अथ षडविंशोऽध्यायः
पुरुरवा की वैराग्योक्ति
श्री भगवानुवाच
मल्लक्षणमिमं कायं लब्ध्वा मर्द्धम आस्थितः ।
आनन्दं परमात्मानमात्मस्थं समुपैति मां ।। 1
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं – उद्धव जी ! यह मनुष्य शरीर मेरे स्वरूप ज्ञान की प्राप्ति का – मेरी प्राप्ति का मुख्य साधन है । इसे पाकर जो मनुष्य सच्चे प्रेम से मेरी भक्ति करता है , वह अन्तः करण में स्थित मुझ आनंदस्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है ।। 1
गुणमय्या जीवयोन्या विमुक्तो ज्ञाननिष्ठ्या ।
गुणेषु मायामात्रेषु दृश्यमानेष्ववस्तुतः।
वर्तमानोऽपि न पुमान युज्यतेऽवस्तुभिर्गुणैः।। 2
जीवों की सभी योनियाँ , सभी गतियाँ त्रिगुणमयी हैं । जीव ज्ञाननिष्ठा के द्वारा उनसे सदा के लिए मुक्त हो जाता है । सत्त्व – रज आदि गुण जो दिख रहे हैं वे वास्तविक नहीं हैं , मायामात्र हैं । ज्ञान हो जाने के बाद पुरुष उनके बीच में रहने पर भी , उनके द्वारा व्यव्हार करने पर भी उनसे बंधता नहीं । इसका कारण यह है कि उन गुणों की वास्तविक सत्ता ही नहीं है ।। 2
संगम न कुर्यादसतां शिश्नोदरतृपां क्वचित ।
तस्यानुगस्तंस्यंधे पतत्यंधानुगांधवत।। 3
साधारण लोगों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जो लोग विषयों के सेवन और उदर पोषण में ही लगे हुए हैं , उन असत पुरुषों का संग कभी न करें ; क्योंकि उनका अनुगमन करने वाले पुरुष की वैसी ही दुर्दशा होती है , जैसे अंधे के सहारे चलने वाले अंधे की। उसे तो घोर अंधकार में ही भटकना पड़ता है ।। 3
ऐलः सम्राडिमां गाथामगायत बृहच्छृवाः।
उर्वशीविरहान मुह्यं निर्विण्णः शोकसंयमे ।। 4
उद्धव जी ! पहले तो परम यशस्वी सम्राट इलानन्दन पुरुरवा उर्वशी के विरह से अत्यंत बेसुध हो गया था । पीछे शोक हट जाने पर उसे बड़ा वैराग्य हुआ और तब उसने यह गाथा गयी ।। 4
त्यक्त्वाऽऽत्मानं व्रजंति तां नग्न उन्मत्त वन्नृपः।
विल पन्नन्व गाज्जाये घोरे तिष्ठेति विक्लवः।। 5
राजा पुरुरवा नग्न हो कर पागल की भांति अपने को छोड़कर भागती हुई उर्वशी के पीछे अत्यंत विह्वल होकर दौड़ने लगा और कहने लगा – ‘ देवी ! निष्ठुर हृदये ! थोड़ी देर ठहर जा , भाग मत’ ।। 5
कामानतृप्तो ऽनुजुषन क्षुल्ल्कान वर्षयामिनीः ।
न वेद यान्तीर्नायान्तीरुर्वश्याकृष्टचेतनः ।। 6
उर्वशी ने उनका चित्त आकृष्ट कर लिया था । उन्हें तृप्ति नहीं हुई थी । वे क्षुद्र विषयों के सेवन में इतने डूब गए थे कि उन्हें वर्षों की रात्रियाँ न जाती मालूम पड़ीं और न तो आतीं ।। 6
ऐल उवाच
अहो मे मोहविस्तारः कामकश्मलचेतसः ।
देव्या गृहीत कण्ठस्य नायुः खण्डा इमे स्मृताः।। 7
पुरुरवा ने कहा – हाय ! हाय! भला , मेरी मूढ़ता तो देखो , कामवासना ने मेरे चित्त को कितना कलुषित कर दिया ! उर्वशी ने अपनी बाहुओं से मेरा ऐसा गला पकड़ा कि मैंने आयु के न जाने कितने वर्ष खो दिए । ओह ! विस्मृति की भी एक सीमा होती है ।। 7
नाहं वेदाभिनिर्मुक्तः सूर्यो वाभ्युदितोऽमुया।
मुषितो वर्षपूगानां बताहानि गतान्युत।। 8
हाय ! हाय ! इसने मुझे लूट लिया । सूर्य अस्त हो गया या उदित हुआ – यह भी मैं न जान सका । बड़े खेद की बात है की बहुत से वर्षों के दिन – पर – दिन बीतते गए और मुझे मालूम तक न पड़ा ।। 8
अहो मे आत्म सम्मोहो येनात्मा योषितां कृतः ।
क्रीडा मृगश्चक्रवर्ती नरदेवशिखामणिः।। 9
अहो ! आश्चर्य है ! मेरे मन में इतना मोह बढ़ गया , जिसने नरदेव – शिखामणि चक्रवर्ती सम्राट मुझ पुरुरवा को भी स्त्रियों का क्रीडा मृग ( खिलौना ) बना दिया ।। 9
सपरिच्छदमात्मानं हित्वा तृणमिवेश्वरम।
यान्तीम स्त्रियं चान्वगम नग्न उन्मत्तवद रुदन ।। 10
देखो , मैं प्रजा को मर्यादा में रखने वाला सम्राट हूँ । वह मुझे और मेरे राजपाट को तिनके की तरह छोड़कर जाने लगी और मैं पागल होकर रोटा – बिलखता उस स्त्री के पीछे – पीछे दौड़ पड़ा । हाय ! हाय ! यह भी कोई जीवन है ।। 10
कुतस्तस्यानुभावः स्यात तेज ईशत्वमेव वा ।
योऽन्वगच्छं स्त्रियं यान्तीम खरवत पाद ताडितः।।11
मैं गधे की तरह दुलत्तियाँ सहकर भी स्त्री के पीछे – पीछे दौड़ता रहा ; फिर मुझमें प्रभाव , तेज और स्वामित्व भला कैसे रह सकता है ।। 11
किं विद्यया किं तपसा किं त्यागेन श्रुतेन वा ।
किं विविक्तेन मौनेन स्त्रीभिर्यस्य मनो हृतं।। 12
स्त्री ने जिसका मन चुरा लिया , उसकी विद्या व्यर्थ है । उसे तपस्या , त्याग और शास्त्राभ्यास से भी कोई लाभ नहीं । और इसमें संदेह नहीं कि उसका एकांतसेवन और मौन भी निष्फल है ।। 12
स्वार्थस्याकोविदं धीङ् मां मूर्खं पंडितमानिनं।
योऽहमीश्वरतां प्राप्य स्त्री भिर्गोखरवज्जितः ।। 13
मुझे अपनी ही हानि – लाभ का पता नहीं , फिर भी अपने को बहुत बड़ा पंडित मानता हूँ । मुझ मूर्ख को धिक्कार है ! हाय ! हाय ! मैं चक्रवर्ती सम्राट होकर भी गधे और बैल कि तरह स्त्री के फंदे में फंस गया ।। 13
सेवतो वर्षपूगान मे उर्वश्या अधरासवं।
न तृप्यत्यात्मभूः कामो वह्निराहुतिभिर्यथा ।। 14
मैं वर्षों तक उर्वशी के अधरों का आसव पीता रहा पर मेरी काम वासना तृप्त न हुई । सच है , कहीं आहुतियों से अग्नि तृप्त हुई है ।। 14
पुंश्चल्यापहृतं चित्तं कोन्वन्यो मोचितुं प्रभुः ।
आत्मारामेश्वरमृते भगवन्तमधोक्षजं ।। 15
उस ने मेरा चित्त चुरा लिया । आत्माराम जीवन्मुक्तों के स्वामी इन्द्रियातीत भगवन को छोड़कर और ऐसा कौन है , जो मुझे उसके फंदे से निकाल सके ।। 15
बोधितस्यापि देव्या मे सूक्तवाक्येन दुर्मतेः।
मनोगतो महामोहो नाप्यात्य जितात्मनः ।। 16
उर्वशी ने तो मुझे वैदिक सूक्त के वचनों द्वारा यथार्थ बात कहकर समझाया भी था ; परन्तु मेरी बुद्धि ऐसी कि मेरे मन का वह भयंकर मोह तब भी मिटा नहीं । जब मेरी इन्द्रियां ही मेरे हाथ के बाहर हो गयीं , तब मैं समझता भी कैसे ? 16
किमेतया नोऽपकृतं रज्ज्वा वा सर्पचेतसः ।
रज्जुस्वरूपाविदुषो योऽहं यदजितेन्द्रियः।। 17
जो रस्सी के स्वरूप को न जान कर उसमें सर्प की कल्पना कर रहा है और दुखी हो रहा है , रस्सी ने उसका क्या बिगाड़ा है ? इसी प्रकार इस उर्वशी ने भी हमारा क्या बिगाड़ा ? क्योंकि स्वयं मैं ही अजितेन्द्रिय होने के कारण अपराधी हूँ ।। 17
क्वायं मलीमसः कायो दौर्गन्ध्याद्यात्मकोऽशुचिः।
क्व गुणाः सौम्यनस्याद्या ह्यध्यासोऽविद्यया कृतः ।। 18
कहाँ तो यह मैला – कुचैला , दुर्गन्ध से भरा अपवित्र शरीर और कहाँ सुकुमारता , पवित्रता , सुगंध आदि पुष्पोचित गुण । परन्तु मैंने अज्ञानवश असुंदर में सुन्दर का आरोप कर लिया ।। 18
पित्रोः किं स्वं न भार्यायाः स्वामिनोऽग्नेः श्व गृध्रयोः ।
किमात्मनः किं सुहृदामिति यो नावसीयते ।। 19
यह शरीर माता – पिता का सर्वस्व है अथवा पत्नी की संपत्ति ? यह स्वामी की मोल ली हुई वस्तु है , आग का ईंधन है अथवा कुत्ते और गीधों का भोजन ? इसे अपना कहें अथवा सुहृद – सम्बन्धियों का ? बहुत सोचने – विचारने पर भी कोई निश्चय नहीं होता ।। 19
तस्मिन् कलेवरेऽमेध्ये तुच्छनिष्ठे विषज्जते ।
अहो सुभद्रं सुनसं सुस्मितं च मुखं स्त्रियः ।। 20
यह शरीर मल – मूत्र से भरा हुआ अत्यंत अपवित्र है । इसका अंत यही है कि पक्षी खाकर विष्ठा कर दे , इसके सड़ जाने पर इसमें कीड़े पड़ जाएँ अथवा जला देने पर यह राख का ढेर हो जाये । ऐसे शरीर पर लोग लट्टू हो जाते हैं और कहने लगते हैं – ‘ अहो ! इस स्त्री का मुखड़ा कितना सुन्दर है ! नाक कितनी सुघड़ है और मंद – मंद मुस्कान कितनी मनोहर है ।। 20
त्वंङ् मांसरुधिरस्नायुमेदोमज्जास्थिसंहतौ।
विण्मूत्रपूये रमतां कृमीणाम कियदन्तरं।। 21
यह शरीर त्वचा , मांस , रुधिर , स्नायु , मेदा , मज्जा और हड्डियों का ढेर और मल – मूत्र तथा पीब से भरा हुआ है । यदि मनुष्य इसमें रमता है तो मल – मूत्र के कीड़े और उसमें अंतर ही क्या है ।। 21
अथापि नोपसज्जेत स्त्रीषु स्त्रैणेषु चार्थवित् ।
विषयेंद्रिय संयोगान्मनः क्षुभ्यति नान्यथा ।। 22
इसलिए अपनी भलाई समझने वाले विवेकी मनुष्य को चाहिए कि स्त्रियों और स्त्री – लम्पट पुरुषों का संग न करे । विषय और इन्द्रियों के संयोग से ही मन में विकार होता है ; अन्यथा विकार का कोई अवसर ही नहीं है ।। 22
अदृष्टादश्रुताद भावान्न भाव उपजायते ।
असम्प्रयुंजतः प्राणान शाम्यति स्तिमितं मनः ।। 23
जो वस्तु कभी देखी या सुनी नहीं गयी है , उसके लिए मन में विकार नहीं होता । जो लोग विषयों के साथ इन्द्रियों का संयोग नहीं होने देते , उनका मन अपने – आप निश्चल होकर शांत हो जाता है ।।23
तस्मात् संगो न कर्तव्यः स्त्रीषु स्त्रैणेषु चेन्द्रियैः ।
विदुषां चाप्यविश्रब्धः षडवर्गः किमु मादृशाम।। 24
अतः वाणी , कान और मन आदि इन्द्रियों से स्त्रियों और स्त्री लम्पटों का संग कभी नहीं करना चाहिए । मेरे जैसे लोगों की तो बात ही क्या , बड़े – बड़े विद्वानों के लिए भी अपनी इन्द्रियाँ और मन विश्वसनीय नहीं हैं ।। 24
श्री भगवानुवाच
एवं प्रगायन नृपदेवदेवः
स उर्वशीलोकमथो विहाय ।
आत्मानमात्मन्यवगम्य मां वै
उपारमञ्ज्ञानविधूतमोहः ।। 25
भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं – उद्धव जी ! राज राजेश्वर पुरुरवा के मन में जब इस तरह के उदगार उठने लगे , तब उसने उर्वशी लोक का परित्याग कर दिया । अब ज्ञानोदय होने के कारण उसका मोह जाता रहा और उसने अपने ह्रदय मे ही आत्म स्वरूप से मेरा साक्षात्कार कर लिया और वह शांत भाव में स्थित हो गया ।। 25
ततो दुःसंगमुत्सृज्य सत्सु सज्जेत बुद्धिमान ।
संत एतस्य च्छिन्दन्ति मनो व्यासंगमुक्तिभिः ।। 26
इसलिए बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि पुरुरवा की भाँति कुसंग छोड़कर सत्पुरुषों का संग करे । संत पुरुष अपने सदुपदेशों से उसके मन की आसक्ति नष्ट कर देंगे ।। 26
संतोऽनपेक्षा मच्चित्ताः प्रशान्ताः समदर्शिनः ।
निर्ममा निरहंकारा निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहाः ।। 27
संत पुरुषों का लक्षण यह है कि उन्हें कभी किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं होता । उनका चित्त मुझमें लगा रहता है । उनके ह्रदय में शान्ति का अगाध समुद्र लहराता रहता है ।। वे सदा – सर्वदा सर्वत्र सबमें सब रूप से स्थित भगवान का ही दर्शन करते हैं । उनमें अहंकार का लेश भी नहीं होता , फिर ममता की तो संभावना ही कहाँ है । वे सर्दी – गर्मी , सुख – दुःख आदि द्वंद्वों में एकरस रहते हैं तथा बौद्धिक , मानसिक , शारीरिक और पदार्थ – सम्बन्धी किसी प्रकार का भी परिग्रह नहीं रखते ।। 27
तेषु नित्यं महाभाग महाभागेषु मत्कथाः ।
सम्भवन्ति हिता नृणां जुषतां प्रपुनन्त्यघम ।। 28
परम भाग्यवान उद्धव जी ! संतों के सौभाग्य की महिमा कौन कहे ? उनके पास सदा – सर्वदा मेरी लीला – कथाएं हुआ करती हैं । मेरी कथाएं मनुष्यों के लिए परम हितकर हैं; जो उनका सेवन करते हैं , उनके सारे पाप – तापों को वे धो डालती हैं ।। 28
ता ये शृण्वन्ति गायन्ति ह्यनुमोदन्ती चादृताः ।
मत्पराः श्रद्धानाश्च भक्तिं विन्दन्ति ते मयि।। 29
जो लोग आदर और श्रद्धा से मेरी लीला – कथाओं का श्रवण , गान और अनुमोदन करते हैं , वे मेरे परायण हो जाते हैं और मेरी अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त कर लेते हैं ।। 29
भक्तिं लब्ध्वतः साधोः किमन्यदवशिष्यते ।
मय्यनन्तगुणे ब्रह्मण्यानन्दानुभवात्मनि ।। 30
उद्धव जी ! मैं अनंत अचिन्त्य कल्याणमय गुणगणों का आश्रय हूँ । मेरा स्वरूप है – केवल आनंद , केवल अनुभव , विशुद्ध आत्मा । मैं साक्षात परब्रह्म हूँ . जिसे मेरी भक्ति मिल गयी , वह तो संत हो गया , अब उसे कुछ भी पाना शेष नहीं रह गया ।। 30
यथोपश्रयमाणस्य भगवन्तं विभावसुम ।
शीतं भयं तमो अप्येति साधून संसेवतस्तथा ।।31
उनकी तो बात ही क्या – जिसने उन संत पुरुषों की शरण ग्रहण कर ली उसकी भी कर्म जडता , संसारभय और अज्ञान आदि सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं । भला , जिसने अग्नि भगवान का आश्रय ले लिया उसे शीत , भय अथवा अन्धकार का दुःख हो सकता है ? 31
निमज्ज्जयोन्मज्जतां घोरे भवाब्धौ परमायनम ।
संतो ब्रह्मविदः शांता नौर्दृढेवाप्सु मज्जताम ।। 32
जो इस घोर संसार सागर में डूब – उतरा रहे हैं , उनके लिए ब्रह्मवेत्ता और शांत संत ही एकमात्र आश्रय हैं , जैसे जल में डूब रहे लोगों के लिए दृढ नौका ।।32
अन्नं हि प्राणिनां प्राण आर्तानां शरणं त्वहं ।
धर्मो वित्तं नृणां प्रेत्य संतोऽर्वाग बिभ्यतोऽरणम ।। 33
जैसे अन्न से प्राणियों के प्राण की रक्षा होती है , जैसे मैं ही दीन – दुखियों का परम रक्षक हूँ , जैसे मैं ही दीन – दुखियों का परम रक्षक हूँ , जैसे मनुष्य के लिए परलोक में धर्म ही एकमात्र पूँजी है – वैसे ही जो लोग संसार से भयभीत हैं , उनके लिए संतजन ही परम आश्रय हैं । 33
संतो दिशन्ति चक्षूंषि बहिरर्कः समुत्थितः।
देवता बान्धवाः सन्तः संत आत्माहमेव च ।। 34
वैतसेनस्ततो ऽप्येवमुवर्श्या लोकनिःस्पृहः ।
मुक्तसंगो मही मेता मात्मा रामश्चचार ह।।35
प्रिय उद्धव ! आत्मसाक्षात्कार होते ही इलानन्दन पुरुरवा को उर्वशी के लोक की स्पृहा न रही । उसकी सारी आसक्तियां मिट गयीं और वह आत्माराम होकर स्वछन्द रूप से इस पृथ्वी पर विचरण करने लगा ।। 35
इति श्रीमदभागवते महापुराणे पारंहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे षडविंशोऽध्यायः ।।26