अथ चतुर्विंशो ऽध्यायः
सांख्य योग
श्री भगवानुवाच
अथ ते सं प्रवक्ष्यामि सांख्यं पूरवैर्विनिश्चितं।
यद् विज्ञाय पुमान सद्यो जहयाद वैकल्पिकं भ्रमं ।। 1
भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं – प्यारे उद्धव ! अब मैं तुम्हें सांख्यशास्त्र का निर्णय सुनाता हूँ । प्राचीन काल के बड़े – बड़े ऋषि – मुनियों ने इसका निश्चय किया है । जब जीव इसे भली – भांति समझ लेता है तो वह भ्रम बुद्धि मूलक सुख – दुःखादि रूप भ्रम का तत्काल त्याग कर देता है ।। 1
आसीञ्ज्ञानमथो ह्यर्थ एकमेवाविकल्पितम।
यदा विवेक निपुणा आदौ कृतयुगेऽयुगे ।।2
युगों से पूर्व प्रलय काल में आदि सत्य युग में और जब कभी मनुष्य विवेक निपुण होते हैं – इन सभी अवस्थाओं में यह सम्पूर्ण दृश्य और दृष्टा , जगत और जीव विकल्पशून्य किसी प्रकार के भेद भाव से रहित केवल ब्रह्म ही होते हैं।। 2
तन्माया फलरूपेण केवलं निर्विकल्पितम ।
वाङ्गमनो ऽगोचरं सत्यं द्विधा समभवद बृहत् ।। 3
इसमें संदेह नहीं कि ब्रह्म में किसी प्रकार का विकल्प नहीं है , वह केवल – अद्वितीय सत्य है ; मन और वाणी की उसमें गति नहीं है । वह ब्रह्म ही माया और उसमें प्रतिबिंबित जीव के रूप में – दृश्य और दृष्टा के रूप में – दो भागों में विभक्त – सा हो गया ।। 3
तयोरेकतरो ह्यर्थः प्रकृतिः सभ्यात्मिका ।
ज्ञानम् त्वन्यतमो भावः पुरुषः सोऽभिधीयते।। 4
उनमें से एक वस्तु को प्रकृति कहते हैं । उसी ने जगत में कार्य और कारण का रूप धारण किया है । दूसरी वस्तु को , जो ज्ञान स्वरूप है , पुरुष कहते हैं ।। 4
तमो रजः सत्त्वमिति प्रकृतेरभवन गुणाः ।
मया प्रक्षोभ्यमाणायाः पुरुषानुमतेन च।। 5
उद्धव जी ! मैंने ही जीवों के शुभ – अशुभ कर्मों के अनुसार प्रकृति को क्षुब्ध किया । तब उस से सत्त्व , रज और तम – ये तीन गुण प्रकट हुए । 5
तेभ्यः समभवत सूत्रं महान सूत्रेण संयुतः ।
ततो विकुर्वतो जातोऽहंकारो यो विमोहनः ।। 6
उनसे क्रिया – शक्तिप्रधान सूत्र और ज्ञान शक्तिप्रधान महतत्त्व प्रकट हुए हैं । वे दोनों परस्पर मिले हुए ही हैं । महत्तत्व में विकार होने पर अहंकार व्यक्त हुआ । यह अहंकार ही जीवों को मोह में डालने वाला है । 6
वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेत्यहं त्रिव्रत ।
तन्मात्रेंद्रियमनसां कारणं चिदचिन्मयः ।।7
वह तीन प्रकार का है – सात्त्विक , राजस और तामस । अहंकार पञ्चतन्मात्रा , इन्द्रिय और मन का कारण है ; इसलिए वह जड – चेतन – उभयात्मक है ।। 7
अर्थस्तनमात्रिकाज्जज्ञे तामसादिन्द्रियाणि च ।
तैजसाद देवता आसन्नेकादश च वैकृतात।। 8
तामस अहंकार से पंच तन्मात्राएं और उनसे पांच भूतों की उत्पत्ति हुई । तथा राजस अहंकार से इन्द्रियां और सात्त्विक अहंकार से इन्द्रियों के अधिष्ठाता ग्यारह देवता प्रकट हुए ।। 8
मया संचोदिता भावाः सर्वे संहत्यकारिणः ।
अण्ड मुत्पादया मासुर्ममाय तन मुत्तमम।। 9
या सभी पदार्थ मेरी प्रेरणा से एकत्र होकर परस्पर मिल गए और इन्होंने यह ब्रह्माण्ड रूप अण्ड उत्पन्न किया । यह अण्ड मेरा उत्तम निवास स्थान है ।। 9
तस्मिन्नहं समभवमण्डे सलिल संस्थितौ ।
मम नाभ्यांभूत पद्मं विश्वाख्यं तत्र चात्मभूः।। 10
जब वह अण्ड जल में स्थित हो गया , तब मैं नारायण रूप से इसमें विराजमान हो गया । मेरी नाभि से विश्वकमल की उत्पत्ति हुई । उसी पर ब्रह्मा का आविर्भाव हुआ ।। 10
सो ऽसृजत्तपसा युक्तो रजसा मदनुग्रहात।
लोकान सपालान विश्वात्मा भूर्भुवः स्वरिति त्रिधा ।। 11
विश्व समष्टि के अन्तः करण ब्रह्मा ने पहले बहुत बड़ी तपस्या की । उसके बाद मेरा कृपा – प्रसाद प्राप्त करके रजोगुण के द्वारा भूः , भुवः , स्वः अर्थात पृथ्वी , अंतरिक्ष और स्वर्ग – इन तीन लोकों की और उनके लोकपालों की रचना की ।। 11
देवानामोक आसीत् स्वर्भूतानां च भुवः पदम्।
मर्त्यादीनां च भूर्लोकाः सिद्धानां त्रित्यात परम ।। 12
देवताओं के निवास के लिए स्वर्लोक भूत – प्रेतादि के लिए भुवर्लोक ( अंतरिक्ष ) और मनुष्य आदि के लिए भूर्लोक ( पृथ्वी लोक ) का निश्चय किया गया। इन तीनों लोकों से ऊपर महर्लोक , तपलोक आदि सिद्धों के निवास स्थान हुए ।। 12
अधोऽसुराणां नागानां भूमेरोकोऽसृजत प्रभुः ।
त्रिलोक्यां गतयः सर्वाः कर्मणां त्रिगुणात्मनां ।। 13
सृष्टि कार्य में समर्थ ब्रह्माजी ने असुर और नागों के लिए पृथ्वी के नीचे अतल , वितल , सुतल आदि सात पाताल बनाये । इन्हीं तीनों लोकों में त्रिगुणात्मक कर्मों के अनुसार विविध गतियां प्राप्त होती है ।। 13
योगस्य तपसश्चैव न्यासस्य गतयोऽमलाः ।
महार्जनस्तपः सत्यं भक्तियोगस्य मद्गतिः ।। 14
योग , तपस्या और संन्यास के द्वारा महर्लोक , जनलोक , तपलोक और सत्यलोकरूप उत्तम गति प्राप्त होती है और भक्तियोग से मेरा परम धाम मिलता है ।। 14
मया कालात्मना धात्रा कर्मयुक्तमिदं जगत ।
गुणप्रवाह एतस्मिन्नुन्मज्जति निमज्जति ।। 15
यः सारा जगत कर्म और उनके संस्कारों से युक्त है । मैं ही काल रूप से कर्मों के अनुसार उनके फल का विधान करता हूँ । इस गुण प्रवाह में पड़कर जीव कभी डूब जाता है और कभी ऊपर आ जाता है – कभी उसकी अधोगति होती है और कभी उसे पुण्यवश उच्च गति प्राप्त हो जाती है ।। 15
अणुर्बृहत कृशः स्थूलो यो यो भावः प्रसिध्यति ।
सर्वोऽप्युभयसंयुक्तः प्रकृत्या पुरुषेण च ।। 16
जगत में छोटे – बड़े , मोटे – पतले – जितने भी पदार्थ बनते हैं , सब प्रकृति और पुरुष दोनों के संयोग से ही सिद्ध होते हैं ।। 16
यस्तु यस्यादिरन्तश्च स वै मध्यं च तस्य सन।
विकारो व्यवहारार्थो यथा तैजस पार्थिवाः।।17
यदुपादाय पूर्वस्तु भावो विकुरुते ऽपरं।
आदिरन्तो यदा यस्य तत सत्यमभिदीयते ।। 18
जिसके आदि और अंत में जो है , वही बीच में भी है और वही सत्य है । विकार तो केवल व्यवहार के लिए की हुई कल्पनामात्र है । जैसे कंगन – कुण्डल आदि सोने के विकार और घड़े – सकोरे आदि मिटटी के विकार पहले सोना या मिटटी ही थे , बाद में भी सोना या मिटटी ही रहेंगें । अतः बीच में भी वे सोना या मिटटी ही हैं । पूर्ववर्ती कारण ( महत्तत्व आदि ) भी जिस परम कारण को उपादान बनाकर अपर ( अहंकार आदि ) कार्य – वर्ग की सृष्टि करते हैं , वही उनकी अपेक्षा भी परम सत्य है । तात्पर्य यह कि जब जो जिस किसी भी कार्य के आदि और अंत में विद्यमान रहता है , वही सत्य है ।। 17-18
प्रकृतिर्ह्यस्योपादानमाधारः पुरुषः परः ।
सतो अभिव्यंजकः कालो ब्रह्म तत्त्रितयं त्वहं ।। 19
इस प्रपंच का उपादान – कारण प्रकृति है , परमात्मा अधिष्ठान है और इसको प्रकट करने वाला काल है । व्यव्हार – काल की यह त्रिविधता वस्तुतः ब्रह्म – स्वरूप है और मैं वही शुद्ध ब्रह्म हूँ।। 19
सर्गः प्रवर्तते तावत पौर्वापर्येण नित्यशः ।
महान गुण विसर्गार्थः स्थित्यन्तो यावदीक्षणम।। 20
जब तक परमात्मा की ईक्षण शक्ति अपना काम करती रहती है , जब तक उनकी पालन – प्रवृत्ति बनी रहती है , तब तक जीवों के कर्म भोग के लिए कारण – कार्य रूप से अथवा पिता – पुत्रादि के रूप से यह सृष्टि चक्र निरंतर चलता रहता है ।। 20
विराण्मयाऽऽसाद्यमानो लोककल्पविकल्पकः ।
पंचत्वाय विशेषाय कल्पते भुवनैः सह ।। 21
यह विराट ही विविध लोकों की सृष्टि , स्थिति और संहार की लीलाभूमि है । जब मैं काल रूप से इसमें व्याप्त होता हूँ , प्रलय का संकल्प करता हूँ , तब यह भुवनों के साथ विनाश रूप विभाग के योग्य हो जाता है ।।21
अन्ने प्रलीयते मर्त्यमन्नं धानासु लीयते ।
धाना भूमौ प्रलीयन्ते भूमिर्गंधे प्रलीयते ।। 22
उसके लीन होने की प्रक्रिया यह है कि प्राणियों के शरीर अन्न में , अन्न बीज में , बीज भूमि में और भूमि गंध – तन्मात्रा में लीन हो जाती है ।। 22
अप्सु प्रलीयते गंध आपश्च स्वगुणे रसे।
लीयते ज्योतिषि रसो ज्योती रूप प्रलीयते ।। 23
गंध जल में , जल अपने गुण रस में , रस तेज में और तेज रूप में लीन हो जाता है ।। 23
रूपं वायौ स च स्पर्शे लीयते सोऽपि चाम्बरे ।
अम्बरं शब्द तन्मात्र इन्द्रियाणि स्वयोनिषु।। 24
रूप वायु में , वायु स्पर्श में , स्पर्श आकाश में तथा आकाश शब्द तन्मात्रा में लीन हो जाता है । इन्द्रियाँ अपने कारण देवताओं में और अंततः राजस अहंकार में समा जाती हैं ।। 24
योनिर्वैकारिके सौम्य लीयते मनसीश्वरे।
शब्दो भूतादि मप्येति भूतादिर्महति प्रभुः ।। 25
हे सौम्य ! राजस अहंकार अपने नियंता सात्त्विक अहंकार रूप मन में , शब्द तन्मात्रा पंच भूतों के कारण तामस अहंकार में और सारे जगत को मोहित करने में समर्थ त्रिविध अहंकार महतत्त्व में लीन हो जाता है ।। 25
स लीयते महान स्वेषु गुणेषु गुणवत्तमः ।
ते अव्यक्ते सं प्रलीयन्ते तत काले लीयते ऽव्यये।। 26
ज्ञान शक्ति और क्रियाशक्ति प्रधान महत्तत्त्व अपने कारण गुणों में लीन हो जाता है । गुण अव्यक्त प्रकृति में और प्रकृति अपने प्रेरक अविनाशी काल में लीन हो जाती है ।। 26
कालो मायामये जीवे जीव आत्मनि मय्यजे।
आत्मा केवल आत्मस्थो विकल्पापायलक्षणः।। 27
काल मायामय जीव में और जीव मुझ अजन्मा आत्मा में लीन हो जाता है । आत्मा किसी में लीन नहीं होता , वह उपाधिरहित अपने स्वरूप में ही स्थित रहता है । वह जगत की सृष्टि और लय का अधिष्ठान एवं अवधि है । । 27
एवमन्वीक्षमाणस्य कथं वैक्लपिको भ्रमः ।
मनसो हृदि तिष्ठेत व्योम्निवार्कोदये तमः ।। 28
उद्धव जी ! जो इस प्रकार विवेक दृष्टि से देखता है उसके चित्त में यह प्रपंच का भ्रम हो ही नहीं सकता । यदि कदाचित उसकी स्फूर्ति हो भी जाये तो वह अधिक काल तक ह्रदय में ठहर कैसे सकता है ? क्या सूर्योदय होने पर भी आकाश में अन्धकार ठहर सकता है ? क्या सूर्योदय होने पर भी आकाश में अन्धकार ठहर सकता है ।। 28
एष सांख्यविधिः प्रोक्तः संशयग्रंथिभेदनः।
प्रतिलोमानुलोमाभ्यां परावरदृशा मया ।। 29
उद्धव जी ! मैं कार्य और कारण दोनों का ही साक्षी हूँ । मैंने तुम्हें सृष्टि से प्रलय और प्रलय से सृष्टि तक की सांख्य विधि बतला दी । इस से संदेह की गाँठ कट जाती है और पुरुष अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है ।। 29
इति श्रीमदभागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादश स्कन्धे चतुर्विंशो ऽध्यायः।।24