अथ नवमो अध्यायः
अवधूतोपाख्यान – कुरर से लेकर भृंगी तक सात गुरुओं की कथा
ब्राह्मण उवाच
परिग्रहो हि दुःखाय यद् यत्प्रियतममं नृणाम ।
अनंतं सुखमाप्नोति तद विद्वान यस्त्वकिंचनः।।
अवधूत दत्तात्रेय जी ने कहा – राजन ! मनुष्यों को जो वस्तुएं अत्यंत प्रिय लगती हैं , उन्हें इकठ्ठा करना ही उनके दुःख का कारण है। जो बुद्धिमान पुरुष यह बात समझ कर अकिंचन भाव से रहता है – शरीर की तो बात ही अलग , मन से भी किसी वस्तु का संग्रह नहीं करता – उसे अनंत सुख स्वरूप परमात्मा की प्राप्ति होती है ।। 1
सामिषं कुररं जघ्नुर्बलिनो ये निरामिषाः ।
तदामिषं परित्यज्य स सुखं समविंदत ।। 2
एक कुरर पक्षी अपनी चोंच में मांस का टुकड़ा लिए हुए था । उस समय दूसरे बलवान पक्षी , जिनके पास मांस नहीं था , उस से छीनने के लिए उसे घेर कर चोंचें मारने लगे । जब कुरर पक्षी ने अपनी चोंच से मांस का टुकड़ा फेंक दिया , तभी उसे सुख मिला ।। 2
न मे माना वमानौ स्तो न चिंता गेह पुत्रिणाम ।
आत्म क्रीड आत्मरतिर्विचरामीह बालवत ।। 3
मुझे मान या अपमान का कोई ध्यान नहीं है और घर एवं परिवार वालों को जो चिंता होती है , वह मुझे नहीं है । मैं अपनी आत्मा मे ही स्थित हूँ । मैं अपने आत्मा में ही रमता हूँ और अपने साथ ही क्रीड़ा करता हूँ । यह शिक्षा मैंने बालक से ली है । अतः उसी के समान मैं भी मौज से रहता हूँ ।
द्वावेव चिन्तया मुक्तौ परमानन्द आप्लुतौ ।
यो विमुग्धो जडो बालो यो गुणेभ्यः परम गतः ।। 4
इस जगत में दो ही प्रकार के व्यक्ति निश्चिन्त और परमानन्द में मग्न रहते हैं – एक तो भोला भाला निश्चेष्ट नन्हा सा बालक और दूसरा वह पुरुष जो गुणातीत हो गया हो ।
क्वचित कुमारी त्वात्मानं व्रणानान ग्रहमागतान
स्वयं तानर्हयामास क्वापि यातेषु बन्धुषु ।। 5
एक बार किसी कुमारी कन्या के घर उसे वरण करने के लिए कई लोग आये हुए थे । उस दिन उसके घर के लोग कहीं बाहर गए हुए थे । इसलिए उसने स्वयं ही उनका आथित्य सत्कार किया ।
तेषामभ्यवहारार्थं शालीन रहसि पार्थिव ।
अवघ नन्त्याः प्रकोष्ठास्थाश्चक्रुः शंखः स्वनाम महत ।। 6
राजन ! उनको भोजन कराने के लिए वह घर के भीतर एकांत में धान कूटने लगी । उस समय उसकी कलाई में पड़ी शंख की चूड़ियाँ जोर – जोर से बज रही थीं।
सा तज्जुगुप्सितम मत्वा महती व्रीडिता ततः ।
बभंजैकैकशः शंखान द्वौ द्वौ पाण्योर शेषयत।। 7
इस शब्द को निन्दित समझ कर कुमारी को बड़ी लज्जा मालूम हुई और उसने एक-एक कर के सब चूड़ियाँ तोड़ डालीं और दोनों हाथों में केवल दो – दो चूड़ियां ही रहने दी ।। 7
उभयोरप्यभूद घोषो ह्यवघ्नन्त्याः स्म शङ्खयोः।
तत्राप्येकं निर्भिद देकस्मान्नाभवद ध्वनिः ।। 8
अब वह फिर धान कूटने लगी । परन्तु वह दो – दो चूड़ियाँ भी बजने लगीं , तब उसने एक – एक चूड़ी और तोड़ दी । जब दोनों कलाईयों में केवल एक – एक चूड़ी रह गयी तब किसी प्रकार की आवाज नहीं हुई ।। 8
अन्वशिक्षमिमं तस्या उपदेश मरिन्दम ।
लोकान नुचरन्नेतामललोकतांल्लोक तत्व विवित्सया ।। 9
हे रिपुदमन ! उस समय लोगों का आचार – विचार निरखने – परखने के लिए इधर – उधर घूमता – घामता मैं भी वहां पहुँच गया ।
वासे बहूनां कलहो भवेद वार्ता द्वयोरपि ।
एक एव चरेत्तस्मात कुर्माया एव कंकणः।। 10
मैंने उससे यह शिक्षा प्राप्त की कि जब बहुत लोग एक साथ रहते हैं तब कलह होती है और दो आदमी साथ रहते हैं तब भी बातचीत तो होती ही है ; इसलिए कुमारी कन्या की चूड़ी के समान अकेले ही विचरना चाहिए ।
मन एकत्र संयुज्याज्जित श्वासो जितासनः ।
वैराग्याभ्यास योगेन ध्रियमाण मतिंद्रितः ।। 11
राजन ! मैंने बाण बनाने वाले से यह सीखा है कि आसन और श्वास को जीत कर वैराग्य और अभ्यास के द्वारा अपने मन को वश में कर लें और फिर बड़ी सावधानी के साथ उसे एक लक्ष्य में लगा दे ।।
यस्मिन मनो लब्ध पदं यदेतच्छनैः
शनैर्मुंचति कर्मरेणून ।
सत्वेन वृद्धेन रजस्तमश्च
विधूय निर्वाण मुपैत्य निन्धनं।। 12
जब परमानन्द स्वरूप परमात्मा में मन स्थिर हो जाता है तब वह धीरे – धीरे कर्म वासनाओं की धूल को धो बहाता है । सत्व गुण की वृद्धि से रजोगुणी और तमोगुणी वृत्तियों का त्याग करके मन वैसे ही शांत हो जाता है , जैसे ईंधन के बिना अग्नि ।। 12
तदैव मात्मन्य वरुद्ध चित्तो
न वेद किंचिद बहि रन्तरं वा ।
यथेषु कारो नृपतिम व्रजन्त मिषौ
गतात्मा न ददर्श पार्श्वे।। 13
इस प्रकार जिसका चित्त अपने आत्मा में ही स्थिर – निरुद्ध हो जाता है , उसे बाहर – भीतर कहीं किसी पदार्थ का भान नहीं होता । मैंने देखा था कि एक बाण बनाने वाला कारीगर बाण बनाने में इतना तन्मय हो रहा था कि उसके पास से ही दल-बल के साथ राजा की सवारी निकल गयी और उसे पता तक नहीं चला ।। 13
एकचार्यनिकेतः स्यादप्रमत्तो गुहाशयः ।
अलक्ष्यमाण आचारैर्मुनि रेकोऽल्प भाषणः ।। 14
राजन ! मैंने सांप से यह शिक्षा ली है कि सन्यासी को सर्प की ही भाँति अकेले ही विचरण करना चाहिए , उसे मंडली नहीं बांधनी चाहिए । वह एक स्थान में न रहे , प्रमाद न करे , गुफा आदि में पड़ा रहे , बाहरी आचारों से पहचाना न जाये । किसी से सहायता न ले और बहुत कम बोले ।
गृहारम्भो ऽतिदुःखाय विफलश्चा ध्रुवात्मनः ।
सर्पः परकृतं वेश्म प्रविश्य सुख मेधते ।। 15
इस अनित्य शरीर के लिए घर बनाने के बखेड़े में पड़ना व्यर्थ और दुःख की जड़ है । सांप दूसरों के बनाये घर में घुस कर बड़े आराम से अपना समय काटता है ।। 15
एको नारायणो देवः पूर्व सृष्टं स्वमायया ।
संहृत्य काल कलया कल्पांत इदमीश्वरः।। 16
एक एवा द्वितीयो ऽभूदात्मा धारो ऽखिलाश्रयः ।
कालेनात्मानुभवेन साम्यं नीतासु शक्तिषु ।
सत्वादिष्वादिपुरुषः प्रधान पुरुषेश्वरः ।। 17
परावराणाम परम आस्ते कैवल्य संज्ञितः ।
केवलानुभवा ननद संदोहो निरुपाधिकः ।। 18
केवालात्मानुभावेन स्वमायां त्रिगुणात्मिकाम ।
संक्षोभयन सृजत्यादौ तया सूत्र मरिन्दम ।। 19
तमाहुस्त्रि गुण व्यक्तिं सृजंतीम विश्वतोमुखम ।
यस्मिन प्रोत मिदं विश्वम येन संसरते पुमान ।। 2o
अब मकड़ी से ली हुई शिक्षा सुनो । सबके प्रकाशक और अंतर्यामी सर्वशक्तिमान भगवान् ने पूर्व कल्प में बिना किसी अन्य सहायक के अपनी ही माया से रचे हुए जगत को कल्प के अंत में ( प्रलयकाल उपस्थित होने पर ) कालशक्ति के द्वारा नष्ट कर दिया । उसे अपने में लीन कर लिया और सजातीय और विजातीय तथा स्वगत भेद से शून्य अकेले ही शेष रह गए । वे सबके अधिष्ठान हैं , सबके आश्रय हैं ; परन्तु स्वयं अपने आश्रय – अपने ही आधार से रहते हैं। उनका कोई दूसरा आधार नहीं हैं। वे प्रकृति और पुरुष दोनों के नियामक , कार्य और कारणात्मक जगत के आदिकारण परमात्मा अपनी काल शक्ति के प्रभाव से सत्व – रज आदि समस्त शक्तियों को साम्यावस्था में पहुंचा देते हैं और स्वयं कैवल्य रूप से एक और अद्वितीय रूप में विराजमान रहते हैं । वे केवल अनुभव स्वरुप और आनंदघन मात्रा हैं किसी भी प्रकार की उपाधि का उनसे कोई सम्बन्ध नहीं हैं । वे ही प्रभु केवल अपनी शक्ति काल के द्वारा अपनी त्रिगुणमयी माया को क्षुब्ध करते हैं और उस से पहले क्रियाशक्ति – प्रधान सूत्र ( महतत्व ) की रचना करते हैं । यह सूत्र रूप महतत्व ही तीनों गुणों की पहली अभिव्यक्ति हैं , वही सब प्रकार की सृष्टि का मूल कारण है। उसी में यह सारा विश्व , सूत में ताने – बाने की तरह ओत- प्रोत है और इसी के कारण जीव को जन्म – मृत्यु के चक्कर में पड़ना पड़ता है ।। 16-20
यथोर्णनाभिर्हृदयादूर्णाम संतत्य वक्त्रतः ।
तया विहृत्य भूयस्तां ग्रसत्येवं महेश्वरः ।। 21
जैसे मकड़ी अपने ह्रदय से मुँह के द्वारा जाला फैलाती है , उसी में विहार करती है और फिर उसे निगल जाती है , वैसे ही परमेश्वर भी इस जगत को अपने से उत्पन्न करते हैं , उसमें जीव रूप से विहार करते हैं और फिर उसे अपने में लीन कर लेते हैं । 21
यत्र यत्र मनो देही धारयेत सकलं धिया ।
स्नेह्यद द्वेषाद भयाद वापि याति तत्तत्सरूपताम ।। 22
राजन ! मैंने भृंगी ( बिलनी ) कीड़े से यह शिक्षा ली है कि यदि प्राणी स्नेह से , द्वेष से या भय से भी जान – बूझ कर एकाग्र रूप से अपना मन किसी में लगा दे तो उसे उसी वस्तु का स्वरूप प्राप्त हो जाता है ।। 22
कीटः पेशस्कृतम ध्यायन कुड्यां तेन प्रवेशितः ।
याति तत्सात्मताम राजन पूर्व रूपम सन्त्यजन ।।23
राजन ! जैसे भृंगी एक कीड़े को ले जाकर दीवार पर अपने रहने की जगह बंद कर देता है और वह कीड़ा भय से उसी का चिंतन करते – करते अपने पहले शरीर का त्याग किये बिना ही उसी शरीर से तद्रूप हो जाता है ।
एवं गुरुभ्य एतेभ्य एषा मे शिक्षिता मतिः ।
स्वात्मोप शिक्षिताम बुद्धिम शृणु मे वद्तः प्रभो । 24
राजन ! इस प्रकार मैंने इतने गुरुओं से ये शिक्षाएं ग्रहण की । अब मैंने अपने शरीर से जो कुछ सीखा है , वह तुम्हे बताता हूँ , सावधान होकर सुनो ।। 24
देहो गुरुर्मम विरक्ति विवेक हेतुर्बिभृत
स्म सत्य निधनं सततार्त्युदर्कम
तत्वान्यनेन विमृशामि यथा तथापि
पारक्यमित्य वसितो विचराम्य संगः। 25
यह शरीर मेरा गुरु ही है ; क्योंकि यह मुझे विवेक और वैराग्य की शिक्षा देता है । मरना और जीना तो इसके साथ लगा ही रहता है । इस शरीर को पकड़ रखने का फल यह है कि दुःख पर दुःख भोगते जाओ । यद्यपि इस शरीर से तत्व विचार करने में सहायता मिलती है , तथापि मैं इसे अपना कभी नहीं समझता ; सर्वदा यही निश्चय रखता हूँ कि एक दिन इसे सियार – कुत्ते खा जायेंगे । इसीलिए मैं इससे असंग हो कर विचरता हूँ । 25
जायात्म जार्थपशु भृत्य गृहाप्त वर्गान
पुष्णाति यत्प्रियचिकीर्षुतया वितन्वन।
स्वान्ते सकृच्छ्रमवरुद्ध धनः स देहः
सृष्टवास्य बीजंवसीदति वृक्षधर्मा ।। 26
जीव जिस शरीर का प्रिय करने के लिए ही अनेकों प्रकार की कामनाएं और कर्म करता है तथा स्त्री – पुत्र , धन – दौलत , हाथी – घोड़े , नौकर – चाकर , घर – द्वार और भाई – बंधुओं का विस्तार करते हुए उनके पालन – पोषण में लगा रहता है । बड़ी – बड़ी कठिनाइयां सह कर धन संचय करता है । आयुष्य पूरी होने पर वही शरीर स्वयं तो नष्ट होता ही है , वृक्ष के समान दूसरे शरीर के लिए बीज बोकर उसके लिए भी दुःख की व्यवस्था कर जाता है ।। 26
जिह्वैकतो ऽमुमपकर्षति कर्हि तर्षा
शिश्नो ऽन्य तस्त्व गुदरं श्रवणम कुतश्चित ।
घ्राणो ऽन्य तश्चपल द्रिक क्व च कर्म शक्तिर्बह्वयः
सपत्न्य इव गेह पतिं लुनन्ति ।। 27
जैसे बहुत सी सौतें अपने एक पति को अपनी – अपनी ओर खींचती है , वैसे ही जीव को जीभ एक ओर स्वादिष्ट पदार्थों की तरफ खींचती है तो प्यास दूसरी ओर जल की तरफ ; जननेन्द्रिय एक ओर स्त्री संग की तरफ ले जाना चाहती है तो त्वचा , पेट और कान दूसरी ओर – कोमल स्पर्श , भोजन और मधुर शब्द की तरफ खींचने लगते हैं । नाक कहीं सुन्दर गंध सूंघने के लिए ले जाना चाहती है तो चंचल नेत्र कहीं दूसरी ओर सुन्दर रूप देखने के लिए । इस प्रकार कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ दोनों ही इसे सताती रहती हैं ।। 27
सृष्ट्वा पुराणि विविधान्य जया ऽऽत्म शक्त्या
वृक्षान सरीसृप पशून खग दंश मत्स्यान ।
तैस्तैर तुष्ट हृदयः पुरुषं विधाय
ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः ।। 28
वैसे तो भगवान ने अपनी अचिन्त्य शक्ति माया से वृक्ष , सरीसृप ( रेंगने वाले जंतु ) पशु , पक्षी और मछली अदि अनेकों प्रकार की योनियाँ रचीं ; परन्तु उनसे उन्हें संतोष न हुआ । तब उन्होंने मनुष्य शरीर की सृष्टि की । यह ऐसी बुद्धि से युक्त है जो ब्रह्म का साक्षात्कार कर सकती है । इसकी रचना करके वे बहुत आनंदित हुए ।। 28
लब्ध्वा सुदुर्लभ मिदं बहु सम्भवांते
मानुष्य मर्थदमनित्यंपीह धीरः।
तूर्णं यतेत न पतेदनुमृत्यु यावन्निःश्रेयसाय
विषयः खलु सर्वतः स्यात ।। 29
यद्यपि यह मनुष्यशरीर है तो अनित्य ही – मृत्यु सदा इसके पीछे लगी रहती है । परन्तु इससे परम पुरुषार्थ की प्राप्ति हो सकती है ; इसलिए अनेक जन्मों के बाद यह अत्यंत दुर्लभ मनुष्य शरीर पाकर बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि शीघ्र – से शीघ्र , मृत्यु के पहले ही मोक्ष प्राप्ति का प्रयत्न कर ले । इस जीवन का उद्देश्य मोक्ष ही है । विषय भोग तो सभी योनियों में प्राप्त हो सकते हैं , इसलिए उनके संग्रह में यह अमूल्य जीवन नहीं खोना चाहिए ।29
एवं संजात वैराग्यो विज्ञाना लोक आत्मनि ।
विचरामि महीमेतां मुक्त संगो अनहंकृतिः ।। 30
राजन ! यही सब सोच – विचारकर मुझे जगत से वैराग्य हो गया । मेरे ह्रदय में ज्ञान – विज्ञान की ज्योति जगमगाती रहती है । न तो कहीं मेरी आसक्ति है और न कहीं अहंकार ही । अब मैं स्वच्छंद रूप से इस पृथ्वी पर विचरण करता हूँ ।। 30
न ह्येकसमाद गुरोर्ज्ञानं सुस्थिरं स्यात सुपुष्कलम ।
ब्रह्मैतद द्वितीयं वै गीयते बहु धर्षिभिः ।। 31
राजन ! अकेले गुरु से ही यथेष्ट और सुदृढ़ बोध नहीं होता , उसके लिए अपनी बुद्धि से भी बहुत कुछ सोचने – समझने की आवश्यकता है । देखो ! ऋषियों ने एक ही अद्वितीय ब्रह्म का अनेकों प्रकार से गान किया है । ( यदि तुम स्वयं विचार कर निर्णय न करोगे तो ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप को कैसे जान सकोगे ?)31
श्री भगवानुवाच
इत्युक्त्वा सा यदुम विप्रस्त मामंत्र्य गभीरधीः ।
वंदितो ऽभ्यर्थितो राज्ञा ययौ प्रीतो यथागतं ।। 32
भगवान श्री कृष्ण ने कहा – प्यारे उद्धव ! गंभीर बुद्धि अवधूत दत्तात्रेय जी ने राजा यदु को इस प्रकार उपदेश दिया । यदु ने उनकी पूजा और वंदना की , दत्तात्रेय जी उनसे अनुमति लेकर बड़ी प्रसन्नता से इच्छानुसार पधार गए ।।32
अवधूत वचः श्रुत्वा पूर्वेषां नः स पूर्वजः ।
सर्व संग विनिर्मुक्तः सम चित्तो बभूव ह।।33
हमारे पूर्वजों के भी पूर्वज राजा यदु अवधूत दत्तात्रेय की यह बात सुन कर समस्त आसक्तियों से छुटकारा पा गए और समदर्शी हो गए । ( इसी प्रकार तुम्हें भी समस्त आसक्तियों का परित्याग करके समदर्शी हो जाना चाहिए )33
इति श्रीमदभागवते महापुराणे पारंहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे नवमोऽध्यायः ।। 9