uddhav gita

 

 

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अथ षोडशो ऽध्यायः

भगवान की विभूतियों का वर्णन

 

 

उद्धव उवाच

त्वं ब्रह्म परमं साक्षाद नाद्यन्तं पावृतं।

सर्वेषामपि भावानां त्राण स्थित्यप्ययोद्भवः।। 1

उच्चा वचेषु भूतेषु दुर्ज्ञेयं कृतात्मभिः ।

उपासते त्वां भगवन याथा तथ्येन ब्राह्मणाः।। 2

उद्धव जी ने कहा – भगवन ! आप स्वयं परब्रह्म हैं , न आपका आदि है और न अंत । आप आवरण – रहित , अद्वितीय तत्व हैं । समस्त प्राणियों और पदार्थों की उत्पत्ति , स्थिति , रक्षा और प्रलय के कारण भी आप ही हैं । आप ऊँचे – नीचे सभी प्राणियों में स्थित हैं ; परन्तु जिन लोगों ने अपने मन और इन्द्रियों को वश में नहीं किया है , वे आपको नहीं जान सकते । आपकी यथोचित उपासना तो ब्रह्म वेत्ता पुरुष ही करते हैं । 1-2

 

येषु – येषु च भावेषु भक्त्या त्वां परमर्षयः ।

उपासीनाः प्रपद्यन्ते संसिद्धिं तद वदस्व मे।। 3

बड़े – बड़े ऋषि – महर्षि आपके जिन रूपों और विभूतियों की परम भक्ति के साथ उपासना कर के सिद्धि प्राप्त करते हैं , वह आप मुझसे कहिये । 3

 

गूढाश्चरसि भूतात्मा भूतानां भूत भावन ।

न त्वां पश्यन्ति भूतानि पश्यन्तं मोहितानि ते ।। 4

समस्त प्राणियों के जीवनदाता प्रभो ! आप समस्त प्राणियों के अंतरात्मा हैं । आप उनमें अपने को गुप्त रख कर लीला करते रहते हैं । आप तो सबको देखते हैं , परन्तु जगत के प्राणी आपकी माया से ऐसे मोहित हो रहे हैं कि वे आपको नहीं देख पाते । 4

 

याः काश्च भूमौ दिवि वै रसायां

विभूतयो दिक्षु महा विभूते।

ता मह्यमाख्याह्यनुभावितास्ते

नमामि ते तीर्थ पदांङ्घ्रि पद्मम ।। 5

अचिन्त्य ऐश्वर्यसंपन्न प्रभो ! पृथ्वी , स्वर्ग , पाताल तथा दिशा – विदिशाओं में आपके प्रभाव से युक्त जो – जो भी विभूतियाँ हैं , आप कृपा कर के मुझसे उनका वर्णन कीजिये । प्रभो ! मैं आपके उन चरण कमलों की वंदना करता हूँ , जो समस्त तीर्थों को भी तीर्थ बनाने वाले हैं ।

 

श्री भगवानुवाच

एवमेतदेहं पृष्टः प्रश्नं प्रश्न विदां वर ।

युयुत्सुना विनशने सपत्नैरर्जुनेन वै।। 6

भगवान श्री कृष्ण ने कहा – प्रिय उद्धव ! तुम प्रश्न का मर्म समझने वालों में शिरोमणि हो । जिस समय कुरुक्षेत्र में कौरव – पांडवों का युद्ध छिड़ा हुआ था , उस समय शत्रुओं से युद्ध के लिए तत्पर अर्जुन ने मुझसे यही प्रश्न किया था ।। 6

 

ज्ञात्वा ज्ञातिवधम गृर्ह्यमधर्मं राज्य हेतुकं ।

ततो निवृत्तो हन्ताहं हतो ऽयमिति लौकिकः ।। 7

अर्जुन के मन में ऐसी धारणा हुई कि कुटुम्बियों को मारना , और सो भी राज्य के लिए , बहुत ही निंदनीय अधर्म है । साधारण पुरुषों के समान वह यह सोच रहा था कि ‘ मैं मारने वाला हूँ और ये सब मरने वाले हैं । यह सोचकर वह युद्ध से उपरत हो गया ।। 7

 

स तदा पुरुष व्याघ्रो युक्त्या में प्रति बोधितः ।

अभ्यभाषत मामेवं यथा त्वं रणमूर्धनि ।। 8

तब मैंने रणभूमि में बहुत सी युक्तियाँ देकर वीर शिरोमणि अर्जुन को समझाया था । उस समय अर्जुन ने भी मुझसे यही प्रश्न किया था , जो तुम कर रहे हो ।। 8

 

अह्मात्मोद्धवा मीषाम भूतानां सुहृदीश्वरः ।

अहं सर्वाणि भूतानि तेषां स्थित्युद्भवाप्ययः ।। 9

उद्धव जी ! मैं समस्त प्राणियों का आत्मा , हितैषी , सुहृद और ईश्वर का नियामक हूँ । मैं ही इन समस्त प्राणियों और पदार्थों के रूप में हूँ और इनकी उत्पत्ति , स्थिति और प्रलय का कारण भी हूँ । 9

 

अहं गतिर्गतिमतां कालः कलयतामहम।

गुणानां चाप्यहं साम्यं गुणिन्यौतपत्तिको गुणः ।।

गतिशील पदार्थों में मैं गति हूँ । अपने अधीन करने वालों में मैं काल हूँ । गुणों में मैं उनकी मूलस्वरूपा साम्यावस्था हूँ और जितने भी गुणवान पदार्थ है , उनमें उनका स्वाभाविक गुण हूँ ।

 

गुणिनामप्यहं सूत्रं महतां च महानतम ।

सूक्ष्माणामप्यहं जीवो दुर्जयानामहं मनः ।। 11

गुण युक्त वस्तुओं में मैं क्रिया – शक्ति – प्रधान – प्रथम कार्य सूत्रात्मा हूँ और महानों में ज्ञान – शक्ति प्रधान प्रथम कार्य महतत्व हूँ । सूक्ष्म वस्तुओं में मैं जीव हूँ और कठिनाई से वश में होने वालों में मन हूँ ।

 

हिरण्यगर्भो वेदानां मंत्राणां प्रणवस्त्रिवृत।

अक्षराणामकारोस्मि पदानिच्छन्द सामहम ।। 12

मैं वेदों का अभिव्यक्ति स्थान हिरण्य गर्भ हूँ और मन्त्रों में तीन मात्राओं  ( अ + उ + म ) वाला ओंकार हूँ । मैं अक्षरों में अकार , छंदों में त्रिपदा गायत्री हूँ । 12

 

इंद्रोहम सर्व देवानां वसूनामस्मि हव्यवाट ।

आदित्यनामहं विष्णू रूद्राणां नीललोहितः ।। 13

समस्त देवताओं में इंद्र , आठ वसुओं में अग्नि , द्वादश आदित्यों में विष्णु और एकादश रुद्रों में नीललोहित नाम का रूद्र हूँ । 13

 

ब्रह्मर्षिणां भृगुरहं राजर्षिणामहं मनुः ।

देवर्षीणां नारदोऽहं हविर्धानयस्मि धेनेषु।। 14

मैं ब्रह्मर्षियों में भृगु , राजर्षियों में मनु , देवर्षियों में नारद और गौओं में कामधेनु हूँ । 14

 

सिद्धेश्वरणाम कपिलः सुपर्णोऽहं पतत्त्रिणाम ।

प्रजापतीनां दक्षोऽहं पितृणांहमर्यमा।।15

मैं सिद्धेश्वरों में कपिल , पक्षियों में गरुण , प्रजापतियों में दक्ष प्रजापति और पितरों में अर्यमा हूँ ।। 15

 

मां विद्धयुद्धव दैत्यानां प्रह्लादम सुरेश्वरम ।

सोमं नक्षत्रौषधीनां धनेशं यक्ष रक्षसां।। 16

प्रिय उद्धव ! मैं दैत्यों में दैत्यराज प्रहलाद , नक्षत्रों में चन्द्रमा , औषधियों में सोमरस एवं यक्ष – राक्षसों में कुबेर हूँ – ऐसा समझो ।16

 

ऐरावतं गजेन्द्राणां याद्सां वरुणं प्रभुं।

तपतां द्युमतां सूर्यं मनुष्याणां च भूपतिं ।। 17

मैं गजराजों में ऐरावत , जलनिवासियों में उनका प्रभु वरुण , तपने और चमकने वालों में सूर्य तथा मनुष्यों में राजा हूँ । 17

 

उच्चैःश्रवास्तुरंगाणाम धातूनामस्मि कांचनं ।

यमः संयमतां चाहं सर्पाणामस्मि वासुकिः ।। 18

मैं घोड़ों में उच्चैः श्रवा , धातुओं में सोना , दंडधारियों में यम और सर्पों में वासुकि हूँ । 18

 

नागेन्द्राणांनंतोऽहं मृगेन्द्रः शृंगिदंष्ट्राणां ।

आश्रमणामहं तुर्यो वर्णानां प्रथमोऽनघ ।।19

निष्पाप उद्धव जी ! मैं नागराजों में शेषनाग , सींग और दाढ़ वाले प्राणियों में उनका राजा सिंह , आश्रमों में संन्यास और वर्णों में ब्राह्मण हूँ ।

 

तीर्थानां स्त्रोतसां गंगा समुद्रः सरसामहं ।

आयुधानां धनुरहं त्रिपुरघ्नो धनुष्मताम ।। 20

मैं तीर्थ और नदियों में गंगा , जलाशयों में समुद्र , अस्त्र – शस्त्रों में धनुष और धनुर्धरों में त्रिपुरारी शंकर हूँ । 20

 

धिष्ण्यानामस्म्यहं मेरुर्गहनानाम हिमालयः ।

वनस्पतीनामश्वत्थ ओषधीनामहं यवः ।। 21

मैं निवासस्थानों में सुमेरु । दुर्गम स्थानों में हिमालय , वनस्पतियों में पीपल और धान्यों में जौ हूँ । 21

 

पुरोधसां वसिष्टोऽहं ब्रह्मिष्ठानां वृहस्पतिः ।

स्कंदोऽहं सर्वसेनान्यामग्रण्यां भगवानजः।। 22

मैं पुरोहितों में वसिष्ठ , वेद वेत्ताओं में वृहस्पति , समस्त सेनापतियों में स्वामी कार्तिक और सन्मार्ग प्रवर्तकों में भगवान् ब्रह्मा हूँ । 22

 

यज्ञानां ब्रह्मयज्ञोऽहं व्रतानामविहिंसनं।

वाय्वग्न्यर्काम्बुवागात्मा शुचिनामप्यहं शुचिः ।। 23

पंच महायज्ञों में ब्रह्म यज्ञ ( स्वाध्याय यज्ञ ) हूँ , व्रतों में अहिंसा व्रत और शुद्ध करने वाले पदार्थों में नित्य शुद्ध वायु , अग्नि , सूर्य, जल , वाणी एवं आत्मा हूँ ।

 

योगाना मात्मसंरोधो मंत्रोऽस्मि विजिगीषताम ।

आन्वीक्षिकी कौशलानां विकल्पः ख्यातिवादिनाम।। 24

आठ प्रकार के योगों में मैं मनोनिरोधरूप समाधि हूँ । विजय के इच्छुकों में रहनेवाला मैं मंत्र ( नीति ) बल हूँ , कौशलों में आत्मा और अनात्मा का विवेक रूप कौशल ततः ख्यातिवादियों में विकल्प हूँ ।। 24

 

स्त्रीणां तु शतरूपाहं पुंसां स्वायम्भुवो मनुः ।

नारायणो मुनीनां च कुमारो ब्रह्मचारिणाम ।। 25

मैं स्त्रियों में मनु पत्नी शतरूपा , पुरुषों में स्वयम्भुव मनु , मुनीश्वरों में नारायण और ब्रह्मचारियों में सनत्कुमार हूँ ।

 

धर्माणामस्मि सन्यासः क्षेमाणाम बहिर्मतिः।

गुह्यानां सूनृतं मौनं मिथुनानामजस्त्वहम ।। 26

मैं धर्मों में कर्म सन्यास अथवा एषणात्रय के त्याग के द्वारा सम्पूर्ण प्राणियों को अभयदान रूप सच्चा संन्यास हूँ । अभय के साधनों में आत्म स्वरूप का अनुसंधान हूँ, अभिप्राय गोपन के साधनों में मधुर वचन एवं मौन हूँ और स्त्री – पुरुष के जोड़ों में मैं प्रजापति हूँ – जिनके दो शरीर के दो भागों से पुरुष और स्त्री का पहला जोड़ा पैदा हुआ ।

 

संवत्सरोऽस्म्यनिमिषामृतूनां मधुमाधवौ ।

मासानां मार्गशीर्षोऽहं नक्षत्राणां तथाभिजित।। 27

सदा सावधान रह कर जागने वालों में संवत्सर रूप काल मैं हूँ , ऋतुओं में वसंत , महीनों में मार्गशीर्ष और नक्षत्रों में अभिजित हूँ । 27

 

अहं युगानां च कृतं धीराणां देवलोऽसितः ।

द्वैपायनोऽस्मि व्यासानां कवीनां काव्य आत्मवान ।। 28

मैं युगों में सत्ययुग , विवेकियों में महर्षि देवल और असित , व्यासों में श्री कृष्ण द्वैपायन व्यास तथा कवियों में मनस्वी शुक्राचार्य हूँ । 28

 

वासुदेवो भगवतां त्वं तु भागवतेष्वहम ।

किं पुरुषाणां हनुमान विद्या ध्राणाम सुदर्शनः ।। 29

सृष्टि की उत्पत्ति और लय , प्राणियों के जन्म और मृत्यु तथा विद्या और अविद्या के जान ने वाले भगवानों में ( विशिष्ट महापुरुषों में ) मैं वासुदेव हूँ । मेरे प्रेमी भक्तों में तुम ( उद्धव ) , किम्पुरुषों में हनुमान , विद्याधरों में सुदर्शन ( जिसने अजगर के रूप में नन्द बाबा को ग्रस लिया था और फिर भगवन के पादस्पर्श से मुक्त हो गया था ) मैं हूँ ।

 

रत्नानां पद्मरागोऽस्मि पद्मकोशः सुपेशसाम।

कुशोऽस्मि दर्भजातीनां गव्यमाज्यं हविःष्वहम।। 30 

रत्नों में पद्मराग ( लाल ) , सुन्दर वस्तुओं में कमल की कलि, तृणों में कुश और हविष्यों में गाय का घी हूँ ।। 30

 

व्यवसायिनामहं लक्ष्मीः कितवानां छलग्रहः।

तितिक्षास्मि तितिकक्षूणां सत्त्वं सत्त्ववतामहम ।। 31

मैं व्यापारियों में रहने वाली लक्ष्मी , छल कपट करने वालो में द्यूत क्रीड़ा , तितिक्षुओं की तितिक्षा ( कष्ट सहिष्णुता ) और सात्विक पुरुषों में रहने वाला सत्व गुण हूँ । 31

 

ओजः सहो बलवतां कर्माहं विद्धि सात्त्वतां ।

सात्त्वतां नव मूर्तीनामादिमूर्तिरहं परा ।। 32

मैं बलवानों में उत्साह और पराक्रम तथा भवद्भक्तों में भक्ति युक्त निष्काम कर्म हूँ । वैष्णवों की पूज्य वासुदेव , संकर्षण , प्रद्युम्न, अनिरुद्ध , नारायण , हयग्रीव , वराह , नृसिंह और ब्रह्मा – इन नौ मूर्तियों में मैं पहली और श्रेष्ठ मूर्ति वासुदेव हूँ ।

 

विश्वावसुः पूर्वचित्तिरगन्धर्वाप्सरसामहं

भूधराणामहं स्थैर्यं गंधमात्रमहं भुवः ।। 33

मैं गंधर्वों में विश्वावसु और अप्सराओं में ब्रह्मा जी के दरबार की अप्सरा पूर्वचित्ति हूँ । पर्वतों में स्थिरता और पृथ्वी में शुद्ध अविकारी गंध मैं ही हूँ । 33

 

अपां रसश्च परमस्ते जिष्ठानां विभावसुः ।

प्रभा सूर्येन्दु ताराणां शबदोऽहं नभसः परः ।। 34 

मैं जल में रस , तेजस्वियों में परम तेजस्वी अग्नि ; सूर्य , चंद्र और तारों में प्रभा तथा आकाश में उसका एकमात्र गुण शब्द हूँ । 34

 

ब्रह्मण्यानां बलिरहं वीराणामहमर्जुनः।

भूतानां स्थितिरुत्पत्तिरहं वै प्रति सङ्क्रमः ।। 35

उद्धव जी ! मैं ब्राह्मण भक्तों में बलि , वीरों में अर्जुन और प्राणियों में उनकी उत्पत्ति , स्थिति और प्रलय हूँ । 35

 

गतयुक्त्युत् सर्गोपादान मानन्द स्पर्श लक्षणम ।

आस्वाद श्रुत्यवघ्राण महं सर्वेंद्रियेंद्रियम।। 36

मैं ही पैरों में चलने की शक्ति , वाणी में बोलने की शक्ति , पायु में मल – त्याग की शक्ति , हाथों में पकड़ने की शक्ति और जननेन्द्रिय में आनन्दोपभोग की शक्ति हूँ । त्वचा में स्पर्श की , नेत्रों में दर्शन की , रसना में स्वाद की , कानों में श्रवण की और नासिका में सूंघने की शक्ति भी मैं ही हूँ , समस्त इन्द्रियों की इन्द्रिय शक्ति मैं ही हूँ ।। 36

 

पृथिवी वायुराकाश आपो ज्योतिरहं महान ।

विकारः पुरुषोऽव्यक्तं रजः सत्त्वं तमः परम ।।37

पृथ्वी , वायु , आकाश , जल , तेज , अहंकार , महतत्त्व , पंच महाभूत , जीव , अव्यक्त , प्रकृति , सत्त्व , राज , तम और उनसे परे रहने वाला ब्रह्म – ये सब मैं ही हूँ ।। 37

 

अहमेतत्प्रसंख्यानं ज्ञानं तत्त्व विनिश्चयः ।

मयेश्वरेण जीवेन गुणेन गुणिना विना ।

सर्वात्मनापि सर्वेण न भावो विद्या क्वचित ।। 38

इन तत्त्वों की गणना , लक्षणों द्वारा उनका ज्ञान तथा तत्त्व ज्ञान रूप उसका फल भी मैं ही हूँ । मैं ही ईश्वर हूँ , मैं ही जीव हूँ , मैं ही गुण हूँ और मैं ही गुणी हूँ । मैं ही सबका आत्मा हूँ और मैं ही सब कुछ हूँ । मेरे अतिरिक्त और कोई भी पदार्थ कहीं भी नहीं है ।। 38

 

संख्यानं परमाणुनां कालेन क्रियते मया।

न तथा में विभूतीनां सृजतो अण्डानि कोटिशः ।। 39

यदि मैं गिनने लगूँ तो किसी समय परमाणुओं की गणना तो कर सकता हूँ , परन्तु अपनी विभूतियों की गणना नहीं कर सकता क्योंकि जब मेरे रचे हुए कोटि – कोटि ब्रह्माण्डों की भी गणना नहीं हो सकती , तब मेरी विभूतियों की गणना तो हो ही कैसे सकती है ।। 39

 

तेजः श्रीः कीर्तिरैश्वर्यं ह्रीस्त्यागः सौभगं भगः।

वीर्यं तितिक्षा विज्ञानं यत्र यत्र स मेंऽशकः।। 40

ऐसा समझो कि जिसमें भी तेज , श्री , कीर्ति , ऐश्वर्या , लज्जा , त्याग , सौंदर्य , सौभाग्य , पराक्रम , तितिक्षा और विज्ञान आदि श्रेष्ठ गुण हों  , वह मेरा ही अंश है ।। 40

 

एतास्ते कीर्तिताः सर्वाः संक्षेपेण विभूतयः ।

मनोविकारा एवैते यथा वाचाभिधीयते ।। 41

उद्धव जी ! मैंने तुम्हारे प्रश्न के अनुसार संक्षेप से विभूतियों का वर्णन किया है । ये सब परमार्थ वस्तु नहीं है , मनोविकार मात्र हैं ; क्योंकि मन से सोची और वाणी से कही हुई कोई भी वस्तु परमार्थ ( वास्तविक ) नहीं होती । उसकी एक कल्पना ही होती है । 41

 

वाचम यच्छ मनो यच्छ प्राणान यच्छेन्द्रियाणि च । 

आत्मान मात्मना यच्छ न भूयः कल्पसेऽध्वने।। 42

इसलिए तुम वाणी को स्वच्छंद भाषण से रोको , मन के संकल्प – विकल्प को बंद करो । इसके लिए प्राणों को वश में करो और इन्द्रियों का दमन करो । सात्विक बुद्धि के द्वारा प्रपंचाभिमुख बुद्धि को शांत करो । फिर तुम्हें संसार के जन्म – मृत्यु रूप बीहड़ मार्ग में भटकना नहीं पड़ेगा ।। 42

 

यो वै वांड्मनसी सम्यग संयच्छन धिया यतिः ।

तस्य व्रतम तपो दानं स्र्वत्यांघटाम्बुवत।। 43

जो साधक बुद्धि के द्वारा वाणी और मन को पूर्णतया वश में नहीं कर लेता , उसके व्रत , तप और दान उसी प्रकार क्षीण हो जाते हैं , जैसे कच्चे घड़े में भरा हुआ जल ।। 43

 

तस्मान्मनोवचः प्राणान नियच्छेन मत्परायणः ।

मद्भक्तियुक्त्या बुद्ध्या ततः परिसमाप्यते ।। 44

इसलिए मेरे प्रेमी भक्त को चाहिए कि मेरे परायण होकर भक्ति युक्त बुद्धि से वाणी , मन और प्राणों का संयम करे । ऐसा कर लेने पर फिर उसे कुछ करना शेष नहीं रहता । वह कृतकृत्य हो जाता है ।। 44

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे परमहंस्यां संहितायामेकादश स्कन्धे षोडशोऽध्यायः ।। 16

 

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