अथैकोनविंशो अध्याय
भक्ति , ज्ञान और यम – नियमादि साधनों का वर्णन
श्री भगवानुवाच
यो विद्या श्रुत संपन्न आत्मवान नानु मानिकः।
माया मात्र मिदं ज्ञात्वा ज्ञानम् च मयि सन्यसेत।।1
भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं – उद्धव जी ! जिसने उपनिषदादि शास्त्रों के श्रवण , मनन और निदिध्यासन के द्वारा आत्मसाक्षात्कार कर लिया है, जो ब्रह्मनिष्ठ और श्रोत्रिय हैं , जिसका निश्चय केवल युक्तियों और अनुमानों पर ही निर्भर नहीं करता , दूसरे शब्दों में – जो केवल परोक्ष ज्ञानी नहीं है , वह यह जान कर कि सम्पूर्ण द्वैत प्रपंच और इसकी निवृत्ति का साधन वृत्तिज्ञान मायामात्र है , उन्हें मुझमें लीन कर दे , वे दोनों ही मुझ आत्मा में अध्यस्त हैं , ऐसा जान ले । 1
ज्ञानिनस्त्वहमेवेष्टः स्वार्थो हेतुश्च संमतः ।
स्वर्गश्चैवापवर्गश्च नान्यो ऽर्थो मदृते प्रियः ।। 2
ज्ञानी पुरुष का अभीष्ट पदार्थ मैं ही हूँ , उसके साधन – साध्य , स्वर्ग और अपवर्ग भी मैं ही हूँ , मेरे अतिरिक्त और किसी भी पदार्थ से वह प्रेम नहीं करता ।। 2
ज्ञान विज्ञान संसिद्धाः पदं श्रेष्ठं विदुर्मम ।
ज्ञानी प्रियतमो ऽतो मे ज्ञान नासौ बिभर्ति मां ।। 3
जो ज्ञान और विज्ञान से संपन्न सिद्धपुरुष हैं , वे ही मेरे वास्तविक स्वरूप को जानते हैं । इसीलिए ज्ञानी पुरुष मुझे सबसे अधिक प्रिय हैं ।उद्धव जी ! ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञान के द्वारा निरंतर मुझे अपने अन्तः करण मे धारण करता है ।।3
तपस्तीर्थं जपो दानं पवित्राणीतराणि च ।
नालं कुर्वन्ति तां सिद्धिं या ज्ञान कलया कृता।। 4
तत्त्व ज्ञान के लेश मात्र का उदय होने से जो सिद्धि प्राप्त होती है , वह तपस्या , तीर्थ , जप , दान अथवा अन्तः करण शुद्धि और किसी भी साधन से पूर्णतया नहीं हो सकती ।।4
तस्माज्ज्ञानेन सहितं ज्ञात्वा स्वात्मान मुद्धव।
ज्ञान विज्ञान सम्पन्नो भज मां भक्तिभावितः।।5
इसलिए मेरे प्यारे उद्धव ! तुम ज्ञान के सहित अपने आत्म स्वरूप को जान लो और फिर ज्ञान – विज्ञान से संपन्न होकर भक्ति भाव से मेरा भजन करो ।5
ज्ञान विज्ञान यज्ञेन मामिष्टवाऽऽत्मानमात्मनि।
सर्वयज्ञपतिं मां वै संसिद्धिं मुनयोऽगमन ।। 6
बड़े – बड़े ऋषि – मुनियों ने ज्ञान – विज्ञान रूप यज्ञ के द्वारा अपने अन्तः – करण में मुझ सब यज्ञों के अधिपति आत्मा का यजन करके परम सिद्धि प्राप्त की है ।।6
त्वय्युद्धवाश्रयति यस्त्रिविधो विकारो
मायांतराऽऽपतति नाद्यप वर्गयोर्यत ।
जन्मादयो ऽस्य यदमी तव तस्य किं स्यु –
राद्यन्त योर्यदसतो ऽस्ति तदेव मध्ये ।। 7
उद्धव ! आध्यात्मिक , आधिदैविक और आदिभौतिक – इन तीनों विकारों की समष्टि ही शरीर है और वह सर्वथा तुम्हारे आश्रित है । यह पहले नहीं था और अंत में नहीं रहेगा ; केवल बीच में ही दिख रहा था । इसलिए इसे जादू के खेल के समान माया ही समझना चाहिए । इसके जो जन्मना , रहना , बढ़ना , बदलना , घटना और नष्ट होना – ये छह भाव विकार हैं , इनसे तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं है । यही नहीं , ये विकार उसके भी नहीं हैं ; क्योंकि वह स्वयं असत है । असत वस्तु तो पहले नहीं थी , बाद में भी नहीं रहेगी ; इसलिए बीच में भी उसका कोई अस्तित्व नहीं होता ।
उद्धव उवाच
ज्ञानम् विशुद्धं विपुलं यथैत-
द्वैराग्य विज्ञानयुतं पुराणम।
आख्याहि विश्वेश्वर विश्वमूर्ते
त्वद्भक्तियोगं च महदविमृग्यं।। 8
उद्धव जी ने कहा – विश्वरूप परमात्मन ! आप ही विश्व के स्वामी हैं । आपका यह वैराग्य और विज्ञान से युक्त सनातन एवं विशुद्ध ज्ञान जिस प्रकार सुदृढ़ हो जाये , उसी प्रकार मुझे स्पष्ट करके समझाइये और उस अपने भक्तियोग का भी वर्णन कीजिये , जिसे ब्रह्मा आदि महापुरुष भी ढूंढा करते हैं ।। 8
तापत्रयेणाभिहतस्य घोरे
सन्तप्य मानस्य भवाध्वनीश ।
पश्यामि नान्यच्छरणं तवाङ्घ्रि –
द्वंद्वा तपत्राद मृताभिवर्षात।। 9
मेरे स्वामी ! जो पुरुष इस संसार के विकट मार्ग में तीनों तापों के थपेड़े खा रहे हैं और भीतर – बाहर जल भुन रहे हैं , उनके लिए आपके अमृत वर्षी युगल चरणारविन्दों की छत्र – छाया के अतिरिक्त और कोई भी आश्रय नहीं दीखता ।। 9
दष्टं जनं संपतितं बिलेऽस्मिन
कालाहिना क्षुद्रसुखोरुतर्षम।
समुद्धरैनं कृपया ऽपवर्ग्यै-
र्वचो भिरासिञ्च महानुभाव ।। 10
महानुभाव ! आपका यह अपना सेवक अँधेरे कुँएं में पड़ा हुआ है , कालरूपी सर्प ने इसे डस रखा है ; फिर भी विषयों के क्षुद्र सुख – भोगों की तीव्र तृष्णा मिटती नहीं , बढ़ती ही जा रही है । आप कृपा कर के इसका उद्धार कीजिये और इस से मुक्त करने वाली वाणी की सुधा – धारा से इसे सराबोर कर दीजिये ।।10
श्री भगवानुवाच
इत्थमेतत पुरा राजा भीष्मं धर्म भृतां वरं ।
अजात शत्रुः पपृच्छ सर्वेषां नो ऽनुशृण्वतां ।। 11
भगवान श्री कृष्ण ने कहा – उद्धव जी ! जो प्रश्न तुमने मुझसे किया है , यही प्रश्न धर्मराज युधिष्ठिर ने धार्मिक शिरोमणि भीष्म पितामह से किया था । उस समय हम सभी लोग वहां विद्यमान थे ।। 11
श्री भगवानुवाच
निवृत्ते भारते युद्धे सु हृन्निधन विह्वलः ।
श्रुत्वा धर्मान बहून पश्चान्मोक्षधर्मानपृच्छत।।12
जब भारतीय महा युद्ध समाप्त हो चुका था और धर्मराज युधिष्ठिर अपने स्वजन – सम्बन्धियों के संहार से शोक – विह्वल हो रहे थे , तब उन्होंने भीष्म पितामह से बहुत से धर्मों का विवरण सुनने के पश्चात मोक्ष के साधनों के सम्बन्ध में प्रश्न किया था ।। 12
तानहं ते ऽभिधास्यामि देव व्रत मुखाच्छ्रुतान।
ज्ञान वैराग्य विज्ञान श्रद्धा भक्त्युप बृंहितान।। 13
उस समय भीष्म पितामह के मुख से सुने हुए मोक्ष धर्म मैं तुम्हें सुनाऊँगा ; क्योंकि वे ज्ञान , वैराग्य , विज्ञान , श्रद्धा और भक्ति के भावों से परिपूर्ण हैं ।।
नवैकादश पंच त्रीन भावान भूतेषु येन वै।
ईक्षे ताथै कमप्येषु तज्ज्ञानं मम निश्चितं ।। 14
उद्धव जी ! जिस ज्ञान से प्रकृति , पुरुष , महतत्त्व , अहंकार और पंच – तन्मात्रा – ये नौ , पांच ज्ञानेन्द्रिय , पांच कर्मेन्द्रिय और एक मन – ये ग्यारह , पांच महाभूत और तीन गुण अर्थात इन अट्ठाईस तत्त्वों को ब्रह्मा से लेकर तृण तक सम्पूर्ण कार्यों में देखा जाता है – वह परोक्ष ज्ञान है , ऐसा मेरा निश्चय है । 14
एतदेव ही विज्ञानं न तथैकेन येन यत।
स्थित्युत्पत्त्यप्ययान पश्येद भावानां त्रिगुणात्मनां ।। 15
जब जिस एक तत्त्व से अनुगत एकात्मक तत्त्वों को पहले देखता था , उनको पहले के समान न देखे , किन्तु एक परम कारण ब्रह्म को ही देखे , तब यही निश्चित विज्ञान ( अपरोक्ष ज्ञान ) कहा जाता है । ( इस ज्ञान और विज्ञान को प्राप्त करने की युक्ति यह है कि ) यह शरीर आदि जितने भी त्रिगुणात्मक सावयव पदार्थ हैं , उनकी स्थिति , उत्पत्ति और प्रलय का विचार करे ।। 15
आदावन्ते च मध्ये च सृज्यात सृज्यम यदन्वियात।
पुनस्तत्प्रति संक्रामे यच्छिष्येत तदेव सत।। 16
जो तत्त्व वस्तु सृष्टि के प्रारम्भ में और अंत में कारण रूप से स्थित रहती है , वही मध्य में भी रहती है और वही प्रतीयमान कार्य से प्रतीयमान कार्यान्तर में अनुगत भी होती है । फिर भी उन कार्यों का प्रलय अथवा बाध होने पर उसके साक्षी एवं अधिष्ठान रूप से शेष रह जाती है । वही सत्य परमार्थ वस्तु है , ऐसा समझे ।। 16
श्रुतिः प्रत्यक्ष मैतिह्यमनुमानं चतुष्टयम ।
प्रमाणेष्वनवस्थानाद विकल्पात स विरज्यते।। 17
श्रुति, प्रत्यक्ष , ऐतिह्य ( महापुरुषों में प्रसिद्धि ) और अनुमान – प्रमाणों में यह चार मुख्य हैं । इनकी कसौटी पर कसने से दृश्य प्रपंच अस्थिर , नश्वर एवं विकारी होने के कारण सत्य सिद्ध नहीं होता , इसलिए विवेकी पुरुष इस विविध कल्पनारूप अथवा शब्द मात्र प्रपंच से विरक्त हो जाता है ।। 17
कर्मणां परिणामित्वा दाविरिञ्चाद मंगलम ।
विपश्चिन्नेश्वरम पश्येददृष्टमपि दृष्टवत ।। 18
विवेकी पुरुष को चाहिए कि वह स्वर्गादि फल देने वाले यज्ञादि कर्मों के परिणामी – नश्वर होने के कारण ब्रह्मलोक पर्यन्त स्वर्गादि सुख – अदृष्ट को भी इस प्रत्यक्ष विषय – सुख के समान ही अमंगल , दुःखदायी एवं नाशवान समझे ।। 18
भक्तियोगः पुरैवोक्तः प्रिय माणाय तेऽनघ ।
पुनश्च कथयिष्यामि मद्भक्तेः कारणं परम ।। 19
निष्पाप उद्धव ! भक्ति योग का वर्णन मैं तुम्हें पहले ही सुना चुका हूँ ; परन्तु उसमें तुम्हारी बहुत प्रीति है , इसलिए मैं तुम्हें फिर से भक्ति प्राप्त होने का श्रेष्ठ साधन बतलाता हूँ ।।19
श्रद्धामृतकथायां मे शश्वन्मदनु कीर्तनम ।
परिनिष्ठा च पूजायां स्तुतिभिः स्तवनं मम ।। 20
जो मेरी भक्ति प्राप्त करना चाहता हो , वह मेरी अमृतमयी कथा में श्रद्धा रखे ; निरंतर मेरे गुण – लीला और नामों का संकीर्तन करे ; मेरी पूजा में अत्यंत निष्ठा रखे और स्तोत्रों के द्वारा मेरी स्तुति करे ।। 20
आदरः परिचर्यायां सर्वाङ्गैर भिवन्दनम ।
मद्भक्त पूजाभ्यधिका सर्वभूतेषु मन्मतिः ।। 21
मेरी सेवा – पूजा में प्रेम रखे और सामने साष्टांग लोटकर प्रणाम करे ; मेरे भक्तों की पूजा मेरी पूजा से बढ़कर करे और समस्त प्राणियों में मुझे ही देखे ।। 21
मदर्थेष्वङ्ग चेष्टा च वचसा मदगुणेरणम।
मय्यर्पणम च मनसः सर्वकाम विवर्जनम ।। 22
अपने एक – एक अंग की चेष्टा केवल मेरे ही लिए करे , वाणी से मेरे ही गुणों का गान करे और अपना मन भी मुझे ही अर्पित कर दे तथा सारी कामनाएं छोड़ दे ।। 22
मदर्थेऽर्थ परित्यागो भोगस्य च सुखस्य च ।
इष्टम दत्तं हुतं जप्तं मदर्थं यद् व्रतं तपः ।। 23
मेरे लिए धन , भोग और प्राप्त सुख का भी परित्याग कर दे और जो कुछ यज्ञ , दान , हवन , जप , व्रत और तप किया जाये , वह सब मेरे लिए ही करे ।। 23
एवं धर्मैर्मनुष्याणां मुद्धवात्मनिवेदिनाम ।
मयि संजायते भक्तिः कोऽन्योऽर्थोऽस्यावशिष्यते ।।24
उद्धव जी ! जो मनुष्य इन धर्मों का पालन करते हैं और मेरे प्रति आत्म – निवेदन कर देते हैं , उनके ह्रदय में मेरी प्रेममयी भक्ति का उदय होता है और जिसे मेरी भक्ति प्राप्त हो गयी है , उसके लिए और किस दूसरी वस्तु का प्राप्त हो जाना शेष रह जाता है ? 24
यदाऽऽत्मन्यर्पितं चित्तं शान्तं सत्त्वोपबृंहितम ।
धर्मं ज्ञानं सवैराग्य मैश्वर्यं चाभिपद्यते ।। 25
इस प्रकार के धर्मों का पालन करने से चित्त में जब सत्त्व गुण की वृद्धि होती है और वह शांत हो कर आत्मा में लग जाता है , उस समय साधक को धर्म , ज्ञान , वैराग्य और ऐश्वर्य स्वयं ही प्राप्त हो जाते हैं ।। 25
यदर्पितं तद विकल्पे इन्द्रियैः परिधावति।
रजस्वलं चासंनिष्ठं चित्तं विद्धि विपर्ययम ।। 26
यह संसार विविध कल्पनाओं से भरपूर है । सच पूछो तो इसका नाम तो है , किन्तु कोई वस्तु नहीं है । जब चित्त इसमें लगा दिया जाता है , तब इन्द्रियों के साथ इधर – उधर भटकने लगता है । इस प्रकार चित्त में रजोगुण की बाढ़ आ जाती है , वह असत वस्तु में लग जाता है और उसके धर्म , ज्ञान आदि तो लुप्त लुप्त हो ही जाते हैं , वह अधर्म , अज्ञान और मोह का भी घर बन जाता है ।। 26
धर्मो मद्भक्ति कृत प्रोक्तो ज्ञानं चैकात्म्य दर्शनम ।
गुणेष्वसंगो वैराग्य मैश्वर्यं चाणिमादयः ।। 27
उद्धव ! जिस से मेरी भक्ति हो , वही धर्म है ; जिससे ब्रह्म और आत्मा की एकता का साक्षात्कार हो वही ज्ञान है ; विषयों से असंग – निर्लेप रहना ही वैराग्य है और अणिमादि सिद्धियां ही ऐश्वर्य हैं ।
उद्धव उवाच
यमः कतिविधः प्रोक्तो नियमो वारिकर्शन ।
कः शमः को दमः कृष्ण का तितिक्षा धृतिः प्रभो ।। 28
उद्धव जी ने कहा – रिपुसूदन ! यम और नियम कितने प्रकार के हैं ? श्री कृष्ण ! शम क्या है ? दम क्या है ? प्रभो ! तितिक्षा और धैर्य क्या है ?
किं दानं किं तपः शौर्यं किं सत्यमृतमुच्यते।
कस्त्यागः किं धनं चेष्टम को यज्ञः का च दक्षिणा ।। 29
आपन मुझे दान , तपस्या , शूरता , सत्य और ऋत का भी स्वरूप बतलाइये । त्याग क्या है ? अभीष्ट धन कौन सा है ? यज्ञ किसे कहते हैं ? और दक्षिणा क्या वस्तु है ?
पुंसः किंस्विद बलं श्रीमन भगो लाभश्च केशव ।
का विद्या ह्रीः परा का श्रीः किं सुखं दुःख मेव च ।। 30
श्रीमन केशव ! पुरुष का सच्चा बल क्या है ? भग किसे कहते हैं ? और लाभ क्या वस्तु है ? उत्तम विद्या , लज्जा , श्री तथा सुख और दुःख क्या हैं ?
कः पण्डितः कश्च मूर्खः कः पन्था उत्पथश्च कः ।
कः स्वर्गो नरकः कः स्वित को बन्धुरुत किं गृहम।। 31
पंडित और मूर्ख के लक्षण क्या हैं ? सुमार्ग और कुमार्ग का क्या लक्षण है ? स्वर्ग और नरक क्या हैं ? भाई – बन्धु किसे मानना चाहिए ? और घर क्या है ? 31
क आढयः को दरिद्रो वा कृपणः कः क ईश्वरः ।
एतान प्रश्नों मम ब्रूहि विपरीतांश्च सत्पते ।। 32
धनवान और निर्धन किसे कहते हैं ? कृपण कौन है ? और ईश्वर किसे कहते है ? भक्तवत्सल प्रभो ! आप मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दीजिये और साथ ही इनके विरोधी भावों की भी व्याख्या कीजिये ?
श्री भगवानुवाच
अहिंसा सत्यमस्तेयमसंगो ह्रीरसंचयः।
आसिक्तयं ब्रह्मचर्यं च मौनं स्थैर्यं क्षमाभयम।। 33
शौचं जपस्तपो होमः श्रद्धाऽऽतिथ्यं मदर्चनम.
तीर्थाटनं परार्थेहा तुष्टिराचार्यसेवनं ।। 34
एते यमाः सनियमा उभयोर्द्वादश स्मृताः ।
पुंसामुपासितास्तात यथाकामं दुहन्ति हि।। 35
भगवन श्री कृष्ण ने कहा – ‘ यम ‘ बारह हैं – अहिंसा , सत्य , अस्तेय ( चोरी न करना ) , असंगता , लज्जा , असंचय ( आवश्यकता से अधिक धन आदि संचय न करना ) , आस्तिकता , ब्रह्मचर्य , मौन , स्थिरता , क्षमा और अभय । नियमों की संख्या भी बारह ही हैं । शौच ( बाहरी पवित्रता और भीतरी पवित्रता ) , जप , तप , हवन , श्रद्धा , अतिथि सेवा , मेरी पूजा , तीर्थयात्रा , परोपकार की चेष्टा , संतोष और गुरु सेवा – इस प्रकार ‘ यम ‘ और ‘ नियम ‘ दोनों की संख्या बारह – बारह हैं । ये सकाम और निष्काम दोनों प्रकार के साधकों के लिए उपयोगी हैं । उद्धव जी ! जो पुरुष इनका इनका पालन करते हैं , वे यम और नियम उनके इच्छानुसार उन्हें भोग और मोक्ष दोनों प्रदान करते हैं ।। 33- 35
शमो मन्निष्ठता बुद्धेर्दम इन्द्रियसंयमः ।
तितिक्षा दुःख संमर्षो जिह्वोपस्थजयो धृतिः ।। 36
बुद्धि का मुझ में लग जाना ही ‘ शम ‘ है । इन्द्रियों के संयम का नाम ‘ दम ‘ है । न्याय से प्राप्त दुःख के सहने का नाम ‘ तितिक्षा ‘ है । जिह्वा और जननेन्द्रिय पे विजय प्राप्त करना ‘ धैर्य ‘ है ।। 36
दंडन्यासः परं दानं काम त्यागस्तपः स्मृतम ।
स्वभाव विजयः शौर्यं सत्यं च समदर्शनम ।। 37
किसी से द्रोह न करना सबको अभय देना ‘ दान ‘ है । कामनाओं का त्याग करना ही ‘ तप ‘ है । अपनी वासनाओं पर विजय प्राप्त करना ही ‘ शूरता ‘ है । सर्वत्र समस्वरूप , सत्यस्वरूप परमात्मा का दर्शन ही ‘ सत्य ‘ है ।। 37
ऋतं च सूनृता वाणी कविभिः परिकीर्तिता ।
कर्मस्व संगमः शौचं त्यागः संन्यास उच्यते ।। 38
इसी प्रकार सत्य और मधुर भाषण को ही महात्माओं ने ‘ ऋत ‘ कहा है । कर्मों में आसक्त न होना ही ‘ शौच ‘ है । कामनाओं का त्याग ही सच्चा ‘ संन्यास ‘ है ।। 38
धर्म इष्टं धनं नृणां यज्ञोऽहं भगवत्तमः।
दक्षिणा ज्ञान संदेशः प्राणायामः परं बलं।। 39
धर्म ही मनुष्यों का अभीष्ट ‘ धन ‘ है । मैं परमेश्वर ही ‘ यज्ञ ‘ हूँ । ज्ञान का उपदेश देना ही ‘ दक्षिणा ‘ है । प्राणायाम ही श्रेष्ठ ‘ बल ‘ है ।। 39
भगो म ऐश्वरो भावो लाभो मद्भक्तिरुत्तमः ।
विद्याऽऽत्मनि भिदाबाधो जुगुप्सा ह्रीरकर्मसु ।। 40
मेरा ऐश्वर्य ही ‘ भग ‘ है , मेरी श्रेष्ठ भक्ति ही उत्तम ‘ लाभ ‘ है , सच्ची ‘ विद्या ‘ वही है जिससे ब्रह्म और आत्मा का भेद मिट जाता है । पाप करने से घृणा होने का नाम ही ‘ लज्जा ‘ है ।। 40
श्रीर्गुणा नैर पेक्ष्याद्याः सुखं दुःख सुखात्ययः ।
दुःखं कामसुखापेक्षा पंडितो बन्धमोक्षवित् ।। 41
निरपेक्षता आदि गुण ही शरीर का सच्चा सौंदर्य – ‘ श्री ‘ है , दुःख और सुख दोनों की भावना का सदा के लिए नष्ट हो जाना ही ‘ सुख ‘ है । विषयभोगों की कामना ही ‘ दुःख ‘ है । जो बंधन और मोक्ष का तत्त्व जानता है , वही ‘ पंडित ‘ है ।। 41
मूर्खो देहाद्यहं बुद्धिः पन्था मन्निगमः स्मृतः ।
उत्पथश्चित्त विक्षेपः स्वर्गः सत्त्वगुणोदयः ।। 42
नरकस्तमउन्नाहो बन्धुर्गुरुरहं सखे ।
गृहम शरीरं मानुष्यं गुणाढ्यो ह्याढ्य उच्यते ।। 43
शरीर आदि में जिसका मैं पन है अर्थात जो इस शरीर को अपना समझता है और इस से मोह करता है वही ‘ मूर्ख ‘ है । जो संसार की ओर से निवृत्त करके मुझे प्राप्त करा देता है , वही सच्चा ‘ सुमार्ग ‘ है । चित्त की बहिर्मुखता ही ‘ कुमार्ग ‘ है । सत्त्व गुण की वृद्धि ही ‘ स्वर्ग ‘ और सखे ! तमोगुण की वृद्धि ही ‘ नरक ‘ है । गुरु ही सच्चा ‘ भाई – बंधु ‘ है और वह गुरु मैं हूँ । यह मनुष्य शरीर ही सच्चा ‘ घर ‘ है तथा सच्चा ‘ धनी ‘ वह है , जो गुणों से संपन्न है , जिसके पास गुणों का खजाना है ।। 42-43
दरिद्रो यस्त्वसंतुष्टः कृपणो योऽजितेन्द्रियः ।
गुणेष्वसक्तधीरीशो गुणसंगो विपर्ययः ।। 44
प्यारे उद्धव ! तुमने जितने प्रश्न पूछे थे , उनका उत्तर मैंने दे दिया ; इनको समझ लेना मोक्ष – मार्ग के लिए सहायक है । मैं तुम्हें गुण और दोषों का लक्षण अलग – अलग कहाँ तक बताऊँ ? सबका सारांश इतने में ही समझ लो की गुणों और दोषों पर दृष्टि न जाकर अपने शांत निःसंकल्प स्वरूप में स्थित रहे – वही सबसे बड़ा गुण है ।
इति श्रीमदभागवतेमहापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेदशस्कन्धे एकोनविंशोऽध्यायः ।। 19