मरन्ध्रेण ब्रह्म नीत्वोत्सृजेत्तनुम ।। 24

योगी को यदि शरीर का परित्याग करना हो तो एड़ी से गुदाद्वार को दबाकर प्राण वायु को क्रमशः ह्रदय , वक्षः स्थल , कंठ और मस्तक में ले जाए । फिर ब्रह्मरंध्र के द्वारा उसे उसे ब्रह्म में लीन कर के शरीर का परित्याग कर दे ।

 

विहरिष्यं सुराक्रीडे मत्स्थं सत्त्वं विभावयेत ।

विमानेनोपतिष्ठन्ति सत्त्ववृतीः सुरस्त्रियः ।। 25

यदि उसे देवताओं के विहार स्थलों में क्रीड़ा करने की इच्छा हो , तो मेरे शुद्ध सत्त्वमय स्वरूप की भावना करे । ऐसा करने से सत्त्व गुण की अंशस्वरूपा सुर – सुंदरियाँ विमान पर चढ़ कर उसके पास पहुँच जाती हैं ।। 25

 

यथा संकल्पयेद बुद्ध्या यदा व मत्परः पुमान ।

मयि सत्ये मनो युंजंस्तथा तत समुपाश्नुते ।। 26

जिस पुरुष ने मेरे सत्य संकल्प स्वरूप में अपना चित्त स्थिर कर दिया है , उसी के ध्यान में संलग्न है , वह अपने मन से जिस समय जैसा संकल्प करता है , उसी समय उसका वह संकल्प सिद्ध हो जाता है ।। 26

 

यो वै मद्भाव मापन्न ईशितुर्वशितुः पुमान ।

कुतश्चिन्न विहन्येत तस्य चाज्ञा यथा मम।। 27

मैं ‘ ईशित्व ‘ और ‘ वशित्व ‘ – इन दोनों सिद्धियों का स्वामी हूँ ; इसलिए कभी कोई मेरी आज्ञा टाल नहीं सकता । जो मेरे उस रूप का चिंतन करके उसी भाव से युक्त हो जाता है , मेरे समान उसकी आज्ञा को भी कोई टाल नहीं सकता । 27

 

मद्भक्त्या शुध्द सत्त्वस्य योगिनो धारणा विदः।

तस्य त्रैकालिकी बुद्धिर्जन्ममृत्यूपबृंहिता ।। 28

जिस योगी का चित्त मेरी धरना करते – करते मेरी भक्ति के प्रभाव से शुद्ध हो गया है , उसकी बुद्धि जन्म – मृत्यु आदि अदृष्ट विषयों को भी जान लेती है । और तो क्या – भूत , भविष्य और वर्तमान की सभी बातें उसे मालूम हो जाती हैं ।। 28

 

अग्न्यादिभिर्न हन्येत मुनेर्योगमयं वपुः ।

मद्योगश्रांतचित्तस्य यादसामुदकं यथा ।। 29

जैसे जल के द्वारा जल में रहने वाले प्राणियों का नाश नहीं होता , वैसे ही जिस योगी ने अपना चित्त मुझमें लगा कर शिथिल कर दिया है , उसके योगमय शरीर को अग्नि , जल आदि कोई भी पदार्थ नष्ट नहीं कर सकते ।। 29

 

मद्विभूतीरभिध्यानन श्रीवतसास्त्र विभूषिताः ।

ध्वजातपत्रव्यजनैः स भवेदपराजितः ।। 30

जो पुरुष श्रीवत्स आदि चिह्न और शंख- गदा – चक्र – पद्म आदि आयुधों से विभूषित तथा ध्वजा – छत्र – चंवर आदि से संपन्न मेरे अवतारों का ध्यान करता है , वह अजेय हो जाता है ।। 30

 

उपासकस्य मामेवं योगधारणया मुनेः ।

सिद्धयः पूर्व कथिता उपतिष्ठन्त्य शेषतः ।। 31

इस प्रकार जो विचारशील पुरुष मेरी उपासना करता है और योग धारणा के द्वारा मेरा चिंतन करता है , उसे वे सभी सिद्धियां पूर्णतः प्राप्त हो जाती हैं , जिनका मैंने वर्णन किया है ।। 31

 

जितेन्द्रियस्य दान्तस्य जितश्वासात्मनो मुनेः ।

मद्धारणाम धारयतः का सा सिद्धिः सुदुर्लभा ।। 32

प्यारे उद्धव ! जिसने अपने प्राण , मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है , जो संयमी है और मेरे ही स्वरूप की धारणा कर रहा है , उसके लिए ऐसी कोई भी सिद्धि नहीं , जो दुर्लभ हो । उसे तो सभी सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं ।। 32

 

अंतरायान वदन्त्येता युंजतो योगमुत्तमम।

मया सम्पद्यमानस्य कालक्षपणहेतवः ।। 33

परन्तु श्रेष्ठ पुरुष कहते हैं कि जो लोग भक्ति योग अथवा ज्ञान योगादि उत्तम योगों का अभ्यास कर रहे हैं , जो मुझसे एक हो रहे हैं , उनके लिए इन सिद्धियों का प्राप्त होना एक विघ्न ही है ; क्योंकि इनके कारण व्यर्थ ही उनके समय का दुरूपयोग होता है ।। 33

 

जन्मौषधित पोमन्त्रैर्यावतीरिह सिद्धयः ।

योगेनाप्नोति ताः सर्वा नान्यैर्योगगतिं व्रजेत ।। 34

जगत में जन्म , औषधि , तपस्या और मंत्रादि के द्वारा जितनी सिद्धियां प्राप्त होती हैं , वे सभी योग के द्वारा मिल जाती हैं ; परन्तु योग की अंतिम सीमा – मेरे सारूप्य , सालोक्य आदि की प्राप्ति बिना मुझ में चित्त लगाए किसी भी साधन से नहीं प्राप्त हो सकती ।। 34

 

सर्वा सामपि सिद्धिनां हेतुः पतिरहं प्रभुः ।

अहं योगस्य सांख्यस्य धर्मस्य ब्रह्मवादिनां।। 35

जैसे स्थूल पंचभूतों में बाहर, भीतर – सर्वत्र सूक्ष्म पंच – महाभूत ही हैं , सूक्ष्म भूतों के अतिरिक्त स्थूल भूतों की कोई सत्ता ही नहीं है , वैसे ही मैं समस्त प्राणियों के भीतर दृष्टा रूप से और बाहर दृश्य रूप से स्थित हूँ । मुझमें बाहर – भीतर का भेद भी नहीं है ; क्योंकि मैं निरावरण , एक – अद्वितीय आत्मा हूँ ।। 35

 

इति श्रीमदभागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादश स्कन्धे पंचदशोऽध्यायः ।। 15

 

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