uddhav gita

 

 

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अथैकोनत्रिंशोऽध्यायः

भागवत धर्मों का निरूपण और उद्धव जी का बद्रिकाश्रम गमन

उद्धव उवाच

सुदुश्चरामिमां मन्ये योगचर्यामनात्मनः।

यथांजसा पुमान सिद्ध्येत तन्मे ब्रूह्यंजसाच्युत।। 1

उद्धव जी ने कहा – अच्युत ! जो अपना मन वश में नहीं कर सका है , उसके लिए आपकी बतलाई हुई इस योगसाधना को तो मैं बहुत ही कठिन समझता हूँ । अतः अब आप कोई ऐसा सरल और सुगम साधन बतलाइये , जिस से मनुष्य अनायास ही परम पद प्राप्त कर सके ।। 1

 

प्रायशः पुण्डरीकाक्ष युंजन्तो योगिनो मनः ।

विषीदन्त्य समाधानान्मनो निग्रह कर्शिताः।। 2

कमलनयन ! आप जानते ही हैं कि अधिकाँश योगी जब अपने मन को एकाग्र करने लगते हैं , तब वे बार – बार चेष्टा करने पर भी सफल न होने के कारण हार मान लेते हैं और वश में न कर पाने के कारण दुःखी हो जाते हैं ।। 2

 

अथात आनंददुघम पदांबुजं 

हंसाः श्रयेरन्नरविन्दलोचन ।

सुखं न विश्वेश्वर योग कर्मभिस्त्वन्माय

यामी विहता न मानिनः।।3

पद्म लोचन ! आप विश्वेश्वर है । आपके ही द्वारा सरे संसार का नियमन होता है । इसी से सारासार – विचार में चतुर मनुष्य आपके आनंद वर्षी चरणकमलों की शरण लेते हैं और अनायास ही सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं । आपकी माया उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती ; क्योंकि उन्हें योग साधन और कर्मानुष्ठान का अभिमान नहीं होता । परन्तु जो आपके चरणों का आश्रय नहीं लेते , वे योगी और कर्मी अपने साधन के घमंड से फूल जाते हैं ; अवश्य ही आपकी माया ने उनकी मति हर ली है ।।

 

किं चित्रमच्युत तवैतदशेषबंधो

दासेष्वनन्यशरणेषु यदात्मसात्त्वम ।

योऽरोचयत सह मृगैः स्वय मीष्वराणाम

श्रीमत्किरीटतटपीडितपादपीठः ।। 4

प्रभो ! आप सबके हितैषी सुहृद हैं । आप अपने अनन्य शरणागत बलि आदि सेवकों के अधीन हो जाएँ , यह आपके लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है ; क्योंकि आपने रामावतार ग्रहण कर के प्रेमवश वानरों से भी मित्रता का निर्वाह किया था । यद्यपि ब्रह्मा आदि लोकेश्वरगण भी अपने दिव्य किरीटों को आपके चरणकमल रखने की चौकी पर रगड़ते रहते हैं ।। 4

 

तं त्वाखिलात्मदयितेश्वरमाश्रितानां

सर्वार्थदं स्वकृतविद विसृजेत को नु।

को वा भजेत किमपि विस्मृतयेऽनु भूत्यै

किं वा भवेन्न तव पादरजो जुषां नः।। 5

प्रभो ! आप सबके प्रियतम , स्वामी और आत्मा हैं । आप अपने अनन्य शरणागतों को सब कुछ दे देते हैं । आपने बलि – प्रह्लाद आदि अपने भक्तों को जो कुछ दिया है , उसे जान कर ऐसा कौन पुस्रुष होगा जो आपको छोड़ देगा ? यह बात किसी प्रकार बुद्धि में ही नहीं आती कि भला कोई विचारवान विस्मृति के गर्त में डालने वाले तुच्छ विषयों में फंसा रखने वाले भोगों को क्यों चाहेगा ? हम लोग आपके चरण कमलों की रज के उपासक हैं । हमारे लिए दुर्लभ ही क्या है ? 5

 

नैवोपयन्त्यपचितिं कव्यस्तवेश

ब्रह्मायुषापि कृतमृद्धमुदः स्मरन्तः ।

योऽन्तर्बहिस्तनुभृतामशुभं विधुन्वन्ना

चार्यचैत्यवपुषा स्वगतिं व्यनक्ति ।। 6

भगवन ! आप समस्त प्राणियों के अन्तः – करण में अंतर्यामी रूप से और बाहर गुरु रूप से स्थित हो कर उनके सारे पाप – ताप मिटा देते हैं और अपने वास्तविक स्वरूप को उनके प्रति प्रकट कर देते हैं । बड़े – बड़े ब्रह्म ज्ञानी ब्रह्मा जी के समान लम्बी आयु पाकर भी आपके उपकारों का बदला नहीं चुका सकते । इसी से वे आपके उपकारों का स्मरण कर के क्षण – क्षण अधिकाधिक आनद का अनुभव करते रहते हैं ।। 6

 

श्री शुक उवाच

इत्युद्धवेनात्यनुरक्तचेतसा 

पृष्टो जगत्क्रीडनकः स्वशक्तिभिः ।

गृहीतमूर्तित्रय ईश्वरेश्वरो

जगाद सप्रेम मनोहरस्मितः ।। 7

श्री शुकदेव जी कहते हैं – परीक्षित ! भगवान् श्री कृष्ण ब्रह्मादि ईश्वरों के भी ईश्वर हैं । वे ही सत्त्व – रज आदि गुणों के द्वारा ब्रह्मा , विष्णु और रूद्र का रूप धारण कर के जगत की उत्पत्ति – स्थिति आदि के खेल खेला करते हैं । जब उद्धव जी ने अनुराग भरे चित्त से उनसे यह प्रश्न किया, तब उन्होंने मंद – मंद मुस्कुरा कर बड़े प्रेम से कहना प्रारम्भ किया ।। 7

 

श्री भगवानुवाच

हन्त ते कथयिष्यामि मम धर्मान सुमंगलान ।

यान्छ्रद्धयाऽऽचरन मर्त्यो मृत्युं जयति दुर्जयम।। 8

श्री भगवान् ने कहा – प्रिय उद्धव ! अब मैं तुम्हें अपने उन मंगलमय भागवत धर्मों का उपदेश करता हूँ , जिनका श्रद्धा पूर्वक आचरण कर के मनुष्य संसार रूप दुर्जय मृत्यु को अनायास ही जीत लेता है ।। 8

 

कुर्यात सर्वाणि कर्माणि मदर्थं शनकैः स्मरन।

मय्यर्पितमनश्चित्तो मादधर्मात्म मनोरतिः।। 9

उद्धव जी ! मेरे भक्त को चाहिए कि अपने सारे कर्म मेरे लिए ही करे और धीरे – धीरे उनको करते समय मेरे स्मरण का अभ्यास बढ़ाये । कुछ ही दिनों में उसके मन और आत्मा मेरे ही धर्मों में रम जायेंगे ।। 9

 

देशान पुण्यानाश्रयेत मद्भक्तैः साधुभिः श्रितान।

देवासुरमनुष्येषु मद्भक्ताचरितानि च ।। 10

मेरे भक्त साधु जन जिन पवित्र स्थानों में निवास करते हों , उन्हीं में रहे और देवता , असुर अथवा मनुष्यों में जो मेरे अनन्य भक्त हों , उनके आचरणों का अनुसरण करे ।। 10

 

पृथक सत्रेण वा मह्यं पर्वयात्रामहोत्सवान।

कारयेद गीत नृत्याद्यैर्महाराजविभूतिभिः ।। 11

पर्व के अवसरों पर सबके साथ मिलकर अथवा अकेला ही नृत्य , गान , वाद्य आदि महाराजोचित ठाट – बाट से मेरी यात्रा आदि के महोत्सव करे ।। 11

 

मामेव सर्वभूतेषु बहिरन्तरपावृतं ।

ईक्षेतात्मनि चात्मानं यथा खममलाशयः ।। 12

शुद्धान्तः करण पुरुष आकाश के समान बाहर और भीतर परिपूर्ण एवं आवरण शून्य मुझ परमात्मा को ही समस्त प्राणियों और अपने ह्रदय में स्थित देखे ।। 12

 

इति सर्वाणि भूतानि मद्भावेन महाद्युते।

सभाजयन मन्यमानो ज्ञानं केवलमाश्रितः।। 13

ब्राह्मणे पुल्कसे स्तेने ब्रह्मण्येऽर्के स्फुलिंगके ।

अक्रूरे क्रूरके चैव समदृक पंडितो मतः ।। 14

निर्मल बुद्धि उद्धव जी ! जो साधक केवल इस ज्ञान – दृष्टि का आश्रय लेकर सम्पूर्ण प्राणियों और पदार्थों में मेरा दर्शन करता है और उन्हें मेरा ही रूप मान कर सत्कार करता है तथा ब्राह्मण और चांडाल , चोर और ब्राह्मण भक्त , सूर्य और चिंगारी तथा कृपालु और क्रूर में समान दृष्टि रखता है , उसे ही सच्चा ज्ञानी समझना चाहिए ।। 13-14

 

नरेष्वभीक्ष्णं मद्भावं पुंसो भावयतोऽचिरात ।

स्पर्धासूयातिरस्काराः साहंकारा वियन्ति हि।। 15

जब निरंतर सभी नर – नारियों में मेरी ही भावना की जाती है , तब थोड़े ही दिनों में साधक के चित्त से स्पर्धा , ईर्ष्या , तिरस्कार और अहंकार आदि दोष दूर हो जाते हैं ।। 15

 

विसृज्य स्मयमानान स्वान दृशं व्रीडां च दैहिकीम ।

प्रणमेद दंडवद भूमावाश्चवचांडालगोखरं।। 16

अपने ही लोग यदि हंसी करें तो करने दे , उनकी परवाह न करे ; ‘ मैं अच्छा हूँ , वह बुरा है ‘ ऐसी देह दृष्टि को लोक – लज्जा को छोड़ दे और कुत्ते , चांडाल , गौ एवं गधे को भी पृथ्वी पर गिरकर साष्टांग दंडवत प्रणाम करे ।। 16

 

यावत् सर्वेषु भूतेषु मद्भावो नोपजायते ।

तावदेवमुपासीत वांङ्मनःकायवृत्तिभिः ।। 17

जब तक समस्त प्राणियों में मेरी भावना – भगवद्भावना न होने लगे , तब तक इस प्रकार से मन , वाणी और शरीर के सभी संकल्पों और कर्मों द्वारा मेरी उपासना करता रहे ।। 17

 

सर्वं ब्रह्मात्मकं तस्य विद्ययात्ममनीषया ।

परिपश्यन्नुपरमेत सर्वतो मुक्त संशयः ।। 18

उद्धव जी ! जब इस प्रकार सर्वत्र आत्म बुद्धि – ब्रह्म बुद्धि का अभ्यास किया जाता है , तब थोड़े ही दिनों में उसे ज्ञान होकर सब कुछ  ब्रह्म स्वरूप दिखने लगता है । ऐसी दृष्टि हो जाने पर संशय – संदेह अपने – आप निवृत्त हो जाते हैं और वह सब कहीं मेरा साक्षात्कार कर के संसार दृष्टि से उपराम हो जाता है ।।18

 

अयं हि सर्वकल्पानां सध्रीचीनो मतों मम ।

मद्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्कायवृत्तिभिः ।। 19

मेरी प्राप्ति के जितने साधन हैं , उनमें मैं तो सबसे श्रेष्ठ साधन यही समझता हूँ कि समस्त प्राणियों और पदार्थों में मन , वाणी और शरीर की समस्त वृत्तियों से मेरी ही भावना की जाये ।। 19

 

ह्यंगोपक्रमे ध्वंसो मद्धर्मस्योद्ध वाण्वपि।

मया व्यवसितः सम्यङ्निर्गुणत्वादनाशिषः ।। 20

उद्धव जी ! यही मेरा अपना भागवत धर्म है ; इसको एक बार आरम्भ कर देने के बाद फिर किसी प्रकार की विघ्न – बाधा से इसमें रत्ती भर भी अंतर नहीं पड़ता ; क्योंकि यह धर्म निष्काम है और स्वयं मैंने ही इसे निर्गुण होने के कारण सर्वोत्तम निश्चय किया है ।। 20

 

यो यो मयि परे धर्मः कल्प्यते निष्फलाय चेत ।

तदायासो निरर्थः स्याद भयादेरिव सत्तम ।। 21

भागवत धर्म में किसी प्रकार की त्रुटि पड़नी तो दूर रही – यदि इस धर्म का साधक भय – शोक आदि के अवसर पर होने वाली भावना और रोने – पीटने , भागने जैसा निरर्थक कर्मबी निष्काम भाव से मुझे समर्पित कर दे तो वे भी मेरी प्रसन्नता के कारण धर्म बन जाते हैं ।। 21

 

एषा बुद्धिमतां बुद्धिर्मनीषा च मनीषिणाम ।

यत सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृताम ।। 22

विवेकियों के विवेक और चतुरों की चतुराई की पराकाष्ठा इसी में है कि वे इस विनाशी और असत्य शरीर के द्वारा मुझ अविनाशी एवं सत्य तत्व को प्राप्त कर ले । 22

 

एष तेभिहितः कृत्स्नो ब्रह्मवादस्य संङ्ग्रहः।

समासव्यासविधिना देवानामपि दुर्गमः।। 23

उद्धव जी ! यह सम्पूर्ण ब्रह्म विद्या का रहस्य मैंने तुम्हे सुना दिया । इस रहस्य को समझना मनुष्यो की तो कौन कहे , देवताओं के लिए भी अत्यंत कठिन है ।। 23

 

अभीक्ष्णशस्ते गदितं ज्ञानं विस्पष्टयुक्तिमत।

एतद विज्ञाय मुच्येत पुरुषो नष्टसंशयः  ।।24

मैंने जिस सुस्पष्ट और युक्तियुक्त ज्ञान का वर्णन बार – बार किया है , उसके मर्म को जो समझ लेता है , उसके ह्रदय की संशय – ग्रंथियां छिन्न – भिन्न हो जाती हैं और वह मुक्त हो जाता है ।

 

सुविविक्तं तव प्रशानं मयैत दपि धारयेत।
सनातनं ब्रह्मगुह्यं परं ब्रह्माधिगच्छति ।। 25

मैंने तुम्हारे प्रश्न का भली भांति खुलासा कर दिया  ; जो पुरुष हमारे प्रश्नोत्तर को विचारपूर्वक धारण करेगा , वह वेदों के भी परम रहस्य सनातन परब्रह्म को प्राप्त कर लेगा ।। 25

 

य येतन्मम भक्तेषु सम्प्रदद्यात सुपुष्कलम ।

तस्याहं ब्रह्म दायस्य ददाम्यात्मन मात्मना ।। 26

जो पुरुष मेरे भक्तों को इसे भली भांति स्पष्ट कर के समझायेगा , उस ज्ञान दाता को मैं प्रसन्न मन से अपना स्वरूप दे डालूँगा , उसे आत्म ज्ञान करा दूंगा ।। 26

 

य एतत समधीयीत पवित्रं परमं शुचि ।

स पूयेताहरहर्मां ज्ञानदीपेन दर्शयेन ।। 27

उद्धव जी ! यह तुम्हारा और मेरा संवाद स्वयं तो परम पवित्र है ही , दूसरों को भी पवित्र करने वाला है । जो प्रतिदिन इसका पाठ करेगा और दूसरों को सुनाएगा , वह इस ज्ञान दीप के द्वारा दूसरों को मेरा दर्शन कराने के कारण पवित्र हो जायेगा ।। 27

 

य एतच्छ्रद्धया नित्यमव्यग्रः श्रणु यान्नरः।

मयि भक्तिं परां कुर्वन कर्मभिर्न स बध्यते ।। 28

जो कोई एकाग्र चित्त से इसे श्रद्धा पूर्वक नित्य सुनेगा , उसे मेरी पराभक्ति प्राप्त होगी और वह कर्म बंधन से मुक्त हो जायेगा ।। 28

 

अपयुद्धव त्वया ब्रह्म सखे समवधारितम ।

अपि ते विगतो मोहः शोकश्चासौ मनोभवः।। 29

प्रिये सखे ! तुमने भली भांति ब्रह्म का स्वरूप समझ लिया न ? और तुम्हारे चित्त का मोह एवं शोक तो दूर हो गया न ? 29

 

नैतत्त्वया दाम्भिकाय नास्तिकाय शठाय च ।

अशुश्रुषोरभक्ताय दुर्विनीताय दीयतां।। 30

तुम इसे दाम्भिक , नास्तिक , शठ , अश्रद्धालु , भक्ति हीन और उद्धत पुरुष को कभी मत देना ।। 30

 

एतैर्दोषैर्विहीनाय ब्रह्मण्याय प्रियाय च ।

साधवे शुचये ब्रूयाद भक्तिः स्याच्छूद्रयोषितां ।। 31

जो इन दोषों से रहित हो , ब्राह्मण भक्त हो , प्रेमी हो , साधु स्वभाव हो और जिसका चरित्र पवित्र हो , उसी को यह प्रसंग सुनना चाहिए । यदि शूद्र और स्त्री भी मेरे प्रति प्रेम – भक्ति रखते हों तो उन्हें भी इसका उपदेश करना चाहिए ।। 31

 

नैतद विज्ञाय जिज्ञासोर्ज्ञातव्यमवशिष्यते ।

पीत्वा पीयूषममृतं पातव्यं नावशिष्यते ।। 32

जैसे दिव्य अमृतपान कर लेने पर कुछ भी पीना शेष नहीं रह जाता , वैसे ही यह जान लेने पर जिज्ञासु के लिए और कुछ भी जानना शेष नहीं रहता ।।

 

ज्ञान कर्मणि योगे च वार्तायां दण्डधारणे ।

यावानार्थो नृणाम तात तावांस्तेऽहं चतुर्विधः ।।33

प्यारे उद्धव ! मनुष्यों को ज्ञान, कर्म , योग , वाणिज्य और राज दण्डादि से क्रमशः मोक्ष , धर्म , काम और अर्थ रूप फल प्राप्त होते हैं ; परन्तु तुम्हारे जैसे अनन्य भक्तों के लिए वह चारों प्रकार का फल केवल मैं ही हूँ ।। 33

 

मर्त्यो यदा त्यक्त समस्तकर्मा।

निवेदितात्मा विचिकीर्षितो मे।

तदा मृतत्वं प्रतिपद्यमानो  ।

मयाऽऽत्मभूयाय च कल्पते वै।।34

जिस समय मनुष्य समस्त कर्मों का परित्याग कर के मुझे आत्म समर्पण कर देता है , उस समय वह मेरा विशेष माननीय हो जाता है और मैं उसे जीवत्व से छुड़ाकर अमृतस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति करा देता हूँ और वह मुझसे मिलकर मेरा स्वरूप हो जाता है ।। 34

 

श्री शुक उवाच

स एवमादर्शितयोगमार्गस्त

दोत्तमश्चलोकवचो निशम्य

बद्धांजलिः प्रीत्युपरुद्धकंठो

न किंचिदूचेऽश्रुपरिप्लुताक्षः ।। 35

श्री शुकदेव जी कहते हैं – परीक्षित ! अब उद्धव जी योगमार्ग का पूरा – पूरा उपदेश प्राप्त कर चुके थे । भगवान् श्री कृष्ण की बात सुन कर उनकी आँखों में आंसू उमड़ आये । प्रेम की बाढ़ से गला रुंध गया , चुपचाप हाथ जोड़े रह गए और वाणी से कुछ बोला न गया ।। 35

 

विष्टभ्य चित्तं प्रणया वघूर्णं

धैर्येण राजन बहु मन्यमानः ।

कृतांजलिः प्राह यदु प्रवीरं

शीर्ष्णा स्पृशंस्तच्चरणारविन्दम।। 36

उनका चित्त प्रेमवश से विह्वल हो रहा था , उन्होंने धैर्य पूर्वक उसे रोका अपने को अत्यंत सौभाग्यशाली अनुभव करते हुए सिर से यदुवंश शिरोमणि भगवान् श्री कृष्ण के चरणों को स्पर्श किया तथा हाथ जोड़कर उनसे यह प्रार्थना की ।।

 

उद्धव उवाच

विद्रावितो मोहमहान्धकारो

य आश्रितो मे तव सन्निधानात ।

विभावसोः किं नु समीपगस्य

शीतं तमो भीः प्रभवन्त्यजाद्य।। 37

उद्धव जी ने कहा – प्रभो ! आप माया और ब्रह्मा आदि के भी मूल कारण हैं । मैं मोह के महान अन्धकार में भटक रहा था । आपके सत्संग से वह सदा के लिए भाग गया । भला , जो अग्नि के पास पहुँच गया उसके सामने क्या शीत , अंधकार और उसके कारण होने वाला भय ठहर सकते हैं ?

 

प्रत्यर्पितो मे भवतानुकम्पिना

भृत्याय विज्ञानमयः प्रदीपः ।

हित्वा कृतज्ञस्तव पादमूलं

कोऽन्यत समीयाच्छरणं त्वदीयं ।। 38

भगवन ! आपकी मोहिनी माया ने मेरा ज्ञान दीपक छीन लिया था , परन्तु आपने कृपा कर के वह फिर अपने सेवक को लौटा दिया । आपने मेरे ऊपर महान अनुग्रह की वर्षा की है । ऐसा कौन होगा , जो आपके इस कृपा – प्रसाद का अनुभव करके भी आपके चरणकमलों की शरण छोड़ दे और किसी दूसरे का सहारा ले ?

 

वृक्ण्श्च मे सुदृढः स्नेहपाशो

दाशार्हवृष्ण्यन्धकसात्वेषु

प्रसारितः सृष्टिविवृद्धये त्वया

स्वमायया ह्यात्मसुबोधहेतिना।। 39

आपने अपनी माया से सृष्टि वृद्धि के लिए दाशार्ह , वृष्णि , अंधक और सात्वत वंशी यादवों के साथ मुझे सुदृढ़ स्नेह – पाश से बाँध दिया था । आज आपने आत्म बोध की तीखी तलवार से उस बंधन को अनायास ही काट डाला ।। 39

 

नमोऽस्तु ते महायोगिन प्रपन्नमनुशाधि माम।

यथा त्वच्चरणाम्भोजे रतिः स्यादनपायिनी ।। 40

महायोगेश्वर ! मेरा आपको नमस्कार है । अब आप कृपा कर के मुझ शरणागत को ऐसी आज्ञा दीजिये , जिससे आपके चरण कमलों में मेरी अनन्य भक्ति बनी रहे ।। 40

 

श्री भगवानुवाच

गच्छोद्धव मयाऽऽदिष्टो बदर्याख्यं ममाश्रमं ।

तत्र मत्पादतीर्थोदे स्नानोपस्पर्शनैः शुचिः ।। 41

भगवान् श्री कृष्ण ने कहा – उद्धव जी ! अब तुम मेरी आज्ञा से बदरीवन में चले जाओ । वह मेरा ही आश्रम है । वहां मेरे चरण कमलों के धोवन गंगा – जल का स्नान पान के द्वारा सेवन करके तुम पवित्र हो जाओगे।

 

ईक्षयालकनन्दाया विधूताशेषकल्मषः।

वस्सानो वल्कलान्यंग वन्यभुक सुखनिः स्पृहः ।। 42

अलकनंदा के दर्शन मात्रा से तुम्हारे सारे पाप – ताप नष्ट हो जाएंगे । प्रिय उद्धव ! तुम वहां वृक्षों की छाल पहनना, वन के कंद – मूल – फल खाना और किसी भोग की अपेक्षा न रख कर निःस्पृह वृत्ति से अपने – आप मे मस्त रहना।। 42

 

तितिक्षुर्द्वन्द्वमात्राणां सुशीलः संयतेन्द्रियः ।

शान्तः समाहितधिया ज्ञानविज्ञानसंयुतः ।। 43

सर्दी – गर्मी , सुख – दुःख – जो कुछ आ पड़े , उसे सम रहकर सहना । स्वभाव सौम्य रखना , इन्द्रियों को वश में रखना । चित्त शांत रहे । बुद्धि समाहित रहे और तुम स्वयं मेरे स्वरूप के ज्ञान और अनुभव में डूबे रहना ।। 43

 

मत्तोनुशिक्षितम यत्ते विविक्तमनुभावयन।

मय्यावेशितवाक्चित्तो मद्धर्मनिरतो भव।

अतिव्रज्य गतीस्तिस्रो मामेष्यसि ततः परम ।। 44

मैंने तुम्हे जो कुछ शिक्षा दी है , उसका एकांत में विचारपूर्वक अनुभव करते रहना । अपनी वाणी और चित्त मुझमें ही लगाए रहना और मेरे बतलाये हुए भागवत धर्म मे प्रेम से राम जाना। अंत में तुम त्रिगुण और उनसे सम्बन्ध रखने वाली गतियों को पार कर के उनसे परे मेरे परमार्थ स्वरूप में मिल जाओगे ।। 44

 

श्री शुक उवाच

स एवमुक्तो हरिमेधसोद्धवः

प्रदिक्षणं तं परिसृत्य पादयोः ।

शिरो निधायाश्रुकलाभिरार्द्रधीर्न्य

षिंचदद्वंद्वपरोप्यपक्रमे ।। 45

श्री शुक देव जी कहते हैं – परीक्षित ! भगवान् श्री कृष्ण स्वरूप का ज्ञान संसार के भेद भ्रम को छिन्न – भिन्न कर देता है । जब उन्होंने स्वयं उद्धव जी को ऐसा उपदेश दिया तो उन्होंने उनकी परिक्रमा की और उनके चरणों पर सिर रख दिया । इसमें संदेह नहीं की उद्धव जी संयोग – वियोग से होने वाले सुख – दुःख के जोड़े से परे थे , क्योकि वे भगवन के निर्द्वन्द्व चरणों की शरण ले चुके थे ; फिर भी वहां से चलते समय उनका चित्त प्रेमावेश से भर गया । उन्होंने अपने नेत्रों की झरती हुई अश्रु धारा से भगवान् के चरण कमलों को भिगो दिया ।।45

 

सुदुस्यजस्नेहवियोगकातरो

न शक्नुवंस्तम परिहातुमातुरः।

कृच्छ्रं ययौ मूर्धनि भर्तृपादुके

बिभ्रिन्नमस्कृत्य ययौ पुनः – पुनः ।। 46

परीक्षित ! भगवान् के प्रति प्रेम करके उसका त्याग करना संभव नहीं है । उन्हीं के वियोग की कल्पना से उद्धव जी कातर हो गए , उनका त्याग करने में समर्थ न हुए । बार – बार विह्वल होकर मूर्च्छित होने लगे । कुछ समय बाद उन्होंने भगवान् श्री कृष्ण  के चरणों की पादुकाएं अपने सिर पर रख लीं और बार – बार भगवान् के चरणों में प्रणाम कर के वहां से प्रस्थान किया ।। 46

 

ततस्तमन्तर्हृदि संनिवेश्य

गतो महाभागवतो विशालाम ।

यथोपदिष्टां जगदेकबन्धुना

तपः समास्थाय हरेरगाद गतिम् ।। 47

भगवान के परम प्रेमी भक्त उद्धव जी ह्रदय में उनकी दिव्य छवि धारण किये बद्रिकाश्रम पहुंचे और वहां उन्होंने तपोमय जीवन व्यतीत करके जगत के एकमात्र हितैषी भगवान् श्री कृष्ण के उपदेशानुसार उनकी स्वरूप परम गति प्राप्त की ।। 47

 

एतदा नन्द समुद्र सम्भृतं

ज्ञानामृतं भागवताय भाषितम ।

कृष्णेन योगेश्वरसेविताङ्घ्रिणा

सच्छ्रद्धयासेव्य जगद विमुच्यते ।। 48

भगवान शंकर आदि योगेश्वर भी सच्चिदानंद स्वरूप भगवान् श्री कृष्ण के चरणों की सेवा किया करते हैं । उन्होंने स्वयं श्री मुख से अपने परम प्रेमी भक्त उद्धव के लिए इस ज्ञानामृत का वितरण किया । यह ज्ञानामृत आनंद महासागर का सार है । जो श्रद्धा के साथ इसका सेवन करता है , वह तो मुक्त हो ही जाता है , उसके संग से सारा जगत मुक्त हो जाता है ।। 48

 

भवभयमपहन्तुं ज्ञानविज्ञानसारं

निगमकृदुपजह्रे भृंगवद वेदसारं।

अमृतमुदधितश्चापाययद भृत्यवर्गान

पुरुषमृशभमाद्यम कृष्णसंज्ञं नतोस्मि।। 49

परीक्षित ! जैसे भौंरा विभिन्न पुष्पों से उनका सार – सार मधु संग्रह कर लेता है , वैसे ही स्वयं वेदों को प्रकाशित करने वाले भगवान श्री कृष्ण ने भक्तों को संसार से मुक्त करने के लिए यह ज्ञान और विज्ञान का सार निकाला है । उन्हीं ने जरा – रोगादि भय की निवृत्ति के लिए क्षीर – समुद्र से अमृत भी निकाला था तथा इन्हें क्रमशः अपने निवृत्ति मार्गी और प्रवृत्ति मार्गी भक्तों को पिलाया , वे ही पुरुषोत्तम भगवान् श्री कृष्ण सारे जगत के मूल कारण हैं । मैं उनके चरणों को नमस्कार करता हूँ ।। 49

 

इति श्रीमदभागवते महापुराणे पारंहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे एकोनत्रिंशोध्यायः ।। 29

 

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