अथ सप्तविंशोऽध्यायः
क्रिया योग का वर्णन
उद्धव उवाच
क्रियायोगं समाचक्ष्व भवदाराधनं प्रभो ।
यस्मात्त्वां ये यथार्चंति सात्वताः सात्वतर्षभ ।। 1
उद्धव जी ने पूछा – भक्तवत्सल श्री कृष्ण ! जिस क्रिया योग का आश्रय लेकर जो भक्तजन जिस प्रकार से जिस उद्देश्य से आपकी अर्चा – पूजा करते हैं , आप अपने उस आराधन रूप क्रिया योग का वर्णन कीजिये ।1
एतद वदन्ति मुनयो मुहर्निः श्रेयसं नृणां ।
नारदो भगवान व्यास आचार्यो अंगिरसः सुतः ।। 2
देवर्षि नारद , भगवान् व्यासदेव और आचार्य वृहस्पति आदि बड़े – बड़े ऋषि – मुनि यह बात बार – बार कहते हैं कि क्रिया योग के द्वारा आपकी आराधना ही मनुष्यों के परम कल्याण की साधना है ।।2
निःसृतं ते मुखाम्भोजाद यदाह भगवानजः।
पुत्रेभ्यो भृगु मुख्येभ्यो देव्यै च भगवान् भवः ।। 3
यह क्रिया योग पहले – पहल आपके मुखारविंद से ही निकला था । आपसे ही ग्रहण करके इसे ब्रह्मा जी ने अपने पुत्र भृगु आदि महर्षियों को और भगवान शंकर ने अपनी अर्द्धांगिनी भगवती पार्वती जी को उपदेश किया था ।। 3
एतद वै सर्व वर्णानामा श्रमाणाम च सम्मतं ।
श्रेय सामुत्तमं मन्ये स्त्री शूद्राणां च मानद ।। 4
मर्यादारक्षक प्रभो ! यह क्रियायोग ब्राह्मण – क्षत्रिय आदि वर्णों और ब्रह्मचारी – गृहस्थ आदि वर्णों और ब्रह्मचारी – गृहस्थ आदि आश्रमों के लिए भी परम कल्याणकारी है । मैं तो ऐसा समझता हूँ कि स्त्री – शूद्रादि के लिए भी यही सबसे श्रेष्ठ साधना – पद्धति है ।। 4
एतत कमलपत्राक्ष कर्मबन्धन विमोचनं ।
भक्ताय चानुरक्ताय ब्रूहि विश्वेश्वरेश्वर ।। 5
कमलनयन श्यामसुंदर ! आप शंकर आदि जगदीश्वरों के भी ईश्वर हैं और मैं आपके चरणों का प्रेमी भक्त हूँ । आप कृपा करके मुझे यह कर्म बंधन से मुक्त करने वाली विधि बतलाइये ।। 5
श्री भगवानुवाच
न ह्यन्तोऽनंतपारस्य कर्मकाण्डस्य चोद्धव ।
संक्षिप्तं वर्णयिष्यामि यथावदनुपूर्वशः ।। 6
भगवान श्री कृष्ण ने कहा – उद्धव जी ! कर्म काण्ड का इतना विस्तार है कि उसकी कोई सीमा नहीं है ; इसलिए मैं उसे थोड़े में ही पूर्वापर – क्रम से विधि पूर्वक वर्णन करता हूँ । । 6
वैदिकस्तान्त्रिको मिश्र इति में त्रिविधो मखः।
त्रयाणामीप्सितेनैव विधिना मां समर्चयेत ।। 7
मेरी पूजा की तीन विधियां हैं – वैदिक , तांत्रिक और मिश्रित । इन तीनों में से मेरे भक्त को जो भी अपने अनुकूल जान पड़े , उसी विधि से मेरी आराधना करनी चाहिए ।।। 7
यदा स्वनिगमेनोक्तं द्विजत्वं प्राप्य पूरुषः ।
यथा यजेत मां भक्त्या श्रद्धया तान्निबोध मे।। 8
पहले अपने अधिकारानुसार शास्त्रोक्त विधि से समय पर यज्ञोपवीत – संस्कार द्वारा संस्कृत होकर द्विजत्व प्राप्त करे , फिर श्रद्धा और भक्ति के साथ वह किस प्रकार मेरी पूजा करे , इसकी विधि तुम मुझसे सुनो ।। 8
आचार्यां स्थण्डिलेऽग्नौ वा सूर्ये वाप्सु हृदि द्विजे ।
द्रव्येण भक्तियुक्तोऽर्चेत स्वगुरुं मां मायया ।। 9
भक्तिपूर्वक निष्कपट भाव से अपने पिता एवं गुरु रूप मुझ परमात्मा का पूजा की सामग्रियों के द्वारा मूर्ति में , वेदी में , अग्नि में , सूर्य में , जल में , ह्रदय में अथवा ब्राह्मण में – चाहे किसी में भी आराधना करे । 9
पूर्वं स्नानं प्रकुर्वीत धौतदन्तोअंगशुद्धये ।
उभयैरपि च स्नानं मन्त्रैर्मृद ग्रहणादिना ।। 10
उपासक को चाहिए कि प्रातः काल दतुअन करके पहले शहरीर शुद्धि के लिए स्नान करे और फिर वैदिक और तांत्रिक दोनों प्रकार के मन्त्रों से मिट्टी और भस्म आदि का लेप करके पुनः स्नान करे ।। 10
संध्योपास्त्यादिकर्माणि वेदेनाचोदितानी मे ।
पूजां तैः कल्पयेत सम्यक संकल्पः कर्मपावनीम ।। 11
इसके पश्चात वेदोक्त संध्या – वन्दनादि नित्यकर्म करने चाहिए । उसके बाद मेरी आराधना का ही दृढ संकल्प करके वैदिक और तांत्रिक विधियों से कर्मबन्धनों से छुड़ाने वाली मेरी पूजा करे ।।
शैली दारुमयी लौही लेप्या लेख्य च सैकती ।
मनोमयी मणिमयी प्रतिमाष्टविधा स्मृता ।। 12
मेरी मूर्ति आठ प्रकार की होती है – पत्थर की , लकड़ी की , धातु की , मिट्टी और चन्दन आदि की , चित्रमयी , बालुकामयी, मनोमयी और मणिमयी ।। 12
चलाचलेति द्विविधा प्रतिष्ठा जीवमन्दिरम।
उद्वासावाहने न स्तः स्थिरायामुद्धवार्चने।। 13
चल और अचल भेद से दो प्रकार की प्रतिमा ही मुझ भगवान् का मंदिर है । उद्धव जी ! अचल प्रतिमा के पूजन में प्रतिदिन आवाहन और विसर्जन नहीं करना चाहिए ।। 13
अस्थिरायां विकल्पः स्यात स्थण्डिले तु भवेद द्वयं ।
स्नपनं त्व विलेप्यायामन्यत्र परिमार्जनम ।। 14
चल प्रतिमा के सम्बन्ध में विकल्प है । चाहे करे और चाहे न करे । परन्तु बालुकामयी प्रतिमा में तो आवाहन और विसर्जन प्रतिदिन करना ही चाहिए । मिट्टी और चन्दन की तथा चित्रमयी प्रतिमाओं को स्नान न करावे , केवल मार्जन करा दे ; परन्तु और सबको स्नान कराना चाहिए ।। 14
द्रव्यैः प्रसिद्धैर्मद्यागः प्रतिमादिष्वमायिनः
भक्तस्य च यथालब्धैर्हृदि भावेद चैव हि।। 15
प्रसिद्द – प्रसिद्द पदार्थों से प्रतिमा आदि में मेरी पूजा की जाती है , परन्तु जो निष्काम भक्त है , वह अनायास प्राप्त पदार्थों से और भावनामात्र से ही ह्रदय में मेरी पूजा कर ले ।।15
स्नानालंकरणम प्रेष्ठमर्चायामेव तूद्धव ।
स्थण्डिले तत्त्वविन्यासो वह्नावाज्यप्लुतं हविः ।। 16
उद्धव जी ! स्नान , वस्त्र , आभूषण आदि तो पाषाण अथवा धातु की प्रतिमा में ही उपयोगी है । बालुकामयी मूर्ति अथवा मिट्टी की वेदी में पूजा करनी हो तो उसमें मन्त्रों के द्वारा अंग और उसके प्रधान देवताओं की यथास्थान पूजा करनी चाहिए । तथा अग्नि में पूजा करनी हो तो घृतमिश्रित हवं – सामग्रियों से आहुति देनी चाहिए ।। 16
सूर्ये चाभ्यर्हणं प्रेष्ठं सलिले सलिलादिभिः।
श्रद्धयोपाहृतं प्रेष्ठं भक्तेन मम वार्यपि ।।17
सूर्य को प्रतीक मान कर की जाने वाली उपासना में मुख्यतः अर्घ्यदान और उपस्थान ही प्रिय और जल में तर्पण आदि से मेरी उपासना करनी चाहिए। जब मुझे कोई भक्त हार्दिक श्रद्धा से जल भी चढ़ाता है , तब मैं उसे बड़े प्रेम से स्वीकार करता हूँ ।। 17
भूर्यप्यभक्तोपहृतं न मे तोषाय कल्पते ।
गन्धो धूपः सुमनसो दीपोऽन्नाद्यं च किम पुनः ।। 18
यदि कोई अभक्त मुझे बहुत सी सामग्री निवेदन करे तो भी मैं उस से संतुष्ट नहीं होता , जब मैं भक्ति – श्रद्धा पूर्वक समर्पित जल से प्रसन्न हो जाता हूँ , तब गंध , पुष्प , धुप और नैवेद्य आदि वस्तुओं के समर्पण से तो कहना ही क्या है ।। 18
शुचिः सम्भृत सम्भारः प्राग्दर्भैः कल्पितासनः ।
आसीनः प्रागुदग वार्चेदर्चायामथ सम्मुखः।। 19
उपासक पहले पूजा की सामग्री इकट्ठी कर ले । फिर इस प्रकार कुश बिछाये कि उनके अगले भाग पूर्व की ओर रहें। तदनन्तर पूर्व या उत्तर की ओर मुँह कर के पवित्रता से उन कुशों के आसन पर बैठ जाये । यदि प्रतिमा अचल हो तो उसके सामने ही बैठना चाहिए । इसके बाद पूजकार्य प्रारम्भ करे ।। 19
कृतन्यासः कृतन्यासां मदर्चां पाणिना मृजेत।
कलशं प्रोक्षणीयं च यथावदुपसाधयेत ।। 20
पहले विधिपूर्वक अंगन्यास और करन्यास कर ले । इसके बाद मूर्ति में मन्त्रन्यास कर लें और हाथ से प्रतिमा पर से पूर्व समर्पित सामग्री हटा कर उसे पोंछ दें। इसके बाद जल से भरे हुए कलश और प्रोक्षण पात्र आदि की पूजा गंध – पुष्प आदि से करे ।। 21
तदद्भिरदेवयजनं द्रव्याण्यात्मान मेव च ।
प्रोक्ष्य पात्राणि त्रीण्यद्भिस्तैस्तैर्द्रव्यैश्च साधयेत।। 21
पाद्यार्घ्या चमनीयार्थं त्रीणि पात्राणि दैशिकः ।
हृदा शीषर्णात शिखया गायत्र्या चाभिमन्त्रयेत ।। 22
प्रोक्षणपात्र के जल से पूजा सामग्री और अपने शरीर का प्रोक्षण कर ले । तदनन्तर पाद्य , अर्घ्य और आचमन के लिए तीन पात्रों में कलश में से जल भर कर रख ले और उन में पूजा – पद्धति के अनुसार सामग्री डाले । ( पाद्य पात्र में श्यामाक – साँवे के दाने , दूब, कमल , विष्णु क्रान्ता और चन्दन , तुलसीदल आदि ; अर्घ्य पात्र में गंध , पुष्प , अक्षत , जौ , कुश , तिल , सरसों और दूब तथा आचमन पात्र में जायफल , लौंग आदि डाले । ) इसके बाद पूजा करने वाले को चाहिए की तीनों पात्रों को क्रमशः ह्रदय मंत्र , शिरोमन्त्र और शिखा मंत्र से अभिमंत्रित करके अंत में गायत्री मंत्र से तीनों को अभिमंत्रित करे ।। 21-22
पिण्डे वाय्वग्निसंशुद्धे हृत्पद्मस्थां परां मम ।
अण्वीं जीवकलां ध्यायेन्नादांते सिद्धभाविताम।। 23
इसके बाद प्राणायाम के द्वारा प्राण – वायु और भावनाओं के द्वारा शरीरस्थ अग्नि के शुद्ध हो जाने पर ह्रदय कमल में परम सूक्ष्म और श्रेष्ठ दीपशिखा के समान मेरी जीव कला का ध्यान करे । बड़े – बड़े सिद्ध ऋषि – मुनि ॐकार के अकार , उकार , मकार , बिंदु और नाद – इन पांच कलाओं के अंत में उसी जीव – कला का ध्यान करते हैं ।। 23
तयाऽऽत्मभूतया पिण्डे व्याप्ते सम्पूज्य तन्मयः।
आवाह्यार्चादिषु स्थाप्य न्यस्तांगं मां प्रपूजयेत।। 24
वह जीवकला आत्म – स्वरूपिणी है । जब उसके तेज से सारा अन्तः करण और शरीर भर जाये तब मानसिक उपचारों से मन – ही – मन उसकी पूजा करनी चाहिए । तदनन्तर तन्मय होकर मेरा आवाहन करे और प्रतिमा आदि में स्थापना करे । फिर मन्त्रों के द्वारा अंगन्यास करके उसमें मेरी पूजा करे ।। 24
पाद्योपस्पर्शार्हणादीनुपचारान प्रकल्प्येत ।
धर्मादिभिश्च नवभिः कल्पयित्वाऽऽसनं मम ।। 25
पद्म मष्टदलं तत्र कर्णिकाकेसरोज्ज्वलं ।
उभाभ्यां वेदतन्त्राभ्यां मह्यं तूभयसिद्धये ।। 26
उद्धव जी ! मेरे आसन में धर्म आदि गुणों और विमला आदि शक्तियों की भावना करे । अर्थात आसन के चारों कोनों में धर्म , ज्ञान , वैराग्य और ऐश्वर्य रूप चार पाये हैं ; अधर्म , अज्ञान , अवैराग्य और अनैश्वर्य – ये चार चारों दिशाओं में डंडे हैं ; सत्त्व – रज – तम – रूप तीन पटरियों की बनी हुई पीठ है ; उस पर विमला , उत्कर्षिणि , ज्ञाना, क्रिया , योगा , प्रह्वी , सत्या, ईशाना और अनुग्रहा – ये नौ शक्तियां विराजमान हैं । उस आसान पर एक अष्ट दल कमल है , उसकी कर्णिका अत्यंत प्रकाशमान है और पीली – पीली केसरों की छटा निराली ही है । आसान के सम्बन्ध में ऐसी भावना करके पाद्य , आचमनीय और अर्घ्य आदि उपचार प्रस्तुत करे । तदनन्तर भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिए वैदिक और तांत्रिक विधि से मेरी पूजा करे ।। 25- 26
सुदर्शनं पाञ्चजन्यं गदासीषु धनुर्हलान।
मुसलं कौस्तुभं मालां श्रीवत्सं चानुपूजयेत ।। 27
सुदर्शन चक्र , पाञ्चजन्य शंख , कौमोदकी गदा , खडग , बाण , धनुष , हल , मूसल – इन आठ आयुधों की पूजा आठ दिशाओं में करे और कौस्तुभमणि , वैजयंती माला तथा श्रीवत्स चिह्न की वाटस्थल पर यथास्थान पूजा करे । 27
नन्दं सुनन्दं गरुडं प्रचण्डं चण्डमेव च ।
महाबलं बलं चैव कुमुदं कुमुदेक्षणम।। 28
दुर्गां विनायकं व्यासं विष्वक्सेनं गुरून सुरान।
स्वे स्वे स्थान त्वभिमुखान पूजयेत प्रोक्षणादिभिः ।। 29
नन्द , सुनन्द , प्रचंड ,चण्ड, महाबल , बल , कुमुद और कुमुदेक्षण- इन आठ पार्षदों की आठ दिशाओं में ; गरुण की सामने ; दुर्गा , विनायक , व्यास और विष्वक्सेन की चारों कोनों में स्थापना करके पूजन करे । बायीं ओर गुरु की और यथाक्रम पूर्वादि दिशाओं में इन्द्रादि आठ लोकपालों की स्थापना करके प्रोक्षण , अर्घ्यदान आदि क्रम से उनकी पूजा करनी चाहिए ।। 28-29
चन्दनोशीरकर्पूरकुंकुमागुरुवासितैः ।
सलिलैः स्नाप्येन्मन्त्रैर्नित्यदा विभवे सति।।30
स्वर्णघर्मानुवाकेन महापुरुष विद्यया ।
पौरुषेणापि सूक्तेन सामभी राजनादिभिः ।। 31
प्रिय उद्धव ! यदि सामर्थ्य हो तो प्रतिदिन चन्दन , खास , कपूर , केसर और अरगजा आदि सुगन्धित वस्तुओं द्वारा सुवासित जल से मुझे स्नान कराये और उस समय ‘ सुवर्ण घर्म ‘ इत्यादि स्वर्ण घर्मानुवाक, ‘ जितं ते पुण्डरीकाक्ष’ इत्यादि महापुरुष विद्या , ‘ सहस्रशीर्षा पुरुषः ‘ इत्यादि पुरुष सूक्त और ‘ इन्द्रं नरो नेमधिता हवंत ‘ इत्यादि मन्त्रोक्त राजनादि साम – गायन का पाठ भी करता रहे ।। 30-31
वस्त्रोपवीताभरणपत्रस्रग्गन्धलेपनैः ।
अलंकुर्वीत सप्रेम मद्भक्तो मां यथोचितम ।। 32
मेरा भक्त वस्त्र , यज्ञोपवीत , आभूषण , पत्र , माला , गंध और चंदनादि से प्रेमपूर्वक यथावत मेरा श्रृंगार करे ।। 32
पाद्यमाचमनीयं च गन्धं सुमनसोऽक्षतान।
धूपदीपोपहार्याणि दद्यान्मे श्रद्धयार्चकः ।। 33
उपासक श्रद्धा के साथ मुझे पाद्य , आचमन , चन्दन , पुष्प , अक्षत , धूप , दीप आदि सामग्रियां समर्पित करे ।। 34
गुडपायससर्पींषि शष्कुल्यापूपमोदकान ।
संयावदधिसूपांश्च नैवेद्यं सति कल्पयेत ।। 34
यदि हो सके तो गुड़ , खीर , घृत , पूड़ी , पुए , लड्डू , हलुआ , दही और दाल आदि विविध व्यंजनों का नैवेद्य लगावे ।। 34
अभ्यंगोन्मर्दनादर्शदन्तधावाभिषेचनम।
अन्नाद्यगीतनृत्यादि पर्वणि स्यु रुतान्वहम।।35
भगवान् के विग्रह को दतुअन कराये , उबटन लगाए , पंचामृत आदि से स्नान कराये , सुगन्धित पदार्थों का लेप करे , दर्पण दिखाए , भोग लगाए और शक्ति हो तो प्रतिदिन अथवा पर्वों के अवसर पर नाचने – गाने आदि का भी प्रबंध करे ।।35
विधिना विहिते कुण्डे मेखला गर्तवेदिभिः।
अग्निमाधाय परितः समूहेत पाणिनोदितं।। 36
उद्धव जी ! तदनन्तर पूजा के बाद शास्त्रोक्त विधि से बने हुए कुंड में अग्नि की स्थापना करे । वह कुंड मेखला , गर्त और वेदी से शोभायमान हो । उसमें हाथ की हवा से अग्नि प्रज्ज्वलित करके उसका परिसमूहन करे , अर्थात उसे एकत्र कर दे ।। 36
परिस्तीर्याथ पर्युक्षे दन्वाधाय यथाविधि ।
प्रोक्षण्याऽऽसाद्य द्रव्याणि प्रोक्ष्याग्नौ भावयेत मां ।। 37
वेदी के चारों ओर कुशकुण्डिका कर के अर्थात चारों ओर बीस – बीस कुश बिछाकर मंत्र पढता हुआ उन पर जल छिड़के । इसके बाद विधिपूर्वक समिधाओं का आधान रूप अन्वाधान कर्म कर के अग्नि के उत्तर भाग भाग में होमोपयोगी सामग्री रखे और प्रोक्षणी पात्र के जल से प्रोक्षण करे । तदनन्तर अग्नि में मेरा इस प्रकार ध्यान करे ।। 37
तप्तजाम्बूनदप्रख्यं शंखचक्रगदाम्बुजैः ।
लसच्चतुर्भुजं शान्तं पद्मकिंजल्कवाससम।। 38
‘ मेरी मूर्ति तपाये हुए सोने के समान दम – दम दमक रही है । रोम – रोम से शांति की वर्षा हो रही है । लम्बी और विशाल चार भुजाएं शोभायमान हैं । उनमें शंख , चक्र , गदा , पद्म , विराजमान हैं । कमल की केसर के समान पीला – पीला वस्त्र फहरा रहा है ।। 38
स्फुरत्किरीटकटककटिसूत्रवरांगदम ।
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभं वनमालिनं।।39
सिर पर मुकुट , कलाइयों में कंगन , कमर में करघनी और बाहों में बाजूबंद लहरा रहे हैं । वक्षः स्थल पर श्री वत्स का चिह्न है । गले में कौस्तुभ मणि जगमगा रही है । घुटनों तक वनमाला लटक रही है ।।39
ध्यायन्नभ्यर्च्य दारुणि हविषाभिघृतनि च ।
प्रास्याज्यभागावाघारौ दत्त्वा चाज्यप्लुतं हविः ।। 40
अग्नि में मेरी इस मूर्ति का ध्यान कर के पूजा करनी चाहिए । इसके बाद सूखी समिधाओं को घृत में डुबोकर आहुति दे और आज्य भाग और आघार नामक दो – दो आहुतियों से और भी हवन करे । तदनन्तर घी से भिगो कर अन्य हवन – सामग्रियों से आहुति दे ।। 40
जुहुयान्मूलमन्त्रेण षोड़शर्चावदानतः ।
धर्मादिभ्यो यथान्यायं मन्त्रैः स्विष्टकृतं बुधः ।।41
इसके बाद अपने इष्ट मंत्र से अथवा ‘ ॐ नमो नारायणाय ‘ इस अष्टाक्षर मंत्र से तथा पुरुष सूक्त के सोलह मन्त्रों से हवन करे । बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि धर्मादि देवताओं के लिए भी विधिपूर्वक मन्त्रों से हवन करे और स्विष्टकृत आहुति भी दे ।। 41
अभ्यर्च्याथ नमस्कृत्य पार्षदेभ्यो बलिं हरेत।
मूलमन्त्रं जपेद ब्रह्म स्मरन्नारायणात्मकं।। 42
इस प्रकार अग्नि में अंतर्यामी रूप से स्थित भगवान् की पूजा कर के उन्हें नमस्कार करे और नन्द – सुनन्द आदि पार्षदों की आठों दिशाओं में हवन कर्मांग बलि दे । तदनन्तर प्रतिमा के सम्मुख बैठ कर परब्रह्मस्वरूप भगवान् नारायण का स्मरण करे और भगवत्स्वरूप मूल म्नत्र ‘ ॐ नमो नारायणाय ‘ का जप करे ।। 42
दत्त्वाऽऽचमनमुच्छेषं विष्वक्सेनाय कल्पयेत ।
मुखवासं सुरभिमत ताम्बूलाद्य माथार्हयेत ।। 43
इसके बाद भगवन को आचमन करावे और उनका प्रसाद विष्वक्सेन को निवेदन करे । इसके पश्चात अपने इष्ट देव की सेवा में सुगन्धित ताम्बूल आदि मुखवास उपस्थित करे तथा पुष्पांजलि समर्पित करे । 43
उपगायन गृणन नृत्येन कर्माण्यभिनयन मम ।
मत्कथाः श्रावयच्छृण्वन मुहूर्तं क्षणिको भवेत् ।। 44
मेरी लीलाओं को गावे , उनका वर्णन करे और मेरी ही लीलाओं का अभिनय करे । यह सब करते समय प्रेमोन्मत्त होकर नाचने लगे लगे । मेरी लीला – कथाएं स्वयं सुने और दूसरों को सुनावे । कुछ समय तक संसार और उसके रगड़ों – झगड़ों को भूल कर मुझमें ही तन्मय हो जाये ।। 44
स्तवैरुच्चावचैः स्तोत्रैः पौराणैः प्राकृतैरपि।
स्तुत्वा प्रसीद भगवन्निति वन्देत दंडवत।।45
प्राचीन ऋषियों के द्वारा अथवा प्राकृत भक्तों के द्वारा बनाये हुए छोटे – बड़े स्तव और स्तोत्रों से मेरी स्तुति कर के प्रार्थना करे – ‘ भगवन ! आप मुझ पर प्रसन्न हों। मुझे अपने कृपा प्रसाद से सराबोर कर दें । ‘ तदनन्तर दंडवत प्रणाम करे ।। 45
शिरो मत्पादयोः कृत्वा बाहुभ्यां च परस्परं ।
प्रपन्नं पाहि मामीश भीतं मृत्युगृहार्णवात।। 46
अपना सिर मेरे चरणों पर रख दे और अपने दोनों हाथों से – दाएं से दाहिना और बाएं से बायां चरण पकड़ कर कहे – ‘ भगवन ! इस संसार – सागर में मैं डूब रहा हूँ । मृत्यु रूप मगर मेरा पीछा कर रहा है । मैं डर कर आपकी शरण में आया हूँ । प्रभो ! आप मेरी रक्षा कीजिये ’46
इति शेषां मया दत्तां शिरस्याधाय सादरम।
उद्वासयेच्चेदुद्वास्यं ज्योतिर्ज्योतिषि तत प्रभुः ।।47
इस प्रकार स्तुति करके मुझे समर्पित की हुई माला आदर के साथ अपने सिर पर रखे और उसे मेरा दिया हुआ प्रसाद समझे । यदि विसर्जन करना हो ऐसी भावना करनी चाहिए की प्रतिमा में से एक दिव्य ज्योति निकली है और वह मेरी हृदयस्थ ज्योति में लीन हो गयी है । बस , यही विसर्जन है ।। 47
अर्चादिषु यदा यत्र श्रद्धा मां तत्र चार्चयेत ।
सर्व भूतेष्वात्मनि च सर्वात्माहमवस्थितः।। 48
उद्धव जी ! प्रतिमा आदि में जब जहाँ श्रद्धा हो तब , तहाँ मेरी पूजा करनी चाहिये , क्योंकि मैं सर्वात्मा हूँ और समस्त प्राणियों में तथा अपने ह्रदय में भी स्थित हूँ ।। 48
एवं क्रियायोगपथैः पुमान वैदिकतान्त्रिकैः ।
अर्चन्नुभयतः सिद्धिं मत्तो विन्दत्यभीप्सिताम ।। 49
उद्धव जी ! जो मनुष्य इस प्रकार वैदिक , तांत्रिक क्रियायोग के द्वारा मेरी पूजा करता है वह इस लोक और परलोक में मुझसे अभीष्ट सिद्धि प्राप्त करता है ।। 49
मदर्चाम सम्प्रतिष्ठाप्य मंदिरम कारयेद दृढम ।
पुष्पोद्यानानि रम्याणि पूजा यात्रोत्सवाश्रितान।।50
यदि शक्ति हो तो उपासक सुन्दर और सुदृढ़ मंदिर बनवाये और उसमें मेरी प्रतिमा स्थापित करे । सुन्दर – सुन्दर फूलों के बगीचे लगाव दे ; नित्य की पूजा , पर्व की यात्रा और बड़े – बड़े उत्सवों की व्यवस्था कर दे ।
पूजादीनां प्रवाहार्थं महापर्वस्वस्थान्वहम ।
क्षेत्रापणपुरग्रामान दत्त्वा मत्सार्ष्टितामियात ।।51
जो मनुष्य पर्वों के उत्सव और प्रतिदिन की पूजा लगातार चलने के लिए खेत , बाज़ार , नगर अथवा गाँव मेरे नाम पर समर्पित कर देते हैं , उन्हें मेरे समान ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है ।। 51
प्रतिष्ठया सार्वभौमं सद्यंना भुवनत्रयं ।
पूजादिना ब्रह्मलोकं त्रि भिर्मतसाम्यतामियात ।। 52
मेरी मूर्ति की प्रतिष्ठा करने से पृथ्वी का एकछत्र राज्य , मंदिर – निर्माण से त्रिलोकी का राज्य , पूजा आदि की व्यवस्था करने से ब्रह्मलोक और तीनों के द्वारा मेरी समानता प्राप्त होती है ।। 52
मामेव नैरपेक्ष्येण भक्तियोगेन विन्दति ।
भक्तियोगं स लभते एवं यह पूजयेत मां ।। 53
जो निष्काम – भाव से मेरी पूजा करता है , उसे मेरा भक्ति योग प्राप्त हो जाता है और उस निरपेक्ष भक्ति योग के द्वारा वह स्वयं मुझे प्राप्त कर लेता है ।। 53
यः स्वदत्तां परैर्दत्ताम हरेत सुरविप्रयोः।
वृत्तिम स जायते विडभुग वर्षाणामयुतायुतम ।। 54
जो अपनी दी हुई या दूसरों की दी हुई देवता और ब्राह्मण की जीविका का हरण कर लेता है , वह करोड़ों वर्षों तक विष्ठा का कीड़ा होता है ।। 54
कर्तुश्च सारथेर्हेतोरनुमोदितुरेव च ।
कर्मणां भागिनः प्रेत्य भूयो भूयसि तत फलम ।। 55
जो लोग ऐसे कामों में सहायता , प्रेरणा अथवा अनुमोदन करते हैं , वे भी मरने के बाद प्राप्त करने वाले के समान ही फल के भागीदार होते हैं । यदि उनका हाथ अधिक रहा तो फल भी उन्हें अधिक ही मिलता है ।। 55
इति श्रीमदभागवते महापुराणे पारंहंस्यां संहिता मेकादशस्कन्धे सप्तविंशोऽध्यायः ।। 27