uddhav gita

 

 

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अथाष्टादशोऽध्यायः

वानप्रस्थ और सन्यासी के धर्म

 

 

श्री भगवानुवाच

वनं विविक्षुः पुत्रेषु भार्यां न्यस्य सहैव वा।

वन एव वसेच्छान्तस्तृतीयं भागमायुषः ।। 1

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –  प्रिय उद्धव ! यदि गृहस्थ मनुष्य वानप्रस्थ आश्रम में जाना चाहे , तो अपनी पत्नी को पुत्रों के हाथों सौंप दे अथवा अपने साथ ही ले ले और फिर शांत चित्त से अपनी आयु का तीसरा भाग वन में ही रहकर व्यतीत करे ।। 1

 

कन्दमूलफलैर्वान्यैर्मध्यैर्वृत्तिम प्रकल्प्येत ।

वसीत वल्कलं वासस्त तृणपर्णाजिनानि च।। 2

उसे वन के पवित्र कंद – मूल और फलों से ही शरीर निर्वाह करना चाहिए ; वस्त्र की जगह वृक्षों की छाल पहिने अथवा घास – पात और मृगछाला से ही काम चला ले ।। 2

 

केशरोमनखश्मश्रुमलानि बिभृयाद दतः।

धावेदप्सु मज्जेत त्रिकालं स्थण्डिलेशयः ।। 3

केश , रोएं , नख और मूंछ – दाढ़ी रूप शरीर के मल को हटावे नहीं । दातुन न करे । जल में घुस कर त्रिकाल स्नान करे और धरती पर ही पड़ा रहे ।

 

ग्रीष्मे तप्येत पंचाग्नीन वर्षास्वासारषाड जले ।

आकण्ठ मग्नः शिशिरे एवं वृत्तस्त पश्चरेत।। 4

ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्नि टेप , वर्षा ऋतु में खुले मैदान में रहकर वर्षा की बौछार सही । जाड़े के दिनों में गले तक जल में डूबा रहे । इस प्रकार घोर तपस्यामय जीवन व्यतीत करे ।। 4

 

अग्नि पक्वं समश्नीयात काल पक्व मथापि वा ।

उलूखलाश्मकुट्टो वा दन्तो लूखल एव वा ।। 5

कन्द – मूलों को केवल आग में भून कर खा ले अथवा समयानुसार पके हुए फल आदि के द्वारा ही काम चला ले । उन्हें कूटने की आवश्यकता हो तो ओखली में या सिल पर कूट ले , अन्यथा दांतो से ही चबा – चबा कर खा ले ।। 5

 

स्वयं संचिनुयात सर्वमात्मनो वृत्तिकारणम।

देशकालबलाभिज्ञो नाददीतान्यदाऽऽहृतं।। 6

वानप्रस्थाश्रमी को चाहिए कि कौन सा पदार्थ कहाँ से लाना चाहिए , किस समय लाना चाहिए , कौन – कौन पदार्थ अपने अनुकूल हैं – इन बातों को जान कर अपने जीवन निर्वाह के लिए स्वयं ही सब प्रकार के कन्द – मूल – फल आदि ले आवे ।। देश काल आदि से अनभिज्ञ लोगों से लाये हुए अथवा दूसरे समय के संचित पदार्थों को अपने काम में न ले ।।  6

 

वन्यैश्चरु पुरोडाशैर्निर्वपेत कालचोदितान ।

न तु श्रौतेन पशुना मां यजेत वनाश्रमी।। 7

नीवार आदि जंगली अन्न से ही चरु – पुरोडाश आदि तैयार करे और उन्हीं से समयोचित आग्रयण आदि वैदिक कर्म करे । वानप्रस्थ हो जाने पर वेद विहित पशुओं द्वारा मेरा यजन न करे ।। 7

 

अग्निहोत्रं च दर्शश्च पूर्णमासश्च पूर्ववत।

चातुर्मास्यानि च मुने रामनातानि च नैगमैः ।। 8

वेद वेत्ताओं ने वानप्रस्थी के लिए अग्निहोत्र , दर्श , पौर्णमास और चातुर्मास्य आदि का वैसा ही विधान किया है , जैसा गृहस्थों के लिए है ।। 8

 

एवं चीर्णेन तपसा मुनिर्धम निसंततः ।

मां तपोमय माराध्य ऋषिलोकादुपैति मां ।। 9

इस प्रकार घोर तपस्या करते – करते मांस सूख जाने के कारण वानप्रस्थी की एक – एक नस दिखने लगती है । वह इस तपस्या के द्वारा मेरी आराधना करके पहले तो ऋषियों के लोक में जाता है और वहाँ से फिर मेरे पास आ जाता है ; क्योंकि तप मेरा ही स्वरूप है ।। 9

 

यस्त्वेतत कृच्छ्रत चीर्णं तपो निःश्रेयसं महत ।

कामायाल्पीयसे युञ्जयाद बालिशः कोपरस्ततः ।। 10

प्रिय उद्धव ! जो मनुष्य बड़े कष्ट से किये हुए और मोक्ष देने वाले इस महान तपस्या को स्वर्ग , ब्रह्मलोक आदि छोटे – मोटे फलों की प्राप्ति के लिए करता है , उससे बढ़ कर मूर्ख और कौन होगा ? इसलिए तपस्या का अनुष्ठान निष्काम भाव से ही करना चाहिए ।

 

यदासौ नियमेऽकल्पो जरया जात वेपथुः ।

आत्मन्यग्नीन समारोप्य मच्चित्तो ग्निम समाविशेत ।। 11

प्यारे उद्धव ! वानप्रस्थी जब नियमों का पालन करने में असमर्थ हो जाएँ , बुढ़ापे के कारण उसका शरीर कांपने लगे , तब यज्ञाग्नियों को भावनाओं के द्वारा अपने अन्तः करण में आरोपित कर ले और अपन मन मुझ में लगा कर अग्नि में प्रवेश कर जाये । ( यह विधान केवल उनके लिए है जो विरक्त नहीं हैं )11

 

यदा कर्मविपाकेषु लोकेषु निर्यात्मसु ।

विरागो जायते सम्यङ् न्यस्ताग्निः प्रव्रजेत्ततः ।। 12

यदि उसकी समझ में यह बात आ जाये कि काम्य कर्मों से उनके फलस्वरूप जो लोक प्राप्त होते हैं , वे नरकों के समान ही दुःख पूर्ण हैं और मन में लोक – परलोक से पूरा वैराग्य हो जाये तो विधिपूर्वक यज्ञाग्नियों का परित्याग करके संन्यास ले ले ।। 12

 

इष्टवा यथोपदेशं मां दत्त्वा सर्वस्वमृत्विजे ।

अग्नीन स्वप्राण आवेश्य निरपेक्षः परिव्रजेत।। 13

जो वानप्रस्थी संन्यासी होना चाहे वह पहले वेद विधि के अनुसार आठों प्रकार के श्राद्ध और प्राजापत्य यज्ञ से मेरा यजन करे । इसके बाद अपना सर्वस्व ऋत्विजों को दे दे । यज्ञाग्नियों को अपने प्राणों में लीन कर ले और फिर किसी भी स्थान , वस्तु और व्यक्तियों कि अपेक्षा न रखकर स्वच्छंद विचरण करे ।। 13

 

विप्रस्य वै संन्यसतो देवा दारादिरूपिणः ।

विघ्नान कुर्वन्त्ययं ह्यसमानाक्रम्य समियात परम ।। 14

उद्धव जी ! जब ब्राह्मण संन्यास लेने लगता हैं , तब देवता लोग स्त्री – पुत्रादि सगे – सम्बन्धियों का रूप धारण करके उसके संन्यास – ग्रहण में विघ्न डालते हैं । वे सोचते हैं कि ‘ अरे ‘ यह तो हम लोगों की अवहेलना कर , हम लोगों को लांघ कर परमात्मा को प्राप्त होने जा रहा है ।। 14

 

बिभृयाच्चेन्मुनिर्वासः कौपीनाच्छादनं परम ।

त्यक्तं न दण्डपात्राभ्यामन्यत किंचिद नापदि।। 15

यदि संन्यासी वस्त्र धारण करे तो केवल लंगोटी लगा ले और अधिक से अधिक उसके ऊपर एक ऐसा छोटा टुकड़ा लपेट ले कि जिसमें लंगोटी ढक जाये तथा आश्रमोचित दण्ड और कमण्डलु के अतिरिक्त और कोई भी वस्तु अपने पास न रखे । यह नियम आपत्तिकाल को छोड़ कर सदा के लिए है ।15

 

दृष्टिपूतं न्यसेद पादं वस्त्रपूतं पिबेज्जलम।

सत्यपूतां वदेद वाचं मनः पूतं समाचरेत ।। 16

नेत्रों से धरती देख कर पैर रखे , कपड़े से छानकर जल पिए , मुँह से प्रत्येक बात सत्यपूत – सत्य से पवित्र हुई ही निकाले और शरीर से जितने भी काम करे , बुद्धि – पूर्वक – सोच – विचार कर ही करे । 16

 

मौनानी ह्यनिलायामा दण्डा वाग्देहचेतसाम ।

न ह्येते यस्य संत्यंग वेणुभिर्न भवेद यतिः ।। 17

वाणी के लिए मौन , शरीर के लिए निश्चेष्ट स्थिति और मन के लिए प्राणायाम दण्ड हैं । जिसके पास ये तीनों दण्ड नहीं हैं , वह केवल शरीर पर बांस का दण्ड धारण करने से दंडी स्वामी नहीं हो जाता ।। 17

 

भिक्षां चतुर्षु वर्णेषु विगह्यार्न वर्जयंश्चरेत ।

सप्तागारान संक्लृप्तां स्तुष्येल्लब्धेन तावता ।। 18

संन्यासी को चाहिए कि जातिच्युत और गोघाती आदि पतितों को छोड़कर चारों वर्णों की भिक्षा ले । केवल अनिश्चित सात घरों से जितना मिल जाये , उतने से ही संतोष कर ले । 18

 

बहिर्जलाशयं गत्वा तत्रोप स्पृश्य वाग्यतः ।

विभज्य पावितं शेषं भुंजीताशेषमाहृतं ।।19

इस प्रकार भिक्षा लेकर बस्ती के बाहर जलाशय पर जाये , वहां हाथ – पैर धोकर जल के द्वारा भिक्षा पवित्र कर ले ; फिर शास्त्रोक्त पद्धति से जिन्हें भिक्षा का भाग देना चाहिए , उन्हें देकर जो कुछ बचे उसे मौन होकर खा ले । दूसरे समय के लिए बचाकर न रखे और न अधिक मांग कर ही लाये ।। 19

 

एकश्चरेन्महीमेतां निःसंगः संयतेन्द्रियः ।

आत्मक्रीड आत्मरत आत्मवान समदर्शनः ।। 20

संन्यासी को पृथ्वी पर अकेले ही विचरना चाहिए । उसकी कहीं भी आसक्ति न हो , सब इन्द्रियां अपने वश में हों। वह अपने आप में ही मस्त रहे , आत्म प्रेम में ही तन्मय रहे , प्रतिकूल – से – प्रतिकूल परिस्थितियों में भी धैर्य रखे और सर्वत्र समान रूप से स्थित परमात्मा का अनुभव करता रहे । 

 

विविक्तक्षेमशरणो मद्भाव विमलाशयः ।

आत्मानंचिन्तयेदेकमभेदेन मया मुनिः ।। 21

संन्यासी को निर्जन और निर्भय एकांत स्थान में रहना चाहिए । उसका ह्रदय निरंतर मेरी भावना से विशुद्ध बना रहे । वह अपने – आपको मुझसे अभिन्न और अद्वितीय , अखंड के रूप में चिंतन करे ।। 21

 

अन्वीक्षे तात्मनो बन्धं मोक्षं च ज्ञाननिष्ठया ।

बंध इन्द्रिय विक्षेपो मोक्ष एषां च संयमः ।। 22

वह अपनी ज्ञान निष्ठा से चित्त के बंधन और मोक्ष पर विचार करे तथा निश्चय करे कि इन्द्रियों का विषयों के लिए विक्षिप्त होना – चंचल होना बंधन है और उनको संयम में रखना ही मोक्ष है ।। 22

 

तस्मान्नियम्य षड्वर्ग मद्भावेन चरेन्मुनिः ।

विरक्तः क्षुल्लकामेभ्यो लब्ध्वाऽऽत्मनि ।। 23

इसलिए संन्यासी को चाहिए कि मन एवं पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को जीत ले , भोगों की क्षुद्रता समझ कर उनकी ओर से सर्वथा मुँह मोड़ ले और अपने आप में ही परम आनंद का अनुभव करे । इस प्रकार वह मेरी भावना से भरकर पृथ्वी में विचरता रहे ।। 23

 

पुरग्राम व्रजान सार्थान भिक्षार्थं प्रविशंश्चरेत ।

पुण्यदेश सरिच्छैलवनाश्रमवतीं महीम ।। 24

केवल भिक्षा के लिए ही नगर , गाँव , अहीरों की बस्ती या यात्रियों की टोली में जाये । पवित्र देश , नदी , पर्वत , वन और आश्रमों से पूर्ण पृथ्वी में बिना कहीं ममता जोड़े घूमता फिरता रहे ।।

 

वानप्रस्थाश्रमपदेश्वभीक्ष्णं भैक्ष्यमाचरेत ।

संसिध्यत्याश्व संमोहः शुद्धसत्वः शिलान्धसा ।। 25

भिक्षा भी अधिकतर वानप्रस्थियों के आश्रम से ही ग्रहण करे ; क्योंकि कटे हुए खेतों के दाने से बनी हुई भिक्षा शीघ्र ही चित्त को शुद्ध कर देती है और उस से बचा – खुचा मोह दूर होकर सिद्धि प्राप्त हो जाती है । 25

 

नैतद वस्तुतया पश्येद दृश्यमानं विनश्यति ।

असक्तचित्तो विरमेदिहामुत्र चिकीर्षितात।। 26

विचारवान संन्यासी दृश्यमान जगत को सत्य वस्तु कभी न समझे ; क्योंकि यह तो प्रत्यक्ष ही नाशवान है । इस जगत में कहीं भी अपने चित्त को लगाए नहीं । इस लोक और परलोक में जो कुछ करने पाने की इच्छा हो उससे विरक्त हो जाये ।। 26

 

यदेतदात्मनि जगन्मनोवाक्प्राण संहतं ।

सर्वं मायेति तर्केण स्वस्थ्यस्त्यक्त्वा न तत स्मरेत ।। 27

संन्यासी विचार करे कि आत्मा में जो मन , वाणी और प्राणों का संघात रूप यह जगत है , वह सारा – का – सारा माया ही है । इस विचार के द्वारा इसका बाध करके अपने स्वरूप में स्थित हो जाये और फिर कभी उसका स्मरण भी न करे ।। 27

 

ज्ञान निष्ठो विरक्तो वा मद्भक्तो वानपेक्षकः ।

सलिंगाना श्रमांस्त्यक्त्वा चरेदविधिगोचरः।। 28

ज्ञान निष्ठ , विरक्त , मुमुक्षु और मोक्ष की भी अपेक्षा न रखने वाला मेरा भक्त आश्रमों की मर्यादा में बद्ध नहीं है । वह चाहे तो आश्रमों और उनके चिह्नों को छोड़ – छाड़ कर , वेद -शास्त्र के विधि – निषेधों से परे होकर स्वच्छंद विचरे ।।28

 

बुधो बालकवत क्रीडेत कुशलो जडवच्चरेत।

वदेदुन्मत्तवद विद्वान् गोचर्यां नैग मश्चरेत।। 29

वह बुद्धिमान होकर भी बालकों के समान खेले । निपुण होकर भी जड़वत रहे , विद्वान होकर भी पागल की तरह बातचीत करे और समस्त वेद – विधियों का जानकार होकर भी पशु वृत्ति से ( अनियत आचारवान ) रहे ।

 

वेद वादरतो न स्यान्न पाखंडी न हैतुकः।

शुष्क वाद विवादे न कंचित पक्षं समाश्रयेत ।। 30

उसे चाहिए कि वेदों के कर्म काण्ड भाग की व्याख्या में न लगे , पाखण्ड न करे , तर्क – वितर्क से बचे और जहाँ कोरा वाद – विवाद चल रहा हो वहां कोई पक्ष न ले ।। 31

 

नो द्विजेत जनाद धीरो जनं चोद्वेजयेन्न तु।

अति वादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कंचन ।

देहमुद्दिश्य पशुवद वैरं कुर्यान्न केनचित।। 31

वह इतना धैर्यवान हो कि उसके मन में किसी भी प्राणी से उद्वेग न हो और वह स्वयं भी किसी प्राणी को उद्विग्न न करे । उसकी कोई निंदा करे तो , प्रसन्नता से सह ले ; किसी का अपमान न करे । प्रिय उद्धव ! संन्यासी इस शरीर के लिए किसी से भी किसी से भी बैर न करे । ऐसा वैर तो पशु ही करते हैं ।।31

 

एक एव परो ह्यात्मा भूतेष्वात्मन्यवस्थितः।

यथेन्दुरुद्पात्रेषु भूतान्येकात्मकानि च ।। 32

जैसे एक ही चन्द्रमा जल से भरे हुए विभिन्न पात्रों में अलग – अलग दिखाई देता है , वैसे ही एक ही परमात्मा समस्त प्राणियों में और अपने में भी  स्थित है । सबकी आत्मा तो एक है ही , पंचभूतों से बने हुए शरीर भी सबके एक ही हैं ; क्योंकि सब पांचभौतिक ही तो हैं ।( ऐसी अवस्था में किसी से भी वैर – विरोध करना अपना ही वैर – विरोध है ) 32

 

अलब्ध्वा न विशिदेत काले कालेऽशनं क्वचित ।

लब्ध्वा न हृष्येद धृतिमानुभयं दैव तन्त्रितं।। 33

प्रिय उद्धव ! संन्यासी को किसी दिन यदि समय पर भोजन न मिले , तो उसे दुखी नहीं होना चाहिए और यदि बराबर मिलता रहे तो हर्षित नहीं होना चाहिए । उसे चाहिए कि वह धैर्य रखे । मन में हर्ष – विषाद दोनों प्रकार के विकार न आने दे ; क्योंकि भोजन मिलना और न मिलना दोनों ही प्रारब्ध के अधीन हैं । 33

 

आहारार्थं समीहेत युक्तं तत प्राणधारणं।

तत्त्वं विमृश्यते तेन तद विज्ञाय विमुच्यते ।। 34

भिक्षा अवश्य मांगनी चाहिए , ऐसा करना उचित ही है ; क्योंकि भिक्षा से ही प्राणों की रक्षा होती है । प्राण रहने से ही तत्त्व का विचार होता है और तत्त्व विचार से तत्त्व ज्ञान होकर मुक्ति मिलती है। 34

 

यदृच्छयोपपन्नान्न मद्याच्छ्रेष्ठ मुतापरम।

तथा वासस्तथा शय्यां प्राप्तं प्राप्तं भजेन्मुनिः ।।35

संन्यासी को प्रारब्ध के अनुसार अच्छी या बुरी – जैसी भी भिक्षा मिल जाये , उसी से पेट भर ले । शास्त्र और बिछौने भी जैसे भी मिल जाएं , उन्हीं से काम चला ले । उनमें अच्छेपन या बुरेपन की कल्पना न करे ।। 35

 

शौचमाचमनं स्नानं न तु चोदनया चरेत ।

अन्यांश्च नियमान ज्ञानी यथाहं लीलयेश्वरः ।। 36

जैसे मैं अपने परमेश्वर होने पर भी अपनी लीला से ही शास्त्रोक्त नियमों का पालन करता हूँ , वैसे ही ज्ञान निष्ठ पुरुष भी शौच , आचमन , स्नान और दूसरे नियमों का लीला से ही आचरण करे । वह शास्त्र विधि के अधीन हो कर विधि – किंकर होकर न करे ।। 36

 

न हि तस्य विकल्पाख्या या च मद्वीक्षया हता।

आदेहान्तात क्वचित ख्यातिस्ततः सम्पद्यते मया।। 37

क्योंकि ज्ञाननिष्ठ पुरुष को भेद की प्रतीति ही नहीं होती । जो पहले थी , वह भी मुझ सर्वात्मा के साक्षात्कार से नष्ट हो गई । यदि कभी – कभी मरण – पर्यन्त बाधित भेद की प्रतीति भी होती है , तब भी देहपात हो जाने पर वह मुझसे एक हो जाता है । 37

 

दुःखोदर्केषु कामेषु जातनिर्वेद आत्मवान ।

अजिज्ञासित मद्धर्मो गुरुं मुनिमुपाव्रजेत ।। 38

उद्धव जी ! ( यह तो हुई ज्ञानवान की बात , अब केवल वैराग्यवान की बात सुनो ।) जितेन्द्रिय पुरुष , जब यह निश्चय हो जाए कि संसार के विषयों के भोग का फल दुःख – ही – दुःख है , तब वह विरक्त हो जाए और यदि वह मेरी प्राप्ति के साधनों को न जानता हो तो भगवच्चिन्तन में तन्मय रहने वाले ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु की शरण ग्रहण करे । 38

 

यावत् परिचरेद भक्तः श्रद्धावानसूयकः।

यावद ब्रह्म विजानी यान्मामेव गुरुमादृतः ।। 39

वह गुरु की दृढ़ भक्ति करे , श्रद्धा रखे और उनमें दोष कभी न निकाले। जब तक ब्रह्म का ज्ञान हो , तब तक बड़े आदर से मुझे ही गुरु के रूप में समझता हुआ उनकी सेवा करे ।। 39

 

यस्त्वसंयतषड्वर्गः प्रचंडेन्द्रिय सारथिः ।

ज्ञानवैराग्य रहितस्त्रिदंडमुपजीवति ।। 40

सुरानात्मानमात्मस्थम निह्नुते मां च धर्महा।

अविपक्वकषायोऽस्मादमुष्माच्च विहीयते ।। 41

किन्तु जिसने पांच इन्द्रियाँ और मन , इन छहों पर विजय नहीं प्राप्त की है , जिसके इन्द्रियरूपी घोड़े और बुद्धि रुपी सारथि बिगड़े हुए है और जिसके ह्रदय में न ज्ञान है और न तो वैराग्य , वह यदि त्रिदंडी संन्यासी का वेश धारण कर पेट पालता है तो वह सन्यास धर्म का सत्यानाश ही कर रहा है और अपने पूज्य देवताओं को , अपने आपको और अपने ह्रदय में स्थित मुझे ठगने की चेष्टा करता है । अभी उस वेश मात्रा के संन्यासी की वासनाएं क्षीण नहीं हुई है ; इसलिए वह इस लोक और परलोक दोनों से हाथ धो बैठता है । 40-41

 

भिक्षोर्धर्मः शमोहिंसा तप ईक्षा वनौकसः ।

ग्रहिणो भूतरक्षेज्या द्विजस्याचार्य सेवनं ।। 42

संन्यासी का मुख्य धर्म है – शांति और अहिंसा । वानप्रस्थी का मुख्य धर्म है – तपस्या और भगवद्भाव । गृहस्थ का मुख्य धर्म है – प्राणियों की रक्षा और यज्ञ – याग तथा ब्रह्मचारी का मुख्य धर्म है – आचार्य की सेवा ।। 42

 

ब्रह्मचर्यं तपः शौचं संतोषो भूत सौहृदम ।

गृहस्थस्याप्यृत्तौ गन्तुः सर्वेषां मदु पासनं।। 43

गृहस्थ के लिए भी ब्रह्मचर्य , तपस्या , शौच , संतोष और समस्त प्राणियों के प्रति प्रेमभाव – ये मुख्य धर्म हैं। मेरी उपासना तो सभी को करनी चाहिए ।। 43

 

इति मां यः स्वधर्मेण भजन नित्यमनन्यभाक ।

सर्व भूतेषु मद्भावो मद्भक्तिम विन्दते दृढ़ां।। 44

जो पुरुष इस प्रकार अनन्य भाव से अपने वर्णाश्रम धर्म के द्वारा मेरी सेवा में लगा रहता है और समस्त प्राणियों में मेरी भावना करता रहता है , उसे मेरी अविचल भक्ति प्राप्त हो जाती है ।। 44

 

भक्तयोद्ध वानपायिन्या सर्वलोकमहेश्वरम ।

सर्वोत्पत्त्यप्ययं ब्रह्म कारणं मोपयाति सः।। 45

उद्धव जी ! मैं सम्पूर्ण लोकों का एकमात्र स्वामी , सबकी उत्पत्ति और प्रलय का परम कारण ब्रह्म हूँ । नित्य निरंतर बढ़ने वाली अखंड भक्ति के द्वारा वह मुझे प्राप्त कर लेता है । 45

 

इति स्वधर्म निर्णिक्त सत्त्वो निर्ज्ञात मद्गतिः ।

ज्ञान विज्ञान सम्पन्नो नचिरात समुपैति मां ।। 46

इस प्रकार वो गृहस्थ अपने धर्म पालन के द्वारा अन्तः करण को शुद्ध करके मेरे ऐश्वर्या को – मेरे स्वरूप को जान लेता है और ज्ञान – विज्ञान से संपन्न हो कर शीघ्र ही मुझे प्राप्त कर लेता है ।। 46

 

वर्णाश्रमवतां धर्म एष आचारलक्षणः ।

स एव मद्भक्ति युक्तो निः श्रेयस्करः परः ।। 47

मैंने तुम्हे यह सदाचार रूप वर्णाश्रमियों का धर्म बतलाया है । यदि इस धर्मानुष्ठान में मेरी भक्ति का पुट लग जाए , तब तो इस से अनायास ही परम कल्याण स्वरूप मोक्ष की प्राप्ति हो जाए ।47

 

एतत्ते अभिहितम साधो भवान पृच्छति यच्च मां ।

यथा स्वधर्म संयुक्तो भक्तो मां समियात परम ।। 48

साधुस्वभाव उद्धव ! तुमने मुझसे जो प्रश्न किया था उसका उत्तर मैंने दे दिया और यह बतला दिया की अपने धर्म का पालन करने वाला भक्त मझ परब्रह्म स्वरूप को किस प्रकार प्राप्त होता है ।।48

 

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