uddhav gita

 

 

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अथ दशमोऽध्यायः

लौकिक तथा पारलौकिक भोगों की असारता का निरूपण

 

श्री भगवानुवाच

मयोदितेष्व वहितः स्व धर्मेषुह मदाश्रयः ।

वर्णाश्रम कुलाचार मक़ामात्मा समाचरेत ।। 1

 

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं – प्यारे उद्धव ! साधक को चाहिए कि सब तरह से मेरी शरण में रह कर, मेरे द्वारा उपदेशित अपने धर्मों का सावधानी से पालन करे । साथ ही जहाँ तक उनसे विरोध न हो वहां तक निष्काम भाव से अपने वर्ण , आश्रम और कुल के अनुसार सदाचार का भी अनुष्ठान करे।। 1

 

अन्वीक्षेत विशुद्धात्मा देहिनां विषयात्मनां ।

गुणेषु तत्त्व ध्यानेन सर्वारम्भ विपर्ययम ।। 2

 

निष्काम होने का उपाय ये है कि स्वधर्मों का पालन करने से शुद्ध हुए अपने चित्त में यह विचार करे कि जगत के विषयी प्राणी शब्द , स्पर्श , रूप आदि विषयों को सत्य समझ कर उनकी प्राप्ति के लिए जो प्रयत्न करते हैं , उसमें उनका उद्देश्य तो यह होता है कि सुख मिले, परन्तु मिलता है दुःख ।। 2

 

सुप्तस्य विषयालोको ध्यायतो व मनोरथः । 

नानात्म कत्वाद विफलस्तथा भेदात्म धीर्गुणैः।। 3

 

इसके सम्बन्ध में ऐसा विचार करना चाहिए कि स्वप्न – अवस्था में और मनोरथ करते समय जाग्रत – अवस्था में भी मनुष्य मन ही मन अनेकों प्रकार के विषयों का अनुभव करता है , परन्तु उसकी सारी कल्पना वस्तुशून्य होने के कारण व्यर्थ है । वैसे ही इन्द्रियों के द्वारा होने वाली भेद बुद्धि भी व्यर्थ ही है , क्योंकि यह भी इन्द्रियजनित और नाना वस्तु विषयक होने के कारण पूर्ववत असत्य ही हैं ।। 3

 

निवृत्तम कर्म सेवेत प्रवृत्तम मत परस्त्य जेत।

जिज्ञासायाम सम्प्रवृत्तो नाद्रि येत कर्मचोदनाम ।। 4

 

जो पुरुष मेरी शरण में हैं , उसे अन्तर्मुख करने वाले निष्काम या नित्यकर्म ही करने चाहिए । उन कर्मों का बिलकुल परित्याग कर देना चाहिए जो बहिर्मुख बनाने वाले या सकाम हों । जब आत्म ज्ञान की उत्कट इच्छा जाग उठे , तब तो कर्म सम्बन्धी विधि – विधानों का भी आदर नहीं करना चाहिए ।। 4

 

यमान भीक्ष्णं सेवेत नियमान मत्परः क्वचित ।

मद्भिज्ञं गुरुम शांत मुपासीत मदात्मकं।। 5

 

अहिंसा आदि यमों का तो आदरपूर्वक सेवन करना चाहिए , परन्तु शौच ( पवित्रता ) आदि नियमों का पालन शक्ति के अनुसार और आत्मज्ञान के विरोधी न होने पर ही करना चाहिए । जिज्ञासु पुरुष के लिए यम और नियमों के पालन से भी बढ़कर आवश्यक बात यह है कि वह अपने गुरु की, जो मेरे स्वरूप को जानने वाले और शांत हों मेरा ही स्वरूप समझ कर सेवा करे ।

 

अमान्य मत्सरो दक्षो निर्ममो दृढ सौहृदः ।

असत्वरो ऽर्थ जिज्ञासुर न सूयुर मोघवाक ।। 6

 

शिष्य को अभिमान नहीं करना चाहिए । वह कभी किसी से ईर्ष्या न करे – किसी का बुरा न सोचे । वह प्रत्येक कार्य में कुशल हो – उसे आलस्य छू न जाये । उसे कहीं भी ममता न हो , गुरु के चरणों में दृढ अनुराग हो । कोई काम हड़बड़ा कर न करे – उसे सावधानी से पूरा करे । सदा परमार्थ के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा बनाये रखे । किसी के गुणों में दोष न निकाले और व्यर्थ की बात न करे।

 

जाया पत्य गृह क्षेत्र स्वजन द्रविणादिषु

उदासीनः संयम पश्यन सर्वेष्वर्थ मिवात्मनः ।। 7

 

जिज्ञासु का परम धन है आत्मा ; इसलिए वह स्त्री – पुत्र , घर – खेत , स्वजन और धन आदि सम्पूर्ण पदार्थों में एक सम आत्मा को देखे  और किसी में कुछ विशेषता का आरोप करके उसमे ममता न करे , उदासीन रहे ।। 7

 

विलक्षणः स्थूल सूक्ष्माद देह्य दात्मेक्षिता स्वदृक

यथागनिर्दारुणो दाह्याद दाहको ऽन्यः प्रकाशकः ।। 8

 

उद्धव ! जैसे जलने वाली लकड़ी से उसे जलाने और प्रकाशित करने वाली आग सर्वथा अलग है । ठीक वैसे ही विचार करने पर जान पड़ता है कि पंचभूतों का बना स्थूल शरीर और मन – बुद्धि आदि सत्रह तत्वों का बना सूक्ष्म शरीर दोनों ही दृश्य और जड हैं। अतः उनको जानने और प्रकाशित करने वाला आत्मा साक्षी एवं स्वयं प्रकाश है । शरीर अनित्य , अनेक और जड है। आत्मा नित्य, एक और चेतन है । इस प्रकार देह की अपेक्षा आत्मा में महान विलक्षणता है। अतएव देह से आत्मा भिन्न है।।

 

निरोधोत्पत्यणु बृहन्नानात्वं तत्कृतान गुणान।

अन्तः प्रविष्ट आधत्त एवं देह गुणान परः ।। 9

 

जब आग लकड़ी में प्रज्ज्वलित होती है , तब लकड़ी के उत्पत्ति – विनाश , बड़ाई – छोटाई और अनेकता आदि सभी गुण वह स्वयं ग्रहण कर लेती है । परन्तु सच पूछो तो लकड़ी के उन गुणों से आग का कोई सम्बन्ध नहीं है । वैसे ही जब आत्मा अपने को शरीर मान लेता है तब वह देह के जड़ता , अनित्यता , स्थूलता , अनेकता आदि गुणों से सर्वथा रहित होने पर भी उनसे युक्त जान पड़ता है ।

 

योसौ गुणैर्विचितो देहोयं पुरुषस्य हि।

संसारस्तन्निबन्धोयं पुंसो विद्याच्छिदात्मनः ।।10

 

ईश्वर के द्वारा नियंत्रित माया के गुणों ने ही सूक्ष्म और स्थूल शरीर का निर्माण किया है । जीव को शरीर और शरीर को जीव समझ लेने के कारण ही स्थूल शरीर के जन्म – मरण और सूक्ष्म शरीर के आवागमन का आत्मा पर आरोप किया जाता है । जीव को जन्म – मृत्यु रूप संसार इसी भ्रम या अध्यास के कारण प्राप्त होता है । आत्मा के स्वरूप का ज्ञान होने पर उसकी जड़ कट जाती है । 10

 

तस्माज्जिज्ञासयात्मानमात्मास्थम केवलं परम ।

संगम्य निरसेदेतद्वस्तु बुद्धिम यथा क्रमम ।। 11

 

प्यारे उद्धव ! इस जन्म – मृत्यु रूप संसार का दूसरा कारण नहीं , केवल अज्ञान ही मूल कारण है । इसलिए अपने वास्तविक स्वरूप को , आत्मा को जानने की इच्छा करनी चाहिए । अपना यह वास्तविक स्वरूप समस्त प्रकृति और प्राकृत जगत से अतीत , द्वैत की गंध से रहित एवं अपने – आप में ही स्थित है । उसका और कोई आधार नहीं है । उसे जान कर धीरे – धीरे स्थूल शरीर , सूक्ष्म शरीर आदि में जो सत्यत्व बुद्धि हो रही है उसे क्रमशः मिटा देना चाहिए ।

 

आचार्योरणिराद्यः स्यादन्ते वासयुत्तरारणिः .

तत्संधानं प्रवचनं विद्या सन्धिः सुखावहः ।। 12

वैशारदी साति विशुद्ध बुद्धिर्धुनोति

मायाम गुण सम्प्रसूताम ।

गुणामश्च संदह्य यदात्म मेतत

स्वयं च शामयत्य समिद यथाग्निः ।। 13

 

(यज्ञ में जब अरणि मंथन करके अग्नि उत्पन्न करते हैं , तो उसमें नीचे-ऊपर दो लकड़ियां रहती हैं और बीच में मंथन काष्ठ रहता है ; वैसे ही) विद्या रूप अग्नि की उत्पत्ति के लिए आचार्य और शिष्य तो नीचे – ऊपर की अरणियां हैं तथा उपदेश मंथन काष्ठ हैं । इनसे जो ज्ञानाग्नि प्रज्वलित होती है वह विलक्षण सुख देने वाली है । इस यज्ञ में बुद्धिमान शिष्य सद्गुरु के द्वारा जो अत्यंत विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करता है , वह गुणों से बनी हुई विषयों की माया को भस्म कर देता है । तत्पश्चात वे गुण भी भस्म हो जाते हैं , जिनसे कि यह संसार बना हुआ है । इस प्रकार सबके भस्म हो जाने पर जब आत्मा के अतिरिक्त और कोई वस्तु शेष नहीं रह जाती , तब वह ज्ञानाग्नि भी ठीक वैसे ही अपने वास्तविक स्वरूप में शांत हो जाती है , जैसे समिधा न रहने पर आग बुझ जाती है । 11-12

 

अथैषां कर्म कर्तृणां भोक्तृणाम सुख दुःखयोः ।

नानात्वमथ नित्यत्वं लोक काला गमात्मनां ।। 14

मन्यसे सर्व भावानाम संस्था हयोतपत्तिकी यथा ।

तत्तदा कृति भेदेन जायते भिद्यते च धीः ।। 15

एव मप्यन्ग सर्वेषां देहिनां देहयोगतः ।

काला  वय वतः सन्ति भावा जन्मादयो सकृत । 16

अत्रापि कर्मणां कर्तुर स्वातन्त्र्यं च लक्ष्यते ।

भोक्तुश्च दुःख सुखयोः कोन्वर्थो विवशं भजेत ।। 17

 

प्यारे उद्धव ! यदि कदाचित तुम कर्मों के कर्ता और सुख दुःखों के भोक्ता जीवों को अनेक तथा जगत, काल , वेद और आत्माओं को नित्य मानते हो ; साथ ही समस्त पदार्थों की स्थिति प्रवाह से नित्य और यथार्थ स्वीकार करते हो तथा यह समझते हो कि घट – घट आदि वाह्य आकृतियों के भेद से उनके अनुसार ही ज्ञान उत्पन्न होता है और बदलता रहता है ; तो ऐसे मत के मानने से बड़ा अनर्थ हो जायेगा । ( क्योंकि इस प्रकार जगत के कर्ता आत्मा की नित्य सत्ता और जन्म – मृत्यु के चक्कर से मुक्ति भी सिद्ध न हो सकेगी ) यदि कदाचित ऐसा स्वीकार भी कर लिया जाए तो देह और संवत्सर आदि काल अवयवों के सम्बन्ध से होने वाली जीवों की जन्म – मरण आदि अवस्थाएं भी नित्य होने के कारण दूर न हो सकेंगी ; क्योंकि तुम देहादि पदार्थ और काल की नित्यता स्वीकार करते हो । इसके सिवा , यहाँ भी कर्मों का कर्ता तथा सुख – दुःख का भोक्ता जीव परतंत्र ही दिखाई देता है ; यदि वह स्वतन्त्र हो तो दुःख का फल क्यों भोगना चाहेगा ? इस प्रकार सुख – भोग की समस्या सुलझ जाने पर भी दुःख – भोग की समस्या तो उलझी ही रहेगी । अतः इस मत के अनुसार जीव को कभी मुक्ति या स्वतंत्रता प्राप्त न हो सकेगी । जब जीव स्वरूपतः परतंत्र है , विवश है , तब तो स्वार्थ या परमार्थ कोई भी उसका सेवन न करेगा , अर्थात वह स्वार्थ और परमार्थ दोनों से ही वंचित रह जायेगा । 14-17

 

न देहिनां सुखम किंचिद विद्यते विदुषामपि ।

तथा च दुःखं मूढानाम वृथा हंकरणम परम ।। 18

 

( यदि यह कहा जाये कि जो भली भाँति कर्म करना जानते हैं , वे सुखी रहते हैं , और जो नहीं जानते उन्हें दुःख भोगना पड़ता है तो यह कहना भी ठीक नहीं ; क्योंकि ) ऐसा देखा जाता है कि बड़े – बड़े कर्म कुशल विद्वानों को भी कुछ सुख नहीं मिलता और मूढ़ों का भी कभी दुःख से पाला नहीं पड़ता । इसलिए जो लोग अपनी बुद्धि या कर्म से सुख पाने का घमंड करते हैं , उनका वह अभिमान व्यर्थ है ।। 18

 

यदि प्राप्तिं विघातं च जानन्ति सुख दुःखयोः ।

तेपयद्धा न विदुर्योगं मृत्युर्न प्रभवेद यथा ।। 19

 

यदि यह स्वीकार कर लिया जाये कि वे लोग सुख की प्राप्ति और और दुःख के नाश का ठीक – ठीक उपाय जानते हैं , तो भी ये यह तो मानना ही पड़ेगा कि उन्हें भी ऐसे उपाय का पता नहीं है , जिस से मृत्यु उनके ऊपर कोई प्रभाव ना डाल सके और वे कभी मरें ही नहीं ।। 19

 

कोन्वर्थः सुखयत्येनम कामो वा मृत्यु रंतिके।

आघातम नीयमानस्य वध्यस्येव न तुष्टिदः।। 20

 

जब मृत्यु उनके सर पर नाच रही है तब ऐसी कौन सी भोग सामग्री या भोग कामना है जो उन्हें सुखी कर सके ? भला , जिस मनुष्य को फांसी पर लटकाने के लिए वध स्थान पर ले जाया जा रहा हो  , उसे क्या फूल – चन्दन – स्त्री आदि पदार्थ संतुष्ट कर सकते हैं ? कदापि नहीं । ( अतः पूर्वोक्त मत मानने वालों की दृष्टि से न सुख ही सिद्ध होगा और न जीव का कुछ पुरुषार्थ ही रहेगा ) 20

 

श्रुतं च दृष्टवद दुष्टं स्पर्धा सूयात्य व्ययैः।

बह्वन्तराय कामत्वात कृषिवच्चापि निष्फलं ।। 21

 

प्यारे उद्धव ! लौकिक सुख के समान पारलौकिक सुख भी दोषयुक्त ही है ; क्योंकि वहां भी बराबरी वालों से होड़ चलती है , अधिक सुख भोगने वालों के प्रति ईर्ष्या होती है । उनके गुणों में दोष निकला जाता है और छोटों से घृणा होती है । प्रतिदिन पुण्य क्षीण होने के साथ ही वहां के सुख भी क्षय के निकट पहुँचते रहते हैं और एक दिन नष्ट हो जाते हैं । वहां की कामना पूर्ण होने में भी यजमान , ऋत्विज और कर्म आदि की त्रुटियों के कारण बड़े – बड़े विघ्नों की सम्भावना रहती है । जैसे हरी – भरी खेती भी अतिवृष्टि – अनावृष्टि अर्थात अधिक वर्षा – सूखा पड़ने आदि के कारण नष्ट हो जाती है , वैसे ही स्वर्ग भी प्राप्त होते – होते विघ्नों के कारण नहीं मिल पाता ।

 

अंत रायैर विहतो यदि धर्मः स्व नुष्ठितः ।

तेनापि निर्जितं स्थानं यथा गच्छति तच्छृणु ।। 22

 

यदि यज्ञ – यागादि धर्म बिना किसी विघ्न के पूरा हो जाये तो उसके द्वारा जो स्वर्गादि लोक मिलते हैं , उनकी प्राप्ति का प्रकार मैं बतलाता हूँ , सुनो ।। 22

 

इष्ट वेह देवता यज्ञैः स्वर्लोकम याति याज्ञिकः।

भुंजीत देव वत्तत्र भोगान दिव्यान निजार्जितान ।। 23

 

यज्ञ करने वाला पुरुष यज्ञों के द्वारा देवताओं की आराधना करके स्वर्ग जाता है और वहां अपने पुण्य कर्मों के द्वारा उपार्जित दिव्य भोगों को देवताओं के समान भोगता है ।। 23

 

स्वपुण्यो पचिते शुभ्रे विमान उपजीयते

गंधवै विहरन मध्ये देवीनां हृद्य वेष धृक।। 24

 

उसे उसके पुण्यों के अनुसार एक चमकीला विमान मिलता है और वह उस पर सवार होकर सुर – सुंदरियों के साथ विहार करता है । गन्धर्व गण उसके गुणों का गान करते हैं और उसके रूप – लावण्य को देख कर दूसरों का मन लुभा जाता है ।। 24

 

स्वीभिः कामगयानेन किंकिणि जाल मालिना ।

क्रीडन न वेदात्म पातं सुरा क्रीडेषु निर्वृत्तः ।। 25

 

उसका विमान वह जहाँ ले जाना चाहता है , वहीं चला जाता है और उसकी घंटियाँ घनघनाकर दिशाओं को गुंजारित करती हैं वह अप्सराओं के साथ नंदन वन में आदि में देवताओं की विहार – स्थलियों में क्रीड़ाएं करते – करते इतना बेसुध हो जाता है कि उसे इस बात का पता ही नहीं चलता कि अब मेरे पुण्य समाप्त हो जायेंगे और मैं यहाँ से धकेल दिया जाऊंगा ।। 25

 

तावत प्रमोदते स्वर्गे यावत् पुण्यं समाप्यते ।

क्षीण पुण्यः पतत्यर्वागनिच्छन काल चलितः।। 26

 

जब तक उसके पुण्य शेष रहते हैं , तब तक वह स्वर्ग में चैन की वंशी बजाता रहता है ; परन्तु पुण्य क्षीण होते ही इच्छा न रहने पर भी उसे नीचे गिरना पड़ता है , क्योंकि काल की चाल ही ऐसी है ।

 

यद्यधर्मरतः संगादसतां वाजितेन्द्रियः ।

कामात्मा कृपणो लुब्धः स्त्रैणो भूत विहिंसकः ।। 27

पशूना विधिनालभ्य प्रेत भूत गणान यजन

नरकान वशो जन्तुर्गत्वा यात्युल्बणम । 28

 

यदि कोई मनुष्य दुष्टों की संगति में पड़कर अधर्म परायण हो जाये , अपनी इन्द्रियों के वश में हो कर मनमानी करने लगे , लोभवश दाने – दाने में कृपणता करने लगे , लम्पट हो जाये या प्राणियों और विधि – विरुद्ध पशुओं की बलि देकर भूत और प्रेत की उपासना में लग जाये , तब तो वह पशुओं से भी गया – बीता हो जाता है और अवश्य ही नरक में जाता है । उसे अंत में घोर अन्धकार , स्वार्थ और परमार्थ से रहित अज्ञान में भटकना पड़ता है ।। 27-28

 

कर्माणि दुःखो दर्काणि कुर्वन देहेन तैः पुनः ।

देहमाभजते तत्र किं सुखं मर्त्य धर्मिणः ।। 29

 

जितने भी सकाम और बहिर्मुख करने वाले कर्म हैं , उनका फल दुःख ही है । जो जीव शरीर में अहंता – ममता करके उन्हीं में लग जाता है , उसे बार-बार जन्म पर जन्म और मृत्यु पर मृत्यु प्राप्त होती रहती है । ऐसी स्थिति में मृत्युधर्मा जीव को क्या सुख हो सकता है ?

 

लोकानां लोक पालानाम मद्भयं कल्प जीविनाम ।

ब्रह्मणोपि भयं मत्तो द्विपरार्ध परायुषः ।। 30

 

सारे लोक और लोकपालों की आयु भी केवल एक कल्प है , इसलिए मुझसे भयभीत रहते हैं । औरों की तो बात ही क्या , स्वयं ब्रह्मा भी मुझसे भयभीत रहते हैं , क्योंकि उनकी आयु भी काल से सीमित – केवल दो परार्द्ध है ।। 30

 

गुणाः सृजन्ति कर्माणि गुणोनुसृजते गुणान।

जीवस्तु गुणसंयुक्तो भुङ्क्ते कर्म फलान्यसौ ।। 31

 

सत्व , रज और तम – ये तीनों गुण इन्द्रियों को उनके कर्मों में प्रेरित करते हैं और इन्द्रियां कर्म करती हैं । जीव अज्ञानवश सत्व , रज आदि गुणों और इन्द्रियों को अपना स्वरूप मान बैठता है और उनके किये हुए कर्मों का फल सुख – दुःख भोगने लगता है ।। 31

 

यावत् स्याद गुण वैषम्यं तावन्नानात्वमात्मनः ।

नानात्वमात्मनो यावत् पारतन्त्र्यं तदैव हि ।। 32

 

जब तक गुणों की विषमता है अर्थात शरीरादि में मैं और मेरेपन का अभिमान है , तभी तक आत्मा के एकत्व की अनुभूति नहीं होती – वह अनेक जान पड़ता है ; और जब तक आत्मा की अनेकता है , तब तक तो उन्हें काल या कर्म किसी के अधीन तो रहना ही पड़ेगा ।। 32

 

यावदास्यास्वतंत्रत्वं तावदीश्वरतो भयं ।

य येतत समुपासीरंस्ते मुह्यन्ति शुचार्पिताः।। 33

 

जब तक परतंत्रता है , तब तक ईश्वर से भय बना ही रहता है । जो मैं और मेरेपन के भाव से ग्रस्त रह कर आत्मा की अनेकता , परतंत्रता आदि मानते हैं और वैराग्य न ग्रहण कर के बहिर्मुख करने वाले कर्मों का ही सेवन करते रहते हैं , उन्हें शोक और मोह की प्राप्ति होती है ।। 33

 

काल आत्मागमो लोकः स्वभावो धर्म एव च ।

इति मां बहुधा प्राहुर्गुणव्यतिकरे सति।। 34

 

प्यारे उद्धव ! जब माया के गुणों में क्षोभ होता है , तब मुझ आत्मा को ही काल , जीव , वेद , लोक , स्वभाव और धर्म आदि अनेक नामों से निरूपण करने लगते हैं । ( ये सब मायामय हैं। वास्तविक सत्य मैं आत्मा ही हूँ । )

 

उद्धव उवाच

गुणेषु वर्तमानो पि देह जेष्वन पावृतः ।

गुणैर्न बद्ध्य्ते देही बद्ध्य्ते व कथं विभो ।। 35

 

उद्धव जी ने पूछा – भगवन ! यह जीव देह आदि रूप गुणों में ही रह रहा है। फिर देह से होने वाले कर्मों या सुख – दुःख आदि रूप फलों में क्यों नहीं बँधता है? अथवा यह आत्मा गुणों से निर्लिप्त है , देह आदि के संपर्क से सर्वथा रहित है , फिर इसे बंधन की प्राप्ति कैसे होती है ? 35

 

कथं वर्तेत विहरेत कैर्वा ज्ञायेत लक्षणैः ।

किं भुंजी तोत विसृजेच्छयीतासीत याति वा।। 36

 

उद्धव जी पूछते हैं – बद्ध या मुक्त पुरुष कैसा बर्ताव करता है , वह कैसे विहार करता है या वह किन लक्षणों से पहचाना जाता है , कैसे भोजन करता है ? और मल – त्याग आदि कैसे करता है ? कैसे सोता है , कैसे बैठता है और कैसे चलता है ? 36

 

एतदच्युत में ब्रूहि प्रश्नं प्रश्नविदां वर ।

नित्यमुक्तो नित्यबद्ध एक एवेति में भ्रमः ।। 37

 

हे अच्युत ! प्रश्न का मर्म जानने वालों में आप श्रेष्ठ हैं । इसलिए आप मेरे इस प्रश्न का उत्तर दीजिये । एक ही आत्मा अनादि गुणों के संसर्ग से नित्यबद्ध भी मालूम पड़ता है और असंग होने के कारण नित्यमुक्त भी । इस बात को लेकर मुझे भ्रम हो रहा है ।

 

इति श्रीमदभागवते महापुराणे पारंहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे भगवदुद्धवसंवादे दशमोअध्यायः ।

 

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