अथाष्टाविंशोऽध्यायः
परमार्थनिरूपण
श्री भगवानुवाच
परस्वभावकर्माणि न प्रशंसेन्न गर्हयेत।
विश्वमेकात्मकं पश्यन प्रकृत्या पुरुषेण च ।। 1
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं – उद्धव जी ! यद्यपि व्यव्हार में पुरुष और प्रकृति – दृष्टा और दृश्य के भेद से दो प्रकार का जगत जान पड़ता है , तथापि परमार्थ – दृष्टि से देखने पर यह सब एक अधिष्ठान – स्वरूप ही है ; इसलिए किसी के शांत , घोर और मूढ़ स्वभाव तथा उनके अनुसार कर्मों की न स्तुति करनी चाहिए और न निंदा । सर्वदा अद्वैत – दृष्टि रखनी चाहिए ।।1
परस्वभावकर्माणि यः प्रशंसति निन्दति ।
सा आशु भ्रश्यते स्वार्थादसत्यभिनिवेशतः ।। 2
जो पुरुष दूसरों के स्वभाव और उनके कर्मों की प्रशंसा अथवा निंदा करते हैं , वे शीघ्र ही अपने यथार्थ परमार्थ – साधन से च्युत हो जाते हैं ; क्योंकि साधन तो द्वैत के अभिनिवेश का – उसके प्रति सत्यत्व – बुद्धि का निषेध करता है और प्रशंसा तथा निंदा उसकी सत्यता के भ्रम को और भी दृढ करती हैं।। 2
तैजसे निद्रयाऽऽपन्ने पिण्डस्थो नष्टचेतनः।
मायां प्राप्नोति मृत्युं वा तद्वन्नानार्थदृक पुमान ।। 3
उद्धव जी ! सभी इन्द्रियाँ राजस अहंकार के कार्य हैं । जब वे निद्रित हो जाती हैं तब शरीर का अभिमानी जीव चेतनाशून्य हो जाता हैं ; अर्थात उसे बाहरी शरीर की स्मृति नहीं रहती । उस समय यदि मन बच रहा , तब तो वह सपने के झूठे दृश्यों में भटकने लगता है और वह भी लीन हो गया , तब तो जीव मृत्यु के समान गाढ़ निद्रा – सुषुप्ति में लीन हो जाता है । वैसे ही जब जीव अपने अद्वितीय आत्मस्वरूप को भूल कर नाना वस्तुओं का दर्शन करने लगता है तब वह स्वप्न के समान झूठे दृश्यों में फंस जाता है ; अथवा मृत्यु के समान अज्ञान में लीन हो जाता है ।। 3
किं भद्रं किमभद्रं वा द्वैतस्यावस्तुनः कियत ।
वाचोदितं तदनृतं मनसा ध्यातमेव च ।। 4
उद्धव जी ! जब द्वैत नाम की कोई वस्तु ही नहीं है , तब उसमें अमुक वस्तु भली है और अमुक बुरी , अथवा इतनी भली और इतनी बुरी है – यह प्रश्न ही नहीं उठ सकता । विश्व की सभी वस्तुएं वाणी से कही जा सकती हैं अथवा मन से सोची जा सकती हैं ; इसलिए दृश्य एवं अनित्य होने के कारण उनका मिथ्यात्व तो स्पष्ट ही है ।। 4
छायाप्रत्याह्वयाभासा ह्यसंतो ऽप्यर्थकारिणः ।
एवं देहादयो भावा यच्छन्त्यामृत्युतो भयं ।। 5
परछाई , प्रतिध्वनि और सीपी आदि में चांदी आदि के आभास यद्यपि हैं तो सर्वथा मिथ्या , परन्तु उनके द्वारा मनुष्य के ह्रदय में भय – कम्प आदि का संचार हो जाता है । वैसे ही देहादि सभी वस्तुएं हैं तो सर्वथा मिथ्या ही , परन्तु जब तक ज्ञान के द्वारा इनकी असत्यता का बोध नहीं हो जाता , इनकी आत्यंतिक निवृत्ति नहीं हो जाती , तब तक ये भी अज्ञानियों को भयभीत करती रहती हैं।।5
आत्मैव तदिदं विश्वं सृज्यते सृजति प्रभुः ।
त्रायते त्राती विश्वात्मा ह्रियते हरतीश्वरः ।। 6
उद्धव जी ! जो कुछ प्रत्यक्ष या परोक्ष वस्तु है , वह आत्मा ही है । वही सर्वशक्तिमान भी है । जो कुछ विश्व – सृष्टि प्रतीत हो रही है , इसका वह निमित्त – कारण तो है ही , उपादान – कारण भी है । अर्थात वही विश्व बनता है और वही बनाता भी है , वही रक्षक है और रक्षित भी वही है । सर्वात्मा भगवान ही इसका संहार करते हैं और जिसका संहार होता है , वह भी वे ही हैं ।।6
तस्मान्न ह्यात्मनोऽन्यस्मादन्यो भावो निरूपितः।
निरूपितेयं त्रिविधा निर्मूला भातिरात्मनि ।
इदं गुणमयं विद्धि त्रिविधं मायया कृतं ।। 7
अवश्य ही व्यव्हार दृष्टि से देखने पर आत्मा इस विश्व से भिन्न है ; परन्तु आत्म दृष्टि से उसके अतिरिक्त और कोई वस्तु ही नहीं है । उसके अतिरिक्त जो कुछ प्रतीत हो रहा है , उसका किसी भी प्रकार निर्वचन नहीं किया जा सकता और अनिर्वचनीय तो केवल आत्मस्वरूप ही है ; इसलिए आत्मा में सृष्टि – स्थिति – संहार अथवा अध्यात्म , अधिदैव और अधिभूत – ये तीन – तीन प्रकार की प्रतीतियां सर्वथा निर्मूल ही हैं । न होने पर भी यों ही प्रतीत हो रही हैं। यह सत्व , रज और तम के कारण प्रतीत होने वाली दृष्टा – दर्शन – दृश्य आदि की त्रिविधता माया का खेल है ।। 7
एतद विद्वान् मदुमितं ज्ञानविज्ञाननैपुणम।
न निन्दति न च स्तौति लोके चरति सूर्यवत ।। 8
उद्धव जी ! तुमसे मैंने ज्ञान और विज्ञान की उत्तम स्थिति का वर्णन किया है । जो पुरुष मेरे इन वचनों का रहस्य जान लेता है वह न तो किसी की प्रशंसा करता है और न निंदा । वह जगत में सूर्य के समान समभाव से विचरता रहता है ।। 8
प्रत्यक्षेणानुमानेन निगमेनात्मसंविदा।
आद्यन्तवद सज्ज्ञात्वा निःसंगो विचरेदिह।। 9
प्रत्यक्ष , अनुमान , शास्त्र और आत्मानुभूति आदि सभी प्रमाणों से सिद्ध है कि यह जगत उत्पत्ति – विनाशशील होने के कारण अनित्य एवं असत्य है । यह बात जान कर जगत में असंगभाव से विचरना चाहिए ।।9
उद्धव उवाच
नैवात्मनो न देहस्य संसृतिर्दिष्ट्र दृश्ययोः ।
अनात्मस्वदृशोरीश कस्य स्यादुपलभ्यते ।। 10
उद्धव जी ने पूछा – भगवन! आत्मा है दृष्टा और देह है दृश्य । आत्मा स्वयंप्रकाश है और देह है जड। ऐसी स्थिति में जन्म – मृत्यु रूप संसार न शरीर को हो सकता है और न आत्मा को । परन्तु इसका होना भी उपलब्ध होता है । तब यह होता किसे है ? 10
आत्माव्ययोऽगुणः शुद्धः स्वयंज्योतिरनावृतः।
अग्निवद्दारुवदचिद्देहः कस्येह संसृतिः ।। 11
आत्मा तो अविनाशी , प्राकृत – अप्राकृत गुणों से रहित , शुद्ध , स्वयंप्रकाश और सभी प्रकार के आवरणों से रहित है ; तथा शरीर विनाशी , सगुन , अशुद्ध , प्रकाश्य और आवृत है । आत्मा अग्नि के समान प्रकाशमान है तो शरीर काठ की तरह अचेतन । फिर यह जन्म – मृत्यु रूप संसार है किसे ? 11
श्री भगवानुवाच
यावद देहेन्द्रियप्राणैरात्मनः सन्निकर्षणं।
संसारः फलवांस्तावदपार्थोऽप्यविवेकिनः ।। 12
भगवान् श्री कृष्ण ने कहा – वस्तुतः प्रिय उद्धव ! संसार के अस्तित्व नहीं है तथापि जब तक देह , इन्द्रिय और प्राणों के साथ आत्मा की सम्बन्ध – भ्रान्ति है तब तक अविवेकी पुरुष को वह सत्य – सा स्फुरित होता है ।।12
अर्थे ह्यविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते ।
ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा ।। 13
जैसे स्वप्न में अनेकों विपत्तियाँ आती हैं पर वास्तव में वे हैं नहीं , फिर भी स्वप्न टूटने तक उनका अस्तित्व नहीं मिटता, वैसे ही संसार के न होने पर भी जो उसमें प्रतीत होने वाले विषयों का चिंतन करते रहते है , उनके जन्म – मृत्यु रूप संसार की निवृत्ति नहीं होती ।। 13
यथा ह्यप्रतिबुद्धस्य प्रस्वापो बह्वनर्थ भृत ।
स एव प्रतिबुद्धस्य न वै मोहाय कल्पते ।। 14
जब मनुष्य स्वप्न देखता रहता है , तब नींद टूटने के पहले उसे बड़ी – बड़ी विपत्तियों का सामना करना पड़ता है ; परन्तु जब उसकी नींद टूट जाती है , वह जग पड़ता है , तब न तो स्वप्न की विपत्तियां रहती हैं और न उनके कारण होने वाले मोह आदि विकार ।। 14
शोकहर्षभयक्रोधलोभमोहस्पृहादयः।
अहंकारस्य दृश्यन्ते जन्म मृत्युश्च नात्मनः।।15
उद्धव जी ! अहंकार ही शोक , हर्ष , भय , क्रोध , लोभ , मोह , स्पृहा और जन्म – मृत्यु का शिकार बनता है । आत्मा से इसका कोई सम्बन्ध ही नहीं है ।। 15
देहेन्द्रियप्राणमनोऽभिमानो
जीवोऽन्तरात्मा गुणकर्ममूर्तिः ।
सूत्रं महानित्युरूधेव गीतः ।
संसार आधावति कालतंत्रः।।16
उद्धव जी ! देह , इन्द्रिय , प्राण और मन में स्थित आत्मा ही जब उनका अभिमान कर बैठता है – उन्हें अपना स्वरूप मान लेता है – तब उसका नाम ‘ जीव ‘ हो जाता है । उस सूक्ष्मातिसूक्ष्म आत्मा की मूर्ति है – गुण और कर्मों से बना हुआ लिंग शरीर । उसे ही कहीं सूत्रात्मा कहा जाता है और कहीं महतत्त्व । उसके और भी बहुत से नाम हैं । वही कालरूप परमेश्वर के अधीन होकर जन्म – मृत्यु रूप संसार में इधर – उधर भटकता रहता है ।। 16
अमूलमेतद बहुरूपरूपितं
मनोवचःप्राणशरीरकर्म ।
ज्ञानासिनोपासनया शितेन-
-च्छित्त्वा मुनिर्गाम विचरत्यतृष्णः ।। 17
वास्तव में मन , वाणी , प्राण और शरीर अहंकार के ही कार्य हैं। यह है तो निर्मूल , परन्तु देवता , मनुष्य आदि अनेक रूपों में इसी की प्रतीति होती है । मननशील पुरुष उपासना की शान पर चढ़ा कर ज्ञान की तलवार को अत्यंत तीखी बना लेता है और उसके द्वारा देहाभिमान का अहंकार का मूलोच्छेद कर के पृथ्वी में निर्द्वन्द्व होकर विचरता है । फिर उसमें किसी प्रकार की आशा – तृष्णा नहीं रहती ।।17
ज्ञानं विवेको निगमस्तपश्च
प्रत्यक्षमैतिह्यमथानुमानं ।
आद्यन्तयोरस्य यदेव केवलं
कालश्च हेतुश्च तदेव मध्ये ।। 18
आत्मा और अनात्मा के स्वरूप को पृथक – पृथक भली भाँति समझ लेना ही ज्ञान है , क्योंकि विवेक होते ही द्वैत का अस्तित्व मिट जाता है । उसका साधन है तपस्या के द्वारा ह्रदय को शुद्ध करके वेदादि शास्त्रों का श्रवण करना । इनके अतिरिक्त श्रवणानुकूल युक्तियाँ , महापुरुषों के उपदेश और इन दोनों से अविरुद्ध स्वानुभूति भी प्रमाण हैं । सबका सार यही निकलता है कि इस संसार के आदि में जो था तथा अंत में जो रहेगा , जो इसका मूल कारण और प्रकाशक है , वही अद्वितीय , उपाधिशून्य परमात्मा बीच में भी है । उसके अतिरिक्त , उपाधिशून्य परमात्मा बीच में भी है । उसके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है ।। 18
यथा हिरण्यं स्वकृतं पुरस्तात
पश्चाच्च सर्वस्य हिरण्मयस्य।
तदेव मध्ये व्यवहार्यमाणं
नानापदेशैरहमस्य तद्वत ।। 19
उद्धव जी ! सोने से कंगन , कुण्डल आदि बहुत – से आभूषण बनते हैं ; परन्तु जब वे गहने नहीं बने थे , तब भी सोना था और जब नहीं रहेंगे , तब भी सोना रहेगा । इसलिए जब बीच में उसके कंगन – कुण्डल आदि अनेकों नाम रख कर व्यवहार करते हैं , तब भी वह सोना ही है । ठीक ऐसे ही जगत का आदि , अंत और मध्य मैं ही हूँ । वास्तव में मैं ही सत्य तत्त्व हूँ ।।19
विज्ञानमेतत्त्रियवस्थमंग
गुणत्रयं कारणकार्यकर्तृ
समन्वयेन व्यतिरेकतश्च
येनैव तुर्येण तदेव सत्यम ।।20
भाई उद्धव ! मन की तीन अवस्थाएं होती हैं – जाग्रत , स्वप्न और सुषुप्ति ; इन अवस्थाओं के कारण तीन ही गुण हैं सत्त्व , रज और तम , और जगत के तीन भेद हैं – अध्यात्म ( इन्द्रियाँ ) , अधिभूत ( पृथव्यादि ) और अधिदैव ( कर्ता ) . ये सभी त्रिविधताएँ जिसकी सत्ता से सत्य के समान प्रतीत होती हैं और समाधि आदि में यह त्रिविधता न रहने पर भी जिसकी सत्ता बनी रहती है , वह तुरीय तत्त्व – इन तीनों से परे और इनमें अनुगत चौथा ब्रह्म तत्त्व ही सत्य है ।। 20
न यत पुरस्तादुत यन्न पश्चान्मध्ये
च तन्न व्यप देश मात्रम
भूतं प्रसिद्धं च परेण यद् यत
तदेव तत स्यादिति में मनीषा ।। 21
जो उत्पत्ति से पहले नहीं था और प्रलय के पश्चात भी नहीं रहेगा , ऐसा समझना चाहिए कि बीच में भी वह है नहीं – केवल कल्पनामात्र , नाममात्र ही है । यह निश्चित सत्य है कि जो पदार्थ जिस से बनता है और जिसके द्वारा प्रकाशित होता है , वही उसका वास्तविक स्वरूप है , वही उसकी परमार्थ सत्ता है – यह मेरा दृढ निश्चय है ।। 21
अविद्यमानोऽप्यवभासते यो
वैकारिको राजस सर्ग एषः।
ब्रह्म स्वयंज्योतिरतो विभाति
ब्रह्मेन्द्रियार्थात्मविकारचित्रम ।। 22
यह जो विकारमयी राजस सृष्टि है , यह न होने पर भी दिख रही है । यह स्वयं प्रकाश ब्रह्म ही है । इसलिए इन्द्रिय , विषय , मन और पञ्च भूतादि जितने चित्र – विचित्र नाम रूप हैं उनके रूप में ब्रह्म ही प्रतीत हो रहा है ।।22
एवं स्फुटं ब्रह्मविवेकहेतुभिः
परापवादेन विशारदेन।
छित्त्वाऽऽत्मसंदेहमुपारमेत
स्वानंदतुष्टोऽखिलकामुकेभ्यः ।।23
ब्रह्मविचार के साधन हैं – श्रवण , मनन , निदिध्यासन और स्वानुभूति । उनमें सहायक हैं – आत्मज्ञानी गुरुदेव ! इनके द्वारा विचार करके स्पष्ट रूप से देहादि अनात्म पदार्थों का निषेध कर देना चाहिए । इस प्रकार निषेध के द्वारा आत्मविषयक संदेहों को छिन्न – भिन्न कर के अपने आनंदस्वरूप आत्मा में ही मग्न हो जाये और सब प्रकार कि विषय वासनाओं से रहित हो जाये ।। 23
नात्मा वपुः पार्थिवमिन्द्रियाणि
देवा ह्यसुर्वायुजलं हुताशः।
मनोऽन्नमात्रं धिषणा च सत्त्व
महंकृतिः खं क्षितिरर्थसाम्यम ।। 24
निषेध करने की प्रक्रिया यह है कि पृथ्वी का विकार होने के कारण शरीर आत्मा नहीं है । इन्द्रिय , उनके अधिष्ठातृ देवता , प्राण , वायु , जल , अग्नि एवं मन भी आत्मा नहीं है ; क्योंकि इनका धारण – पोषण शरीर के समान ही अन्न के द्वारा होता है । बुद्धि , चित्त , अहंकार , आकाश , पृथ्वी , शब्दादि विषय और गुणों कि साम्यावस्था प्रकृति भी आत्मा नहीं है ; क्योंकि ये सब – के सब दृश्य एवं जड हैं ।। 24
समाहितैः कः करणैर्गुणानात्मभिर्गुणो
भवनमत्सु विविक्त धाम्नः ।
विक्षिप्यमाणैरुत किं नु दूषणं
घनैरूपेतैरविगतै रवेः किं ।। 25
उद्धव जी ! जिसे मेरे स्वरूप का भली भांति ज्ञान हो गया है , उसकी वृत्तियाँ और इन्द्रियाँ यदि समाहित रहती हैं तो उसे उनसे क्या लाभ है ? और यदि वे विक्षिप्त रहती हैं तो उनसे हानि भी क्या है ? क्योंकि अन्तः करण और वाह्य करण – सभी गुणमय हैं और आत्मा से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है । भला , आकाश में बादलों के छा जाने से अथवा तितर – बितर हो जाने से सूर्य का बनता – बिगड़ता है ? 25
यथा नभो वाय्वनलाम्बुभूगुणैर्गता
गतैर्वर्तुगुणैर्न सज्जते ।
तथाक्षरं सत्त्वरजस्तमोमलै
रहंमतेः संसृतिहेतुभिः परम ।।26
जैसे वायु आकाश को सुखा नहीं सकती , आग जला नहीं सकती , जल भिगो नहीं सकता , धूल – धुंए मटमैला नहीं कर सकते और ऋतुओं के गुण गर्मी – सर्दी आदि उसे प्रभावित नहीं कर सकते – क्योंकि ये सब आने – जाने वाले क्षणिक भाव हैं और आकाश इन सबका एक रस अधिष्ठान है – वैसे ही सत्त्व गुण , रजो गुण और तमो गुण की वृत्तियाँ तथा कर्म अविनाशी आत्मा का स्पर्श नहीं कर पाते । वह तो इनसे सर्वथा परे है । इनके द्वारा तो केवल वही संसार में भटकता है जो इनमें अहंकार कर बैठता है ।। 26
तथापि संगः परिवर्जनीयो
गुणेषु मायारचितेषु तावत ।
मद्भक्तियोगेन दृढेन यावद
रजो निरस्येत मनः कषायः।। 27
उद्धव जी ! ऐसा होने पर भी तब तक इन माया निर्मित गुणों और उनके कार्यों का संग सर्वथा त्याग देना चाहिए , जब तक मेरे सुदृढ़ भक्तियोग के द्वारा मन का रजोगुण रुपी मल एकदम निकल न जाये ।। 27
यथाऽऽमयोसाधुचिकित्सितो नृणां
पुनः पुनः संतुदति प्ररोहन।
एवं मनोऽपक्वकषायकर्म
कुयोगिनं विध्यति सर्वसंगम ।। 28
उद्धव जी ! जैसे भली भाँति चिकित्सा न करने पर रोग का समूल नाश नहीं होता , वह बार – बार उभर कर मनुष्य को सताया करता है ; वैसे ही जिस मन की वासनाएं और कर्मों के संस्कार मिट नहीं गए हैं , जो स्त्री – पुत्र आदि में आसक्त है , वह बार – बार अधूरे योगी को भेदता रहता है और उसे कई बार योग भ्रष्ट भी कर देता है ।। 28
कुयोगिनो ये विहितान्तरायैर्मनुष्य
भूतैस्त्रिदशोपसृष्टैः ।
ते प्राक्तनाभ्यासबलेन भूयो
युञ्जन्ति योगं न तु कर्मतंत्रम।। 29
देवताओं के द्वारा प्रेरित शिष्य – पुत्र आदि के द्वारा किये हुए विघ्नों से यदि कदाचित अधूरा योगी मार्गच्युत हो जाये तो भी वह अपने पूर्वाभ्यास के कारण पुनः योगाभ्यास में ही लग जाता है । कर्म आदि में उसकी प्रवृत्ति नहीं होती ।। 29
करोति कर्म क्रियते च जन्तुः
केनाप्यसौ चोदित आनिपातात ।
न तत्र विद्वान प्रकृतौ स्थितोऽपि
निवृत्ततृष्णः स्वसुखानुभूत्या ।। 30
उद्धव जी ! जीव संस्कार आदि से प्रेरित होकर जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त कर्म में ही लगा रहता है और उनमें इष्ट – अनिष्ट – बुद्धि करके हर्ष – विषाद आदि विकारों को प्राप्त होता रहता है । परन्तु जो तत्त्व का साक्षात्कार कर लेता है , वह प्रकृति में स्थित रहने पर भी संस्कारानुसार कर्म होते रहने पर भी उनमें इष्ट – अनिष्ट – बुद्धि कर के हर्ष – विषाद आदि विकारों से युक्त नहीं होता ; क्योंकि आनंदस्वरूप आत्मा के साक्षात्कार से उसकी संसार सम्बन्धी सभी आशा – तृष्णाएं पहले ही नष्ट हो चुकी होती हैं ।। 30
तिष्ठन्तमासीनमुत व्रजन्तं
शयानमुक्षन्तमदन्तमन्नम ।
स्वभावमन्यत किमपीहमान-
मात्मानमात्मस्थमतिर्न वेद ।। 31
जो अपने स्वरूप में स्थित हो गया है , उसे इस बात का भी पता नहीं रहता की शरीर खड़ा है या बैठा , चल रहा है या सो रहा है , मल – मूत्र त्याग रहा है , भोजन कर रहा है अथवा और कोई स्वाभाविक कर्म कर रहा है ; क्योंकि उसकी वृत्ति तो आत्मस्वरूप में स्थित – ब्रह्माकार रहती है ।। 31
यदि स्म पश्यत्य सदिंद्रियार्थं
नानानुमानेन विरुद्धमन्यत।
न मन्यते वस्तुतया मनीषी
स्वापनं यथोत्थाय तिरोदधानम ।। 32
यदि ज्ञानी पुरुष की दृष्टि में इन्द्रियों के विविध वाह्य विषय , जो कि असत हैं , आते भी हैं तो वह उन्हें अपने आत्मा से भिन्न नहीं मानता , क्योंकि वे युक्तियों , प्रमाणों और स्वानुभूति से सिद्ध नहीं होते । जैसे नींद टूट जाने पर स्वप्न में देखे हुए और जागने पर तिरोहित हुए पदार्थों को कोई सत्य नहीं मानता , वैसे ही ज्ञानी पुरुष भी अपने से भिन्न प्रतीयमान पदार्थों को सत्य नहीं मानते ।। 32
पूर्वं गृहीतं गुण कर्म चित्रम
ज्ञान मात्मन्य विविक्त मंग।
निवर्तते तत पुनरीक्ष यैव
न गृह्यते नापि विसृज्य आत्मा ।।33
उद्धव जी ! ( इसका यह अर्थ नहीं हैं कि अज्ञानी ने आत्मा का त्याग कर दिया हैं और ज्ञानी उसको ग्रहण करता है । इसका तात्पर्य केवल इतना ही है कि ) अनेकों प्रकार के गुण और कर्मों से युक्त देह , इन्द्रिय आदि पदार्थ पहले अज्ञान के कारण आत्मा से अभिन्न मान लिए गए थे , उनका विवेक नहीं था । अब आत्म दृष्टि होने पर अज्ञान और उसके कार्यों की निवृत्ति हो जाती है । इसलिए अज्ञान की निवृत्ति ही अभीष्ट है । वृत्तियों के द्वारा न तो आत्मा का ग्रहण हो सकता है और न त्याग ।। 33
यथा हि भानोरुदयो नृचक्षुषाम
तमो निहन्यान्न तु सद विधत्ते ।
एवं समीक्षा निपुणा सती मे
हन्यात्त मिस्रम पुरुषस्य बुद्धेः ।। 34
जैसे सूर्य उदय होकर मनुष्यों के नेत्रों के सामने से अंधकार का पर्दा हटा देते हैं , किसी नयी वस्तु का निर्माण नहीं करते , वैसे ही मेरे स्वरूप का दृढ अपरोक्ष ज्ञान पुरुष के बुद्धि गत अज्ञान का आवरण नष्ट कर देता है । वह इदं रूप से किसी वस्तु का अनुभव नहीं कराता ।। 34
एष स्वयंज्योति रजो ऽप्रमेयो
महानुभूतिः सकलानुभूतिः ।
एकोऽद्वितीयो वचसां विरामे
येनेषिता वागसवश्चरन्ति।। 35
उद्धव जी ! आत्मा नित्य अपरोक्ष है , उसकी प्राप्ति नहीं करनी पड़ती । वह स्वयं प्रकाश है । उसमें अज्ञान आदि किसी प्रकार के विकार नहीं हैं। वह जन्म रहित हैं अर्थात कभी किसी प्रकार भी वृत्ति में आरूढ़ नहीं होता । इसलिए अप्रमेय है । ज्ञान आदि के द्वारा उसका संस्कार भी नहीं किया जा सकता । आत्मा में देश , काल और वस्तुकृत परिच्छेद न होने के कारण अस्तित्व , वृद्धि , परिवर्तन , ह्रास और विनाश उसका स्पर्श भी नहीं कर सकते । सबकी और सब प्रकार की अनुभूतियाँ आत्मस्वरूप ही हैं । जब मन और वाणी आत्मा को अपना अविषय समझ कर निवृत्त हो जाते हैं , तब वही सजातीय , विजातीय और स्वगत भेद से शून्य एक अद्वितीय रह जाता है । व्यव्हार दृष्टि से उसके स्वरूप का वाणी और प्राण आदि के प्रवर्तक के रूप में निरूपण किया जाता है ।। 35
एतावानात्मसंमोहो यद् विकल्पस्तु केवले।
आत्मन्नृते स्वमात्मानमवलंबो न यस्य हि।। 36
उद्धव जी ! अद्वितीय आत्म तत्त्व में अर्थहीन नामों के द्वारा विविधता मान लेना ही मन का भ्रम है , अज्ञान है । सचमुच यह बहुत बड़ा मोह है , क्योंकि अपने आत्मा के अतिरिक्त उस भ्रम का भी और कोई अधिष्ठान नहीं है । अधिष्ठान – सत्ता में अध्यस्त की सत्ता है ही नहीं । इसलिए सब कुछ आत्मा ही है ।। 36
यन्नामाकृतिभिर्ग्राह्यं पंचवर्णमबाधितम ।
व्यर्थेनाप्यर्थवादोऽयं द्वयं पंडितमानिनाम ।।37
बहुत से पण्डिताभिमानी लोग ऐसा कहते हैं कि यह पांचभौतिक द्वैत विभिन्न नामों और रूपों के रूप में इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किया जाता हैं , इसलिए सत्य है । परन्तु यह तो अर्थहीन वाणी का आडम्बर मात्र है ; क्योंकि तत्त्वतः तो इन्द्रियों कि पृथक सत्ता ही सिद्ध नहीं होती , फिर वे किसी को प्रमाणित कैसे करेंगीं ? 37
योगिनोऽपक्वयोगस्य युंजतः काय उत्थितैः।
उपसर्गैर्विहन्येत तत्रायं विहितो विधिः ।। 38
उद्धव जी ! यदि योगसाधना पूर्ण होने के पहले ही किसी साधक का शरीर रोगादि उपद्रवों से पीड़ित हो , तो उसे इन उपायों का आश्रय लेना चाहिए ।। 38
योगधारणया कांश्चिदासनैर्धारणान्वितैः ।
तपोमंत्रौषधैः कांश्चिदुपसर्गान विनिर्देहेत।। 39
गर्मी – ठंडक आदि को चन्द्रमा – सूर्य आदि की धारणा के द्वारा , वात आदि रोगों को वायु धारणा युक्त आसनों के द्वारा और गृह – सर्पादि कृत विघ्नों को तपस्या , मंत्र एवं औषधि के द्वारा नष्ट कर डालना चाहिए ।। 39
कांश्चिन्ममानुध्यानेन नामसंकीर्तनादिभिः ।
योगेश्वरानुवृत्त्या वा हन्यादुशुभदाञ्छनैः।। 40
काम – क्रोध आदि विघ्नों को मेरे चिंतन और नाम – संकीर्तन आदि के द्वारा नष्ट करना चाहिए । तथा पतन की ओर ले जाने वाले दम्भ – मद आदि विघ्नों को धीरे – धीरे महापुरुषों की सेवा के द्वारा दूर कर देना चाहिए ।।40
केचिद देहमिमं धीराः सुकल्पं वयसि स्थिरं।
विधाय विविधोपायैरथ युंजन्ति सिद्धये ।। 41
न हि तत कुशलादृत्यं तदायासो ह्यपार्थकः।
अंतवत्तवा वाच्छरीरस्य फलस्येव वनस्पतेः।। 42
कोई – कोई मनस्वी योगी विविध उपायों के द्वारा इस शरीर को सुदृढ़ और युवावस्था में स्थिर कर के फिर अणिमा आदि सिद्धियों के लिए योग साधन करते हैं , परन्तु बुद्धिमान पुरुष ऐसे विचार का समर्थन नहीं करते , क्योंकि यह तो एक व्यर्थ प्रयास है । वृक्ष में लगे हुए फल के सामान इस शरीर का नाश तो अवश्यम्भावी है ।। 41-42
योगं निषेवतो नित्यं कायश्चेत कल्पतामियात ।
तच्छ्रद्ध्यान्न मतिमान योगमुत्सृज्य मत्परः ।। 43
योगचर्यामिमां योगी विचरन मदपाश्रयः ।
नांतरायैर्विहन्येत निःस्पृहः स्वसुखानुभूः।। 44
जो साधक मेरा आश्रय लेकर मेरे द्वारा कही हुई योग साधना में संलग्न रहता है , उसे कोई भी विघ्न – बाधा डिगा नहीं सकती । उसकी सारी कामनाएं नष्ट हो जाती हैं और वह आत्मानंद की अनुभूति में मग्न हो जाता है ।। 43-44
इति श्रीमदभागवते महापुराणे पारंहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे ऽष्टाविंशोऽध्यायः