uddhav gita

 

 

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अथाष्टमो अध्यायः

अवधूतोपाख्यान- अजगर से लेकर पिंगला तक नौ गुरुओं की कथा

 

 

ब्राह्मण उवाच

सुखमेंद्रियकं राजन स्वर्गे नरक एव च ।

देहिनां यद् यथा दुःखं तस्मान्नेच्छेत तद बुधः ।। 1

 

अवधूत दत्तात्रेय जी कहते हैं – राजन ! प्राणियों को जैसे बिना इच्छा के , बिना किसी प्रयत्न के , रोकने की चेष्टा करने पर भी पूर्व कर्मानुसार दुःख प्राप्त होते हैं , वैसे ही स्वर्ग में या नरक में – कहीं भी रहे , उन्हें इन्द्रिय सम्बन्धी सुख भी प्राप्त होते ही हैं । इसलिए सुख और दुःख का रहस्य जानने वाले बुद्धिमान पुरुष को चाहिए इनके लिए इच्छा या किसी प्रकार का प्रयत्न न करे ।। 1

 

ग्रासं सुमृष्टम विरसं महान्तं स्तोकमेव वा ।

यदृच्छयैवापतितं ग्रसे दाजगरोऽक्रियः।। 2

 

बिना मांगे , बिना इच्छा किये स्वयं ही अनायास जो कुछ मिल जाये – वह चाहे रूखा – सूखा हो , चाहे बहुत मधुर और स्वादिष्ट , अधिक हो या थोड़ा – बुद्धिमान पुरुष अजगर के समान उसे ही खा कर जीवन – निर्वाह कर ले और उदासीन रहे ।। 2

 

शयीताहानि भूरीणि निराहारोऽनुपक्रमः ।

यदि नोपनमेद ग्रासो महाहिरिव दिष्टभुक।। 3

 

यदि भोजन न मिले तो उसे भी प्रारब्ध भोग समझ कर किसी प्रकार की चेष्टा न करे , बहुत दिनों तक भूखा ही पड़ा रहे । उसे चाहिए कि अजगर के समान केवल प्रारब्ध के के अनुसार प्राप्त हुए भोजन में ही संतुष्ट रहे ।। 3

 

ओजः सहोबलयुतं बिभ्रद देहम कर्मकम।

शयानो वीतनिद्रश्च नेहेतेन्द्रियवानपि ।। 4

 

उसके शरीर में मनोबल , इन्द्रियबल और देहबल तीनों हों तब भी वह निश्चेष्ट ही रहे । निद्रा रहित होने पर भी सोया हुआ – सा ही रहे और कर्मेन्द्रियों के होने पर भी उनसे कोई चेष्टा न करे । राजन ! मैंने अजगर से यही शिक्षा ली है ।

 

मुनिः प्रसन्नगम्भीरो दुर्विगाह्यो दुरत्ययः ।

अनन्तपारो ह्यक्षोभ्यः स्तिमितोद इवार्णवः ।। 5

 

समुद्र से मैंने यह सीखा है कि साधक को सर्वदा प्रसन्न और गंभीर रहना चाहिए , उसका भाव अथाह , अपार और असीम होना चाहिए तथा किसी भी निमित्त से उसे क्षोभ नहीं होना चाहिए । उसे ठीक वैसे ही रहना चाहिए , जैसे ज्वर – भाटे और तरंगों से रहित शांत समुद्र ।। 5

 

समृद्धकामो हीनो वा नारायणपरो मुनि ।

नोत्सर्पेत न सुष्येत सरिद्भिरिव सागरः।। 6

 

देखो , समुद्र वर्षा ऋतु में नदियों की बाढ़ के कारण बढ़ता नहीं और न ग्रीष्म ऋतु में घटता ही है ; वैसे ही भगवत परायण साधक को भी सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति से प्रफुल्लित नहीं होना चाहिए और न उनके घटने से उदास ही होना चाहिए ।

 

दृष्ट्वा स्त्रियं देवमायां तद्भावैरजितेन्द्रियः ।

प्रलोभितः पतत्यंधे तमस्यग्नौ पतंगवत।। 7

 

राजन! मैंने पतिंगे से यह शिक्षा ली है कि जैसे वह रूप पर मोहित होकर आग में कूद पड़ता है और जल मरता है, वैसे ही अपनी इन्द्रियों को वश में न रखने वाला पुरुष जब स्त्री को देखता है तो उसके हाव – भाव पर लट्टू हो जाता है और घोर अन्धकार में , नरक में गिरकर अपना सत्यानाश कर लेता है । सचमुच स्त्री देवताओं की वह माया है , जिस से जीव भगवान या मोक्ष की प्राप्ति से वंचित रह जाता है ।।

 

योषिद्धिरण्या भरणाम्बरादि-द्रव्येषु माया रचितेषु मूढः।

प्रलोभितात्मा ह्युपभोगबुद्ध्यापतंगवन्नश्यति नष्टदृष्टिः।। 8

 

जो मूढ़ कामिनी – कंचन , गहने – कपड़े आदि नाशवान मायिक पदार्थों में फंसा हुआ है और जिसकी सम्पूर्ण चित्त वृत्ति उनके उपभोग के लिए ही लालायित है , वह अपनी विवेक बुद्धि खोकर पतिंगे के समान नष्ट हो जाता है ।। 8

 

स्तोकं स्तोकं ग्रसेद ग्रासं देहो वर्तेत यावता ।

गृहान हिंसन्नातिष्ठेद वृत्तिं माधुकरीम मुनिः ।। 9

 

राजन ! सन्यासी को चाहिए कि गृहस्थों को किसी प्रकार का कष्ट न देकर भौंरे की तरह अपना जीवन निर्वाह करे । वह अपने शरीर के लिए उपयोगी रोटी के कुछ टुकड़े कई घरों से मांग ले ।

 

अणुभ्यश्च महद्भ्यश्च शास्त्रेभ्यः कुशलो नरः ।

सर्वतः सारमादद्यात पुष्पेभ्य इव षट्पदः।। 10

 

जिस प्रकार भौंरा विभिन्न पुष्पों से – चाहे वे छोटे हों या बड़े – उनका सार संग्रह करता है , वैसे ही बुद्धिमान पुरुष को चाहिए की छोटे – बड़े सभी शास्त्रों से उनका सार – उनका रस निचोड़ ले ।।

 

सायन्तनम श्वसतनम वा न संग्रह्णीत भिक्षितम ।

पाणिपात्रोदरामत्रो मक्षिकेव न सङ्ग्रही।। 11

 

राजन ! मैंने मधुमक्खी से यह शिक्षा ग्रहण की है कि सन्यासी को सायं काल अथवा दूसरे दिन के लिए भिक्षा का संग्रह नहीं करना चाहिए । उसके पास भिक्षा लेने को कोई पात्र हो तो केवल हाथ और रखने के लिए कोई बर्तन हो तो पेट । वह कहीं संग्रह न कर बैठे , नहीं तो मधु मक्खियों के समान उसका जीवन दूभर हो जायेगा ।। 11

 

सायन्तनम श्वसतनम वा न संग्रह्णीत भिक्षुकः ।

मक्षिका इव संग्रहणन सह तेन विनश्यति ।। 12

 

यह बात खूब समझ लेनी चाहिए कि सन्यासी सवेरे – शाम के लिए किसी प्रकार का संग्रह न करे ; यदि संग्रह करेगा तो मधुमक्खियों के समान अपने संग्रह के साथ ही जीवन भी गँवा बैठेगा ।। 12

 

पदापी युवतीं भिक्षुर्न स्पृशेद दारवीमपि।

स्पृशन करीव बध्येत करिण्या अंगसंगतः ।। 13

 

राजन ! मैंने हाथी से यह सीखा कि सन्यासी को कभी पैर से भी काठ की बनी हुयी स्त्री का भी स्पर्श नहीं करना चाहिए । यदि वह ऐसा करेगा तो जैसे हथिनी के अंग – संग से हाथी बांध जाता है , वैसे ही वह भी बंध जायेगा ।। 13

 

नाधि गच्छेत स्त्रियं प्राज्ञः कर्हिचिन्मृत्युमात्मनः।

बलाधिकैः स हन्येत गजैरन्यैर्गजो यथा ।। 14

 

विवेकी पुरुष किसी भी स्त्री को कभी भी भोग्य रूप से स्वीकार न करे ; क्योंकि वह उसकी मूर्तिमती मृत्यु है । यदि वह उसे स्वीकार करेगा हाथियों से हाथी की तरह अधिक बलवान अन्य पुरुषों के द्वारा मारा जायेगा । 14

 

न देयं नोप भोग्यं च लुब्धैर्यद दुःख संचितम ।

भुङ्क्ते तदपि तच्चान्यो मधुहेवार्थ विन्मधु ।। 15

 

मैंने मधु निकालने वाले पुरुष से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संसार के लोभी पुरुष बड़ी कठिनाई से धन का संचय तो करते रहते हैं , किन्तु वह संचित धन न किसी को दान करते हैं और न स्वयं उसका उपभोग ही करते हैं। बस , जैसे मधु निकालने वाला मधुमक्खियों द्वारा संचित रस को निकाल ले जाता है वैसे ही उनके संचित धन को भी उसकी टोह रखने वाला कोई दूसरा पुरुष ही भोगता है ।। 15

 

सुदुःखोपार्जितैर्वित्तै राशासानं गृहाशिषः।

मधु हेवाग्रतो भुङ्क्ते यतिर्वै गृहमेधिनाम।। 16

 

तुम देखते हो न कि मधुहारी मधुमक्खियों का जोड़ा हुआ मधु उनके खाने से पहले ही साफ़ कर जाता है ; वैसे ही गृहस्थों के बहुत कठिनाई से संचित पदार्थों को , जिनसे वे सुख भोग की अभिलाषा रखते हैं , उनसे भी पहले सन्यासी और ब्रह्मचारी भोगते हैं । क्योंकि गृहस्थ तो पहले अतिथि – अभ्यागतों को भोजन कराकर ही स्वयं भोजन करेगा ।

 

ग्राम्यगीतं न शृणुयाद यतिर्वनचरः क्वचित ।

शिक्षेत हरिणाद बद्धान्मृगयोर्गीत मोहितात।। 17

 

मैंने हिरन से यह सीखा है कि वनवासी सन्यासी को कभी विषय-सम्बन्धी गीत नहीं सुनने चाहिए । वह इस बात की शिक्षा उस हिरन से ग्रहण करे जो व्याध करे गीत से मोहित होकर बंध जाता हैं ।।

 

नृत्यवादित्रगीतानि जुषन ग्राम्याणि योषितां ।

आसां क्रीडनको वश्य ऋष्यश्रृंगो मृगीसुतः ।। 18

 

तुम्हें इस बात का पता है कि हिरणी के गर्भ से पैदा हुए ऋष्यशृंग मुनि स्त्रियों का विषय – सम्बन्धी गाना – बजाना , नाचना आदि देख – सुन कर उनके वश में हो गए थे और उनके हाथ की कठपुतली बन गए थे ।। 18

 

जिह्वयातिप्रमथिन्या जनो रसविमोहितः।

मृत्युमृच्छत्य सद बुद्धिर्मीनस्तु बडिशैर्यतः ।। 19

 

अब मैं तुम्हें मछली की सीख सुनाता हूँ । जैसे मछली कांटे में लगे हुए मांस के टुकड़े के लोभ से अपने प्राण गँवा देती है , वैसे ही स्वाद का लोभी दुर्बुद्धि मनुष्य भी मन को मथ कर व्याकुल कर देने वाली अपनी जिह्वा के वश में हो जाता है और मारा जाता है । 19

 

इन्द्रियाणि जयन्त्याशु निराहारा मनीषिणः ।

वर्जयित्वा तु रसनं तन्नि रन्नस्य वर्धते ।। 20

 

विवेकी पुरुष भोजन बंद करके दूसरी इन्द्रियों पर तो बहुत शीघ्र विजय पा लेते हैं परन्तु इस से उनकी रसना – इन्द्रिय वश में नहीं होती । वह तो भोजन बंद कर देने से और भी प्रबल हो जाती है ।। 20

 

तावज्ज़ितेन्द्रियो न स्याद विजितान्येंद्रियः पुमान ।

न जयेद रसनं यावज्जितं सर्वं जिते रसे ।। 21

 

मनुष्य और सब इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेने पर भी तब तक जितेन्द्रिय नहीं हो सकता , जब तक रसेन्द्रिय को अपने वश में नहीं कर लेता और यदि रसेन्द्रिय को वश में कर लिया तब तो मानो सभी इन्द्रियाँ वश में हो गयीं ।। 21

 

पिंगला नाम वेश्याऽऽसीद विदेहनगरे पुरा।

तस्या मे शिक्षितं किंचिन्निबोध नृपनन्दन ।। 22

 

नृपनन्दन ! प्राचीन काल की बात है , विदेह नगरी मिथिला में एक गणिका रहती थी । उसका नाम था पिंगला । मैंने उस से जो कुछ शिक्षा ग्रहण की , वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ ; सावधान हो कर सुनो ।। 22

 

सा स्वैरिण्येकदा कान्तं संकेत उपनेष्यती।

अभूत काले बहिर्द्वारि बिभृति रूप मुत्तमम।। 23

 

वह स्वेच्छाचारिणी तो थी ही , रूपवती भी थी । एक दिन रात्रि के समय किसी पुरुष को अपने रमण स्थान में लाने के लिए खूब बन – ठन  कर, उत्तम वस्त्राभूषणों से सजकर बहुत देर तक अपने घर के बाहरी दरवाजे पर खड़ी रही । 23

 

मार्ग आगच्छतो वीक्ष्य पुरुषान पुरुषर्षभ ।

ताञ्छुल्कदान वित्तवतः कान्तान मेने ऽर्थ कामुका।। 24

 

हे नररत्न ! उसे पुरुष की नहीं , धन की कामना थी और उसके मन में यह कामना इतनी दृढ़मूल हो गयी थी कि वह किसी भी पुरुष को उधर से आते – जाते देख कर यही सोचती कि यह कोई धनी है और मुझे धन दे कर उपभोग करने के लिए ही आ रहा है ।

 

आगतेष्वपयातेषु सा संकेतोपजीवनि।

अप्यन्यो वित्तवान कोऽपि मामुपैष्यति भूरिदः।। 25

 

जब आने – जाने वाले आगे बढ़ जाते , तब फिर वह संकेत जीवनी गणिका यही सोचती कि अवश्य ही अबकी बार कोई ऐसा धनी मेरे पास आएगा जो मुझ बहुत सा धन देगा ।

 

एवं दुराशया ध्वस्तनिद्रा द्वार्यवलंबति ।

निर्गच्छन्ति प्रविशति निशीथं समपद्यत।। 26

 

उसके चित्त की यह दुराशा बढ़ती ही जाती थी । वह दरवाजे पर बहुत देर तक टंगी रही । उसकी नींद भी जाती रही रही । वह कभी बाहर आती तो कभी भीतर जाती । इस प्रकार आधी रात हो गयी । 26

 

तस्या वित्ताशया शुष्यद्वकत्राया दीन चेतसः ।

निर्वेदः परमो जज्ञे चिन्ताहेतुः सुखावहः ।। 27

 

राजन ! सचमुच आशा और वो भी धन की – बहुत बुरी है । धनी की बाट जोहते – जोहते अर्थात राह देखते – देखते उसका मुँह सूख गया , चित्त व्याकुल हो गया । अब उसे इस वृत्ति से बड़ा वैराग्य हुआ । उसमें दुःख बुद्धि हो गयी । इसमें संदेह नहीं कि इस वैराग्य का कारण चिंता ही थी । परन्तु ऐसा वैराग्य भी है तो सुख का ही कारण ।। 27

 

तस्या निर्विण्णचित्ताया गीतं श्रणु यथा मम ।

निर्वेद आशापाशानां पुरुषस्य यथा ह्यसिः।। 28

 

जब पिंगला के चित्त में इस प्रकार वैराग्य की भावना जाग्रत हुई , तब उसने एक गीत गाया । वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ । राजन ! मनुष्य आशा की फांसी पर लटक रहा है । इसको तलवार की तरह काटने वाली यदि कोई वस्तु है तो वह केवल वैराग्य है ।। 28

 

ह्यंगाज्ज़ातनिर्वेदो देहबंधं जिहासती।

यथा विज्ञानरहितो मनुजो ममतां नृप ।। 29

 

प्रिय राजन ! जिसे वैराग्य नहीं हुआ है , जो इन बखेड़ों से ऊबा नहीं है , वह शरीर और इसके बंधन से उसी प्रकार मुक्त नहीं होना चाहता , जैसे अज्ञानी पुरुष ममता छोड़ने की इच्छा भी नहीं करता। 29

 

पिंगलोवाच

अहो मे मोहविततिम पश्यताविजितात्मनः ।

या कान्तादसतः कामं कामये येन बालिशा।। 30

 

पिंगला ने यह गीत गाया था – हाय ! हाय ! मैं इन्द्रियों के अधीन हो गयी । भला ! मेरे मोह का विस्तार तो देखो, मैं इन दुष्ट पुरुषों से , जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं है  , विषय सुख की लालसा करती हूँ । कितने दुःख की बात है ! मैं सचमुच मूर्ख हूँ ।। 30

 

सन्तं समीपे रमणं रतिप्रदम

वित्तप्रदं नित्यमिमं विहाय

अकामदं दुःखभयाधिशोक

मोहप्रदं तुच्छमहं भजेऽज्ञा।। 31

 

देखो तो सही , मेरे निकट से निकट ह्रदय में ही मेरे सच्चे स्वामी अर्थात परमात्मा विराजमान हैं । वे वास्तविक प्रेम , सुख और परमार्थ का सच्चा धन देने वाले हैं । जगत के पुरुष अनित्य है परन्तु वे नित्य हैं । हाय ! हाय ! मैंने उनको तो छोड़ दिया और उन तुच्छ मनुष्यों का सेवन किया जो मेरी एक भी कामना पूरी नहीं कर सकते ; उलटे दुःख – भय , आधि – व्याधि , शोक और मोह ही देते हैं । यह मेरी मूर्खता की हद है कि मैं उनका सेवन करती हूँ ।

 

अहो मयाऽऽत्मा परितापितो वृथा

सांकेत्यवृत्त्यातिविगर्ह्यावार्तया ।

स्त्रैणान्नराद यार्थतृषोऽनुशोच्यात  

क्रीतेन वित्तम रतिमात्मनेच्छती।। 32

 

बड़े दुःख की बात है , मैंने अत्यंत निंदनीय आजीविका वेश्यावृत्ति का आश्रय लिया और व्यर्थ में अपने शरीर और मन को क्लेश दिया , पीड़ा पहुंचे । मेरा यह शरीर बिक गया है । लम्पट , लोभी और निंदनीय मनुष्यों ने इसे खरीद लिया है और मैं इतनी मूर्ख हूँ कि इसी शरीर से धन और रति – सुख चाहती हूँ । मुझे धिक्कार है । 32

 

यद्स्थिभिर्निर्मित वंश वंश्य

स्थूणं त्वचा रोम नखैः पिनद्धम ।

क्षरन्नवद्वारमगारमेतद

विण्मूत्रपूर्णं मदुपैति कान्या।। 33

 

यह शरीर एक घर है जिसमे हड्डियों के टेढ़े – मेढ़े बांस और खम्भे लगे हुए हैं ; चमड़ा, त्वचा , रोयें और नाखूनों से यह छाया हुआ है । इसमें नौ दरवाजे हैं , जिनसे मल निकलते ही रहते हैं । इसमें संचित संपत्ति के नाम पर केवल मल और मूत्र ही है । मेरे अतिरिक्त ऐसी कौन सी स्त्री है जो इस स्थूल शरीर को अपना प्रिय समझ कर सेवन करेगी ।

 

विदेहानां पुरे ह्यस्मिन्नहमेकैव मूढ़धीः ।

यान्यमिच्छन्तयसत्यस्मादात्मदात काममच्युतात ।। 34

 

यों तो यह विदेहों की – जीवन मुक्तों की नगरी है , परन्तु इसमें मैं ही सबसे बड़ी मूर्ख और दुष्ट हूँ ; क्योंकि अकेली मैं ही तो आत्मदानी , अविनाशी एवं परम प्रियतम परमात्मा को छोड़ कर दूसरे पुरुष की अभिलाषा करती हूँ ।। 34

 

सुहृत प्रेष्ठतमो नाथ आत्मा चायं शरीरिणाम ।

तं विक्रीयात्मनैवाहं रमेऽनेन यथा रमा ।। 35

 

मेरे ह्रदय में विराजमान प्रभु , समस्त प्राणियों के हितैषी , सुहृद , प्रियतम , स्वामी और आत्मा हैं । अब मैं अपने आपको देकर इन्हें  खरीद लूंगी और इनके साथ वैसे ही विहार करूंगी जैसे, लक्ष्मी जी करती हैं ।। 35

 

क्रियत प्रियं ते व्यभजन कामा ये कामदा नराः ।

आद्यन्तवन्तो भार्याया देवा वा काल विद्रुताः ।। 36

 

मेरे मूर्ख चित्त ! तू बता तो सही , जगत के विषय भोगों ने और उनको देने वाले पुरुषों ने तुझे कितना सुख दिया है । अरे वे तो स्वयं ही पैदा होते और मरते रहते हैं । मैं केवल अपनी ही बात नहीं करती, केवल मनुष्यों की भी नहीं , क्या देवताओं ने भी भोगों के द्वारा अपनी पत्नियों को संतुष्ट किया है ? वे बेचारे तो स्वयं ही काल के गाल में पड़े – पड़े कराह रहे है ।।

 

नूनं मे भगवान प्रीतो विष्णुः केनापि कर्मणा ।

निर्वेदोयं दुराशाया यन्मे जातः सुखावहः ।। 37

 

अवश्य ही मेरे किसी शुभ कर्म से विष्णु भगवान् मुझ पर प्रसन्न हुए है , तभी तो दुराशा से मुझे इस प्रकार वैराग्य उत्पन्न  हुआ है । अवश्य ही मेरा यह वैराग्य सुख देने वाला होगा ।

 

मैवं स्युर्मन्द भाग्यायाः क्लेशा निर्वेद हेतवः ।

येनानु बन्धं निर्हृत्य पुरुषः शम मृच्छति ।। 38

 

यदि मैं मंद भागिनी होती तो मुझे ऐसे दुःख ही न उठाने पड़ते , जिनसे वैराग्य होता है । मनुष्य वैराग्य के द्वारा ही घर आदि के सब बंधनों को काट कर शान्ति – लाभ करता है ।।

 

तेनोप कृत मादाय शिरसा ग्राम्य संगताः ।

त्यक्त्वा दुराशाः शरणं व्रजामि तमधीश्वरम ।। 39

 

अब मैं भगवान का यह उपकार आदरपूर्वक सर झुका कर स्वीकार करती हूँ और विषय भोगों की दुराशा छोड़ कर उन्हीं जगदीश्वर की शरण ग्रहण करती हूँ ।।

 

संतुष्टा श्रद्दधत्ये तद्यथा लाभेन जीवती ।

विहराम्य मुनै वाहमात्मना रमणेन वै।।

 

अब मुझे प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जायेगा उसी से निर्वाह कर लूंगी और बड़े संतोष और श्रद्धा के साथ रहूंगी । मैं अब किसी पुरुष को न ताक कर अपने हृदयेश्वर , आत्मस्वरूप प्रभु के साथ ही विहार करूंगी ।40

 

संसार कूपे पतितं विषयैर्मुषिते क्षणम ।

ग्रस्तं कालाहिनाऽऽत्मानम् कोऽन्यास्त्रातुमधीश्वरः ।। 41

 

यह जीव संसार के कुँए में गिरा हुआ है । विषयों ने इसे अंधा बना दिया है , काल रुपी अजगर ने इसे अपने मुँह में दबा रखा है । अब भगवान को छोड़कर इसकी रक्षा करने में दूसरा कौन  समर्थ है । 41

 

आत्मैव ह्यात्मनो गोप्ता निर्विद्येत यदा खिलात।

अप्रमत्त इदं पश्येद ग्रस्तं कालाहिना जगत ।। 42

 

जिस समय जीव समस्त विषयों से विरक्त हो जाता है , उस समय वह स्वयं ही अपनी रक्षा कर लेता है । इसलिए बड़ी सावधानी के साथ यह देखते रहना चाहिए कि सारा जगत  कालरूपी अजगर से ग्रस्त है ।

 

ब्राह्मण उवाच

एवं व्यवसित मतिर्दुराशाम कान्ततर्षजाम।

छित्वोपशममास्थाय शय्यामुपविवेश सा ।। 43

 

अवधूत दत्तात्रेय जी कहते हैं – राजन ! पिंगला गणिका ने ऐसा निश्चय कर के अपने प्रिय धनियों की दुराशा , उनसे मिलने की लालसा का परित्याग कर दिया और शांत भाव से जाकर अपनी सेज पर सो गयी ।। 43

 

आशा हि परमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम ।

यथा संछिद्य कांताशां सुखम सुष्वाप पिंगला ।। 44

 

सचमुच आशा ही सबसे बड़ा दुःख है और निराशा ही सबसे बड़ा सुख है ; क्योंकि पिंगला गणिका ने जब पुरुष की आशा त्याग दी , तभी वह सुख से सो सकी ।

 

इति श्रीमदभागवत महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धेअष्टमोअध्यायः ।। 8 

 

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