अथ सप्तदशोऽध्यायः
वर्णाश्रम – धर्म – निरूपण
उद्धव उवाच
यस्त्वयाभिहितः पूर्वं धर्मस्त्वद्भक्तिलक्षणः ।
वर्णाश्रमाचारवतां सर्वेषां द्विपदामपि ।। 1
यथानुष्ठीयमानेन त्वयि भक्तिर्नृणां भवेत् ।
स्वधर्मेणारविन्दाक्ष तात समाख्यातुमर्हसि ।। 2
उद्धव जी ने कहा – कमलनयन श्री कृष्ण ! आपने पहले वर्णाश्रम – धर्म का पालन करने वालों के लिए और सामान्यतः मनुष्यमात्र के लिए उस धर्म का उपदेश किया था , जिस से आपकी भक्ति प्राप्त होती है । अब आप कृपा करके यह बतलाइये कि मनुष्य किस प्रकार से अपने धर्म का अनुष्ठान करे , जिस से आपके चरणों में उसे भक्ति प्राप्त हो जाये ।। 1-2
पुरा किल महाबाहो धर्मं परमकं प्रभो ।
यत्तेन हंसरूपेण ब्रह्मणे अभ्यात्थ माधव ।। 3
प्रभो ! महाबाहु माधव ! पहले आपने हंस रूप से अवतार ग्रहण करके ब्रह्मा जी को अपने परम धर्म का उपदेश किया था।
स इदानीं सुमहता कालेनामित्र कर्शन।
न प्रायो भविता मर्त्यलोके प्रागनुशासितः।।4
रिपुदमन ! बहुत समय बीत जाने के कारण वह इस समय मर्त्यलोक में प्रायः नहीं सा रह गया है , क्योंकि आपको उसका उपदेश किये बहुत दिन हो गए हैं ।। 4
वक्ता कर्ताविता नान्यो धर्मस्याच्युत ते भुवि ।
सभायामपि वैरिन्च्यां यत्र मूर्तिधराः कलाः।।। 5
अच्युत ! पृथ्वी में तथा ब्रह्मा कि उस सभा में भी , जहाँ सम्पूर्ण वेद मूर्तिमान होकर विराजमान रहते हैं , आपके अतिरिक्त ऐसा कोई भी नहीं है , जो आपके इस धर्म का प्रवचन , प्रवर्तन अथवा संरक्षण कर सके ।। 5
कर्त्रावित्रा प्रवक्ता च भवता मधुसूदन ।
त्यक्ते महीतले देव विनष्टम कः प्रवक्ष्यति ।। 6
इस धर्म के प्रवर्तक , रक्षक और उपदेशक आप ही हैं । आपने पहले जैसे मधु दैत्य को मारकर वेदों की रक्षा की थी , वैसे ही अपने धर्म की भी रक्षा कीजिये । स्वयं प्रकाश परमात्मन ! जब आप पृथ्वीतल से अपनी लीला संवरण कर लेंगे , तब तो इस धर्म का लोप ही हो जायेगा तो फिर उसे कौन बतावेगा ?
तत्त्वं न धर्मज्ञ धर्मस्त्वद्भक्तिलक्षणः ।
यथा यस्य विधीयेत तथा वर्णय में प्रभु ।। 7
आप समस्त धर्मों के मर्मज्ञ हैं ; इसलिए प्रभो ! आप उस धर्म का वर्णन कीजिये , जो आपकी भक्ति प्राप्त कराने वाला है । और यह भी बतलाइये कि किसके लिए उसका कैसा विधान है ।। 7
इत्थं स्वभृत्य मुख्येन पृष्टः स भगवान हरिः ।
प्रीतः क्षेमाय मर्त्यानां धर्मानाह सनातनान।।8
श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित ! जब इस प्रकार भक्त शिरोमणि उद्धव जी ने प्रश्न किया तब भगवान् श्री कृष्ण ने अत्यंत प्रसन्न हो कर प्राणियों के कल्याण के लिए उन्हें सनातन धर्म का उपदेश दिया ।। 8
श्री भगवानुवाच
धर्म्य एष तव प्रश्नो नैः श्रेयस करो नृणाम ।
वर्णाश्रम चारवतां तमुद्धव निबोध मे।। 9
भगवान श्री कृष्ण ने कहा – प्रिय उद्धव ! तुम्हारा प्रश्न धर्ममय है, क्योंकि इस से वर्णाश्रम धर्मी मनुष्यों को प्ररम कल्याणस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है । अतः मैं तुम्हे उन धर्मों का उपदेश करता हूँ , सावधान होकर सुनो ।। 9
आदौ कृतयुगे वर्णो नृणाम हंस इति स्मृतः ।
कृतकृत्याः प्रजा जात्या तस्मात् कृतयुगं विदुः ।। 10
जिस समय इस कल्प का प्रारम्भ हुआ था और पहला सतयुग चल रहा था , उस समय सभी मनुष्यों का ‘ हंस ‘ नामक एक ही वर्ण था । उस युग मे सब लोग जन्म से ही कृतकृत्य होते थे , इसीलिए उसका एक नाम कृतयुग भी था ।। 10
वेदः प्रणव एवाग्रे धर्मोऽहं वृषरूपधृक ।
उपासते तपोनिष्ठा हंसं मां मुक्त किल्बिषाः।। 11
उस समय केवल प्रणव ही वेद था और तपस्या , शौच , दया एवं सत्यरूप चार चरणों से युक्त मैं ही वृषभ धारी धर्म था । उस समय के निष्पाप एवं परम तपस्वी भक्तजन मुझ हंसस्वरूप शुद्ध परमात्मा की उपासना करते थे । 11
त्रेतामुखे महाभाग प्राणान्मे हृदयात्त्रयी।
विद्या प्रादुरभूत्तस्या अहमासं त्रिवृन्मखः ।। 12
परम भाग्यवान उद्धव ! सत्ययुग के बाद त्रेता युग का आरम्भ होने पर मेरे ह्रदय से श्वास – प्रश्वास के द्बारा ऋग्वेद , सामवेद और यजुर्वेद त्रयी विद्या प्रकट हुई और उस त्रयीविद्या से होता , अध्वर्यु और उद्गाता के कर्म रूप तीन भेदों वाले यज्ञ के रूप से मैं प्रकट हुआ ।।12
विप्र क्षत्रिय विट्शूद्रा मुखबाहूरूपादजाः।
वैराजात पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणाः।। 13
विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण , भुजा से क्षत्रिय , जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्र की उत्पत्ति हुई । उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरण से होती है । 13
गृहाश्रमो जघनतो ब्रह्मचर्यं हृदो मम ।
वक्षः स्थानाद वने वासो न्यासः शीर्षणि संस्थितः ।। 14
उद्धव जी ! विराट पुरुष भी मैं ही हूँ ; इसलिए मेरे ही उरुस्थल से गृहस्थाश्रम , ह्रदय से ब्रह्मचर्याश्रम , वक्षः स्थल से वानप्रस्थाश्रम और मस्तक से संन्यासाश्रम की उत्पत्ति हुई है ।
वर्णा नामा श्रमाणां च जन्म भूम्यनु सारिणीः।
आसन प्रकृतयो नृणाम नी चैर्नी चोत्तमोत्तमाः।। 15
इन वर्ण और आश्रमों के पुरुषों के स्वभाव भी इनके जन्म स्थानों के अनुसार उत्तम , माध्यम और अधम हो गए अर्थात उत्तम स्थानों से उत्पन्न होने वाले वर्ण और आश्रमों के स्वभाव उत्तम और अधम स्थानों से उत्पन्न होने वालो के अधम हुए ।। 15
शमो दमस्तपः शौचं संतोषः क्षान्तिरार्जवम ।
मद्भक्तिश्च दया सत्यं ब्रह्म प्रकृतयस्त्विमाः ।। 16
शम , दम , तपस्या , पवित्रता , संतोष , क्षमा शीलता , सीधापन , मेरी भक्ति , दया और सत्य – ये ब्राह्मण वर्ग के स्वभाव हैं ।। 16
तेजो बलं धृतिः शौर्यं तितिक्षौदार्य मुद्यमः।
स्थैर्यं ब्रहमन्यतैश्वर्यं क्षत्र प्रकृतयस्त्विमाः।। 17
तेज , बल , धैर्य , वीरता , सहन शीलता , उदारता , उद्योग शीलता , स्थिरता , ब्राह्मण भक्ति और ऐश्वर्या – ये क्षत्रिय वर्ण वाले के स्वभाव हैं। 17
आस्तिक्यं दान निष्ठा च अदम्भो ब्रह्मसेवनं ।
अतुष्टिरर्थो पचयैर्वैश्य प्रकृतयस्त्विमाः।। 18
आस्तिकता , दानशीलता , दम्भहीनता , ब्राह्मणों की सेवा करना और धन संचय से संतुष्ट न होना – ये वैश्य वर्ण के स्वभाव हैं ।। 18
शुश्रूषणं द्विजगवां देवानां चाप्यमायया।
तत्र लब्धेन संतोषः शूद्र प्रकृतयस्त्विमाः।। 19
ब्राह्मण , गौ और देवताओं की निष्कपट भाव से सेवा करना और उसी से जो कुछ मिल जाये , उसमें संतुष्ट रहना – ये शूद्र वर्ण के स्वभाव हैं ।। 19
अशौच मनृतं स्तेयं नास्तिक्यं शुष्कविग्रहः ।
कामः क्रोधश्च तर्षश्च स्वभावो ऽन्तेवसायिनाम।। 20
अपवित्रता , झूठ बोलना , चोरी करना , ईश्वर और परलोक की परवाह न करना , झूठमूठ झगड़ना और काम , क्रोध एवं तृष्णा के वश में रहना – ये अन्त्यजों के स्वभाव हैं । 20
अहिंसा सत्यमस्तेय काम क्रोध लोभता ।
भूत प्रिय हितेहा च धर्मोऽयं सार्व वर्णिकः ।। 21
उद्धव जी ! चारों वर्णों और चारों आश्रमों के लिए साधारण धर्म ये हैं कि मन , वाणी और शरीर से किसी की हिंसा न करें ; सत्य पर दृढ रहें , चोरी न करें; काम , क्रोध और लोभ से बचें और जिन कामों के करने से समस्त प्राणियों की प्रसन्नता और उनका भला हो , वही करें ।। 21
द्वितीयं प्राप्यानु पूर्व्याज्जन्मोप नयनं द्विजः ।
वसन गुरूकुले दान्तो ब्रह्मा धीयीत चाहुतः ।। 22
ब्राह्मण , क्षत्रिय तथा वैश्य गर्भाधान आदि संस्कारों के क्रम से यज्ञोपवीत संस्कार रूप द्वितीय जन्म प्राप्त कर के गुरुकुल में रहे और अपनी इन्द्रियों को वश में रखे । आचार्य के बुलाने पर वेद का अध्ययन करे और उसके अर्थ का भी विचार करे ।। 22
मेखलाजिन दण्डाक्ष ब्रह्म सूत्र कमण्डलून।
जटिलोऽधौत दद्वासोऽरक्तपीठः कुशान दधत।। 23
मेखला , मृग चार्म , वर्ण के अनुसार दंड , रुद्राक्ष की माला , यज्ञोपवीत और कमण्डलु धारण करे । सिर पर जटा रखे , शौकीनी के लिए दांत और वस्त्र न धोवे , रंगीन आसान पर न बैठे , कुश धारण करे ।। 23
स्नान भोजन होमेषु जपोच्चारे च वाग्यतः ।
नच्छिन्द्यान्न खरोमणि कक्षोपस्थ गतान्यपि ।। 24
स्नान , भोजन , हवन , जप और मल – मूत्र त्याग के समय मौन रहे ।
रेतो नाव किरेज्जातु ब्रह्मव्रतधरः स्वयं ।
अवकीर्णे अवगाह्यापसु यता सुस्त्रिपदीं जपेत।। 25
अग्न्यर्काचार्य गोविप्र गुरु वृद्ध सुराञ्छुचिः ।
समाहित उपासीत संध्ये च यतवाग जपन ।। 26
ब्रह्मचारी को पवित्रता के साथ एकाग्रचित्त हो कर अग्नि , सूर्य , आचार्य , गौ , ब्राह्मण , गुरु , वृद्धजन और देवताओं की उपासना करनी चाहिए तथा सायंकाल और प्रातः काल मौन हो कर सन्धोपासन एवं गायत्री का जप करना चाहिए ।। 26
आचार्यं मां विजानी यान्नावमन्येत कर्हिचित।
न मर्त्यबुद्ध्यासूयेत सर्वदेवमेयो गुरुः ।। 27
आचार्य को मेरा ही स्वरूप समझे , कभी उनका तिरस्कार न करे । उन्हें साधारण मनुष्य समझ कर दोष दृष्टि न करे ; क्योंकि गुरु सर्वदेवमय होता है ।27
सायं प्रातरूपानीय भैक्ष्यं तस्मै निवेदयेत।
यच्चान्य दप्यनुज्ञातमुप युंजीत संयुतः ।। 28
सायं काल और प्रातः काल दोनों समय जो कुछ भिक्षा में मिले वह लेकर गुरु के आगे रख दे । केवल भोजन ही नहीं , जो कुछ हो सब । तदनन्तर उनके आज्ञानुसार बड़े संयम से भिक्षा आदि का यथोचित उपयोग करे ।
शुश्रूषमाण आचार्यं सदोपासीत नीचवत।
यानशय्या सनस्थानैर्नातिदूरे कृतांजलिः।। 29
आचार्य यदि जाते हों तो उनके पीछे – पीछे चले, उनके सो जाने के बाद बड़ी सावधानी से उनसे थोड़ी दूर पर सोवे । थके हों तो पास बैठ कर चरण दबाव और बैठे हों तो उनके आदेश की प्रतीक्षा में हाथ जोड़कर पास में ही खड़ा रहे । इस प्रकार अत्यंत छोटे व्यक्ति की भांति सेवा सुश्रुषा के द्वारा सदा – सर्वदा आचार्य की आज्ञा में तत्पर रहे ।। 29
एवं वृत्तो गुरु कुले वसेद भोग विवर्जितः ।
विद्या समाप्यते यावद बिभृद व्रतम खण्डितम।। 30
जब तक विद्याध्ययन समाप्त न हो जाये , तब तक सब प्रकार के भोगों से दूर रहकर इसी प्रकार गुरुकुल में निवास करे और कभी अपना ब्रह्मचर्य खंडित न होने दे। 31
यद्यसौ छन्दसां लोक मारोक्ष्यन ब्रह्म विष्टपं ।
गुरवे विन्यसेद देहं स्वाध्यायार्थं बृहद्वृतः ।। 31
यदि ब्रह्मचारी का विचार हो की मैं मूर्तिमान वेदों के निवास स्थान ब्रह्म लोक में जाऊं , तो उसे आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लेना चाहिए और वेदों के स्वाध्याय के लिए अपना सारा जीवन आचार्य की सेवा में ही समर्पित कर देना चाहिए ।
अग्नौ गुरावात्मनि च सर्वभूतेषु मां परम ।
अपृथग्धी रूपासीत ब्रह्म वर्चस्व्य कल्मषः।। 32
ऐसा ब्रह्मचारी सचमुच ब्रह्मतेज से संपन्न हो जाता है और उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं । उसे चाहिए कि अग्नि , गुरु , अपने शरीर और समस्त प्राणियों में मेरी ही उपासना करे और यह भाव रखे कि मेरे तथा सबके ह्रदय में एक ही परमात्मा विराजमान हैं।
स्त्रीणां निरीक्षण स्पर्श संलापक्ष्वेलनादिकम।
प्राणिनो मिथुनी भूतान ग्रहस्थोऽग्रतस्त्यजेत।। 33
ब्रह्मचारी , वानप्रस्थ और सन्यासियों को चाहिए कि वे स्त्रियों को देखना , स्पर्श करना , उनसे बातचीत या हंसी मसखरी आदि करना दूर से ही त्याग दे ।। 33
शौचमाचमनं स्नानं संध्योपासन मार्जवम ।
तीर्थसेवा जपो स्पृश्या भक्ष्या संभाष्य वर्जनम ।। 34
सर्वाश्रम प्रयुक्तो ऽयं नियमः कुलनन्दन ।
मद्भावः सर्व भूतेषु मनो वाक्काय संयमः ।। 35
प्रिय उद्धव ! शौच , आचमन , स्नान , संध्योपासन , सरलता , तीर्थसेवन , जप , समस्त प्राणियों में मुझे ही देखना , मन , वाणी और शरीर का संयम – यह ब्रह्मचारी , गृहस्थ , वानप्रस्थ और सन्यासी – सभी के लिए एक – सा नियम है । अस्पृश्यों को न छूना , अभक्ष्य वस्तुओं को न खाना और जिनसे बोलना नहीं चाहिए उनसे न बोलना – ये नियम भी सबके लिए हैं । 34-35
एवं बृहद व्रतधारो ब्राह्मणो ऽग्निरिव ज्वलन ।
मद्भक्त स्तीव्रतपसा दग्ध कर्माशयो ऽमलः ।। 36
नैष्ठिक ब्रह्मचारी ब्राह्मण इन नियमों का पालन करने से अग्नि के सामान तेजस्वी हो जाता है । तीव्र तपस्या के कारन उसके कर्म – संस्कार भस्म हो जाते हैं , अन्तः करण शुद्ध हो जाता है और वह मेरा भक्त होकर मुझे प्राप्त कर लेता है ।
अथानंतर मावेक्ष्यन यथा जिज्ञासितागमः ।
गुरवे दक्षिणां दत्त्वा स्नायाद गुर्वनुमोदितः ।। 37
प्यारे उद्धव ! यदि नैष्ठिक ब्रह्मचर्य ग्रहण करने की इच्छा न हो – गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहता हो , तो विधिपूर्वक वेदाध्ययन समाप्त करके आचार्य को दक्षिणा देकर और उनकी अनुमति लेकर समावर्तन संस्कार करावे – स्नातक बनकर ब्रह्मचर्याश्रम छोड़ दे ।
गृहम वनम वोपविशेत प्रव्रजेद वा द्विजोत्तमः ।
आश्रमदाश्रमं गच्छेन्नान्यथा मत्परश्चरेत ।। 38
ब्रह्मचारी को चाहिए की ब्रह्मचर्य – आश्रम के बाद गृहस्थ अथवा वानप्रस्थ – आश्रम में प्रवेश करें । किन्तु मेरा आज्ञाकारी भक्त बिना आश्रम के रहकर अथवा विपरीत क्रम से आश्रम – परिवर्तन कर स्वेच्छाचार में न प्रवृत्त हो ।
ग्रहार्थी सदृशीं भार्या मुद्वहेद जुगुप्सिताम ।
यवीयसीम तू वयसा तां सवर्णा मनु क्रमात।। 39
प्रिय उद्धव ! यदि ब्रह्मचर्याश्रम के बाद गृहस्थाश्रम स्वीकार करना हो तो ब्रह्मचारी को चाहिए कि अपने अनुरूप एवं शास्त्रोक्त लक्षणों से संपन्न कुलीन कन्या से विवाह करे । वह अवस्था में अपने से छोटी और अपने ही वर्ण की ही होनी चाहिए । यदि कामवश अन्य वर्ण की कन्या से और विवाह करना हो तो क्रमशः अपने से निम्न वर्ण की कन्या से विवाह कर सकता है ।। 39
इज्याध्ययन दानानि सर्वेषां च द्विजन्मनाम।
प्रतिग्रहो ऽध्यापनं च ब्राह्मणस्यैव याजनं ।। 40
यज्ञ – यागादि , अध्ययन और दान करने का अधिकार ब्राह्मण , क्षत्रिय एवं वैश्यों को समान रूप से हैं । परन्तु दान लेने , पढ़ाने और यज्ञ कराने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को ही है । 40
प्रतिग्रहं मन्यमानस्तपस्तेजोयशोनुदम।
अन्याभ्यामेव जीवेत शिलैर्वा दोषदृक तयोः ।। 41
ब्राह्मण को चाहिए कि इन तीनों वृत्तियों में प्रतिग्रह अर्थात दान लेने की वृत्ति को तपस्या , तेज और यश का नाश करने वाली समझ कर पढ़ाने और यज्ञ कराने के द्वारा ही अपना जीवन निर्वाह करे और यदि इन दोनों वृत्तियों में भी दोष दृष्टि हो – परावलम्बन , दीनता आदि दोष दीखते हों तो अन्न कटने के बाद खेतों में पड़े हुए दाने बीनकर ही अपने जीवन का निर्वाह कर ले ।। 41
ब्राह्मणस्य ही देहोऽयं क्षुद्र कामाय नेष्यते ।
कृच्छ्राय तपसे चेह प्रेत्यानन्तसुखाय च ।। 42
उद्धव ! ब्राह्मण का शरीर अत्यंत दुर्लभ है । यह इसलिए नहीं है कि इसके द्वारा तुच्छ विषय भोग ही भोगे जाएँ । यह तो जीवन पर्यन्त कष्ट भोगने , तपस्या करने और अंत में अनंत आनंद स्वरूप मोक्ष की प्राप्ति करने के लिए हैं ।। 42
शीलोञ्छवृत्तया परितुष्ट चित्तो
धर्मं महान्तं विरजं जुषाणः।
मय्यर्पितात्मा गृह एव तिष्ठन्नाति
प्रसक्तः समुपैती शान्तिम ।। 43
जो ब्राह्मण घर में रहकर अपने महान धर्म का निष्काम भाव से पालन करता है और खेतों में तथा बाजारों में गिरे – पड़े दाने चुन कर संतोषपूर्वक अपने जीवन का निर्वाह करता है , साथ ही अपना शरीर , प्राण , अन्तः करण और आत्मा मुझे समर्पित कर देता है और कहीं भी अत्यंत आसक्ति नहीं करता , वह बिना सन्यास लिए ही परम शांति स्वरूप परम पद प्राप्त कर लेता है ।। 43
समुद्धरन्ति ये विप्रं सीदन्तं मत्परायणं ।
तानुद्धरिष्ये नचिरादाप पदभ्यो नौरिवार्णवत।। 44
जो लोग विपत्ति में पड़े कष्ट पा रहे मेरे भक्त ब्राह्मण को विपत्तियों से बचा लेते हैं , उन्हें मैं शीघ्र ही समस्त आपत्तियों से उसी प्रकार बचा लेता हूँ , जैसे समुद्र में डूबते हुए प्राणी को नौका बचा लेती है ।
सर्वाः समुद्धरेद राजा पितेव व्यसनात प्रजाः ।
आत्मान मात्मना धीरो यथा गजपतिर्गजान।। 45
राजा पिता के समान सारी प्रजा का कष्ट से उद्धार करे – उन्हें बचावे , जैसे गजराज दूसरे गजों की रक्षा करता है और धीर होकर स्वयं अपने आप से अपना उद्धार करे ।। 45
एवं विधो नरपतिर्विमानेनार्क वर्चसा ।
विधूयेहाशुभं कृत्स्नमिन्द्रेण सह मोदते।। 46
जो राजा इस प्रकार प्रजा की रक्षा करता है , वह सारे पापों से मुक्त होकर अंत समय में सूर्य के समान तेजस्वी विमान पर चढ़ कर स्वर्ग लोक में जाता है और इंद्र के साथ सुख भोगता है ।
सीदेन विप्रो वणिग्वृत्त्या पण्यैरे वापदं तरेत।
खड्गेन वाऽऽपदाक्रान्तो न श्ववृत्त्या कथंचन ।। 47
यदि ब्राह्मण अध्यापन अथवा यज्ञ – यागादि से अपनी जीविका न चला सके , तो वैश्य वृत्ति अर्थात व्यापार का आश्रय ले ले और जब तक विपत्ति दूर न हो जाये तब तक करे । यदि बहुत बड़ी विपत्ति का सामना करना पड़े तो तलवार उठा कर क्षत्रियों की वृत्ति से भी अपना काम चला ले , परन्तु किसी भी अवस्था में नीचों की सेवा – जिसे ‘ श्वान वृत्ति ‘ कहते हैं , न करे ।
वैश्य वृत्त्या तु राजन्यो जीवेन मृगययाऽऽपदी।
चरेद वा विप्र रूपेण न श्ववृत्त्या कथंचन।। 48
इसी प्रकार यदि क्षत्रिय भी प्रजापालन आदि के द्वारा अपने जीवन का निर्वाह का कर सके तो वैश्यवृत्ति अर्थात व्यापार का आश्रय ले ले । बहुत बड़ी आपत्ति हो तो शिकार आदि के द्वारा अथवा विद्यार्थियों को पढ़कर अपनी आपत्ति के दिन काट दे , परन्तु नीचों की सेवा , ‘ श्वानवृत्ति’ का आश्रय कभी न ले । 48
शुद्रवृत्तिं भजेद वैश्यः शूद्रः कारुकट क्रियाम ।
कृछ्रान्मुक्तो न गहर्येण वृत्तिम लिप्सेत कर्मणा ।। 49
वैश्य भी आपत्ति के समय शूद्रों की वृत्ति से अपना जीवन – निर्वाह कर ले और शूद्र चटाई बुनने आदि कारू वृत्ति का आश्रय ले ले ; परन्तु हे उद्धव ! ये सारी बातें आपत्ति काल के लिए ही हैं । आपत्ति का समय बीत जाने पर निम्न वर्णों की वृत्ति से जीविकोपार्जन करने का लोभ न करे ।।49
वेदाध्याय स्वधा स्वाहा बल्यन्नाद्यैर्यथोदयं।
देवर्षि पितृ भूतानि मद्रू पाण्यन्वहं यजेत ।। 50
गृहस्थ पुरुष को चाहिए कि वेदाध्ययन रूप ब्रह्म यज्ञ , तर्पण रूप पितृ यज्ञ , हवन रूप देवयज्ञ , काकबलि आदि भूतयज्ञ और अन्नदान रूप अतिथियज्ञ आदि के द्वारा मेरे स्वरूप भूत ऋषि , देवता , मनुष्य एवं अन्य समस्त प्राणियों की यथाशक्ति प्रतिदिन पूजा करता रहे ।। 50
यदृच्छयोपपन्नेन शुक्लेनोपार्जितेन वा ।
धनेनापीडयन भृत्येन न्याये नैवा हरेत क्रतून ।। 51
गृहस्थ पुरुष अनायास प्राप्त अथवा शास्त्रोक्त रीति से उपार्जित अपने शुद्ध धन से अपने भृत्य , आश्रित प्रजाजन को किसी प्रकार का कष्ट न पहुँचाते हुए न्याय और विधि के साथ ही यज्ञ करे ।
कुटुंबेषु न सज्जेत न प्रमाद्येत कुटुम्ब्यपि ।
विपश्चिन्नश्वरं पश्येद दृष्टमपि दृष्टवत ।। 52
प्रिय उद्धव ! गृहस्थ पुरुष कुटुंब में आसक्त न हो । बड़ा कुटुंब होने पर भी भजन में प्रमाद न करे । बुद्धिमान पुरुष को यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि जैसे इस लोक की सभी वस्तुएं नाशवान हैं , वैसे ही स्वर्गादि परलोक के भोग भी नाशवान ही हैं ।। 52
पुत्र दाराप्त बन्धूनां संगमः पांथसंगमः ।
अनुदेहं वियंत्येते स्वप्नो निद्रानुगो यथा ।। 53
यह जो स्त्री-पुत्र , भाई – बंधु और गुरुजनों का मिलना – जुलना है , यह वैसा ही है , जैसे किसी प्याऊ पर बटोही इकठ्ठे हो गए हों । सबको अलग – अलग रस्ते जाना है । जैसे स्वप्न नींद टूटने तक ही रहता है , वैसे ही इन मिलने – जुलने वालों का सम्बन्ध ही बस , शरीर रहने तक ही रहता है ; फिर तो कौन इसको पूछता है । 53
इत्थं परिमृशन्मुक्तो ग्रहेष्व तिथिवद वसन ।
न ग्रहैरनुबध्येत निर्ममो निरहंकृतः।। 54
गृहस्थ को चाहिए कि इस प्रकार विचार करके घर – गृहस्थी में फंसे नहीं , उसमें इस प्रकार अनासक्त भाव से रहे मानो कोई अतिथि निवास कर रहा हो । जो शरीर आदि में अहंकार और घर आदि में ममता नहीं करता , उसे घर – गृहस्थी के फंदे बाँध नहीं सकते ।
कर्मभिर्गृह मेधी यैरिष्ट्वा मामेव भक्तिमान ।
तिष्ठेद वनं वोपविशेत प्रजावान वा परिव्रजेद।। 55
भक्तिमान पुरुष ग्रहस्थोचित शास्त्रोक्त कर्मों के द्वारा मेरी आराधना करता हुआ घर में ही रहे अथवा यदि पुत्रवान हो तो वानप्रस्थ आश्रम में चला जाये या संन्याश्रम स्वीकार कर ले। 55
यस्त्वासक्त मतिर्गेहे पुत्रवित्तैषणातुरः।
स्त्रैणः कृपण धीर्मूढो ममाहमिति बध्यते ।। 56
प्रिय उद्धव ! जो लोग इस प्रकार गृहस्थ जीवन न बिताकर घर – गृहस्थी में ही आसक्त हो जाते हैं , स्त्री , पुत्र और धन की कामनाओं में फंस कर हाय – हाय करते रहते और मूढ़तावश स्त्रीलंपट और कृपण होकर मैं – मेरे के फेर में पड़ जाते हैं , वे बांध जाते हैं ।। 56
अहो मे पितरौ वृद्धौ भार्या बालात्मजाऽऽत्मजाः।
अनाथा मामृते दीनाः कथं जीवन्ति दुःखिताः ।। 57
वे सोचते रहते हैं – हाय ! हाय ! मेरे माँ – बाप बूढ़े हो गए ; पत्नी , बच्चे और मेरे ये सभी आत्मीयजन मेरे न रहने पर दीन , अनाथ और दुखी हो जायेंगे ; फिर इनका जीवन कैसे रहेगा ? 57
एवं गृहाशयाक्षिप्तहृदयो मूढधीरयम ।
अतृप्तस्तननुध्यायन मृतोऽन्धं विशते तमः ।।58
इस प्रकार घर – गृहस्थी की वासना से जिसका चित्त विक्षिप्त हो रहा है , वह मूढ़बुद्धि पुरुष विषय भोगों से कभी तृप्त नहीं होता , उन्हीं मे उलझ कर अपना जीवन खो बैठता है और मरकर घोर तमोमय नरक में जाता है ।। 58
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे सप्तदशोऽध्यायः