अथ सप्तमो अध्यायः
अवधूतोपाख्यान – पृथ्वी से लेकर कबूतर तक आठ गुरुओं की कथा
श्री भगवानुवाच
यदात्थ मां महाभाग तच्चिकीर्षित मेव मे ।
ब्रह्मा भवो लोकपालाः स्वरवासं मेऽभिकांक्षिणः ।। 1
महाभाग्यवान उद्धव ! तुमने मुझसे जो कुछ कहा है , मैं वही करना चाहता हूँ । ब्रह्मा , शंकर और इन्द्रादि लोकपाल भी अब यही चाहते हैं कि मैं उनके उनके लोकों में हो कर अपने धाम को चला जाऊं । 1
मया निष्पादितं ह्यत्र देवकार्यंशेषतः।
यदर्थमवतीर्नोऽहमंशेन ब्रह्मणार्थितः ।। 2
पृथ्वी पर देवताओं का जितना काम करना था उसे मैं पूरा कर चुका। इसी काम के लिए ब्रह्मा जी की प्रार्थना से मैं बलराम जी के साथ अवतीर्ण हुआ था ।। 2
कुलं वै शाप निर्दग्धं नंक्ष-यत-यन्योन्य- विग्र- ह्यत ।
समुद्रः सप्तमे हन्येतां पुरीं च प्लावयिष्यति ।।3
अब यह यदुवंश , जो ब्राह्मणों के शाप से भस्म हो चुका है , पारस्परिक फूट और युद्ध से नष्ट हो जायेगा । आज के सातवें दिन समुद्र इस पूरी द्वारका को डुबो देगा ।। 3
यर-ह्येवायं मया त्यक्तो लोकोऽयं नष्ट मंगलः।
भविष्यत्य चिरात साधो कलिनापि निराकृतः ।। 4
प्यारे उद्धव ! जिस क्षण मैं मर्त्य लोक का परित्याग कर दूंगा , उसी क्षण इसके सारे मंगल नष्ट हो जाएंगे और थोड़े ही दिनों में पृथ्वी पर कलयुग का बोलबाला हो जायेगा ।। 4
न वस्तव्यं त्वयैवेह मया त्यक्ते महीतले ।
जनोऽधर्म रुचिर्भद्र भविष्यति कलौ युगे ।। 5
जब मैं इस पृथ्वी का त्याग कर दूँ तब तुम इस पर मत रहना , क्योंकि साधु उद्धव ! कलियुग में अधिकाँश लोगों की रूचि अधर्म में ही होगी ।। 6
त्वं तु सर्वं परित्यज्य स्नेहम स्वजन बन्धुषु ।
मय्या वेश्य मनः सम्यक विचरस्व गाम।।6
अब तुम अपने आत्मीय स्वजन और बंधु – बांधवों का स्नेह छोड़ दो और अनन्य प्रेम से मुझ में अपना मन लगा कर सम दृष्टि से पृथ्वी पर स्वछंद विचरण करो ।। 6
यदिदं मनसा वाचा चक्षुरभ्यां श्रवणादिभिः ।
नश्वरं गृह्यमाणं च विद्धि मायामनोमयं ।। 7
इस जगत में जो कुछ मन से सोचा जाता है , वाणी से कहा जाता है , नेत्रों से देखा जाता है और श्रवण आदि इन्द्रियों से अनुभव किया जाता है , वह सब नाशवान है । सपने की तरह मन का विलास है । इसलिए माया मात्र है , मिथ्या है – ऐसा समझ लो ।। 7
पुंसोऽयुक्तस्य नानार्थो भ्रमः स गुण दोष भाक ।
कर्मा कर्म विकर्मेति गुण दोष धियो भिदा ।। 8
जिस पुरुष का मन अशांत है , असंयत है , उसी को पागल की तरह अनेकों वस्तुएं मालूम पड़ती हैं ; वास्तव में यह चित्त का भ्रम ही है । नानात्व का भ्रम हो जाने पर ही ‘ यह गुण है ‘ और ‘ यह दोष है ‘ इस प्रकार की कल्पना करनी पड़ती है । जिसकी बुद्धि में गुण और दोष का भेद बैठ गया है , दृढ मूल हो गया है उसी के लिए कर्म ( विहित कर्म ) , अकर्म ( विहित कर्म का लोप ) और विकर्म रूप ( निषिद्ध कर्म ) भेद का प्रतिपादन हुआ है ।। 8
तस्माद युक्तेंद्रिय ग्रामो युक्त चित्त इदं जगत ।
आत्मनीक्षस्व वित् तमात्मानं मय्य धीश्वरे।। 9
इसलिए उद्धव ! तुम पहले अपनी समस्त इन्द्रियों को वश में कर लो , उनकी बागडोर अपने हाथों में ले लो और केवल इन्द्रियों को ही नहीं , चित्त की समस्त वृत्तियों को भी रोक लो और फिर ऐसा अनुभव करो कि यह सारा जगत अपने आत्मा में ही फैला हुआ है और आत्मा मुझ सर्वात्मा इन्द्रियातीत ब्रह्म से एक है , अभिन्न है ।। 9
ज्ञान विज्ञान संयुक्त आत्म भूतः शरीरिणाम ।
आत्मानु भाव तुष्टात्मा नांत रायैर्विहिन्यसे ।। 10
जब वेदों के मुख्य तात्पर्य “निश्चय रूप ज्ञान” और “अनुभव रूप विज्ञान” से भली भांति संपन्न हो कर तुम अपने आत्मा के अनुभव में ही आनंद मग्न रहोगे और सम्पूर्ण देवता आदि शरीर धारियों के आत्मा हो जाओगे । इसलिए किसी भी विघ्न से तुम पीड़ित नहीं हो सकोगे ; क्योंकि उन विघ्नों और विघ्न उत्पन्न करने वालों की आत्मा भी तुम्हीं होंगे। 10
दोष बुद्ध्यो भयातीतो निषेधान निवर्तते ।
गुण बुद्धया च विहितं न करोति यथार्भकः ।। 11
जो पुरुष गुण और दोष बुद्धि से अतीत हो जाता है , वह बालक के समान निषिद्ध कर्म से निवृत्त होता है , परन्तु दोष बुद्धि से नहीं । वह विहित कर्म का अनुष्ठान भी करता है , परन्तु गुण बुद्धि से नहीं ।। 11
सर्व भूत सुहृच्छान्तो ज्ञान विज्ञान निश्चयः ।
पश्यन मादात्मकं विश्वम न विपद्येत वै पुनः ।। 12
जिसने श्रुतियों के तात्पर्य का यथार्थ ज्ञान ही नहीं प्राप्त कर लिया , बल्कि उनका साक्षात्कार भी कर लिया है और इस प्रकार जो अटल निश्चय से संपन्न हो गया है वह समस्त प्राणियों का हितैषी सुहृद होता है और उसकी वृत्तियाँ सर्वथा शांत रहती हैं । वह समस्त प्रतीयमान विश्व को मेरा ही स्वरूप – आत्म स्वरूप देखता है ; इसलिए उसे फिर कभी जन्म मृत्यु के चक्कर में नहीं पड़ना पड़ता है ।। 12
श्री शुक उवाच
इत्यादिष्टो भगवता महा भागवतो नृप ।
उद्धवः प्रणिपत्याहः तत्त्वजिज्ञासुरच्युतम ।। 13
श्री शुकदेव जी कहते हैं – परीक्षित ! जब भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार समझाया , तब भगवान के परम प्रेमी उद्धव जी ने उन्हें प्रणाम करके तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति की इच्छा से यह प्रश्न किया ।। 13
उद्धव उवाच
योगेश योग विन्यास योगात्मन योगसम्भव ।
निःश्रेयसाय मे प्रोक्तस्त्यागः संन्यास लक्षणः ।। 14
उद्धव जी ने कहा – भगवन ! आप ही समस्त योगियों की गुप्त पूँजी अर्थात योगों के कारण और योगेश्वर हैं । आप ही समस्त योगों के आधार , उनके कारण और योग स्वरूप भी हैं । आपने मेरे परम – कल्याण के लिए उस संन्यास रूप त्याग का उपदेश किया है ।। 14
त्यागोऽयं दुष्करो भूमन कामानां विषयात्मभिः ।
सुतरां त्वयि सर्वात्मन्न भक्तै रिति मे मतिः ।। 15
परन्तु हे अनंत ! जो लोग विषयों के चिंतन और सेवन में घुल मिल गए हैं , विषयात्मा हो गए हैं , उनके लिए विषय भोगों और कामनाओं का त्याग अत्यंत कठिन है । हे सर्वस्वरूप ! उनमें भी जो लोग आपसे विमुख हैं , उनके लिए तो इस प्रकार का त्याग सर्वथा असंभव ही है, ऐसा मेरा निश्चय है ।। 15
सोऽहं ममाहमिति मूढ़ मतिर-विगाढ़ –
स्त्वन्मायया विरचितात्मनि सानु बंधे ।
तत्त्वञ्जसा निगदितं भवता यथाहं
संसाधयामि भगवन्ननुशाधि भृत्यं ।। 16
हे प्रभो ! मैं भी ऐसा ही हूँ , मेरी मति इतनी मूढ़ हो गयी है कि ‘ यह मैं हूँ , यह मेरा है ‘ इस भाव से मैं आपकी माया के खेल , देह और देह के सम्बन्धी स्त्री , पुत्र , धन आदि में डूब रहा हूँ । अतः हे भगवन ! आपने जिस सन्यास का उपदेश किया है , उसका तत्व मुझ सेवक को इस प्रकार समझाइये कि मैं सुगमता पूर्वक उसका साधन कर सकूं ।। 16
सत्यस्य ते स्वदृश आत्मन आत्मनोऽन्यं
वक्तारमीश विबुधेष्वपि नानुचक्षे।
सर्वे विमोहितधियस्तव माययेमे
ब्रह्मादयस्तनुभृतो बहीरर्थभावाः ।। 17
मेरे प्रभो ! आप भूत , भविष्य , वर्तमान , इन तीन कालों से अबाधित , एक रस सत्य हैं । आप दूसरे के द्वारा प्रकशित नहीं , स्वयं प्रकाश आत्म स्वरूप हैं। प्रभो ! मैं समझता हूँ कि मेरे लिए आत्म तत्त्व का उपदेश करने वाला आपके अतिरिक्त देवताओं में भी कोई भी नहीं है। ब्रह्मा आदि जितने बड़े – बड़े देवता हैं , वे सब शरीर अभिमानी होने के कारण आपकी माया से मोहित हो रहे हैं । उनकी बुद्धि माया के वश में हो गयी है । यही कारण है कि वे इन्द्रियों से अनुभव किये जाने वाले वाह्य विषयों को सत्य मानते हैं । इसीलिए मुझे तो आप ही उपदेश कीजिये ।।17
तस्माद भवंतमनवद्यमनंतपारं
सर्वज्ञमीश्वरमकुण्ठविकुंठधिष्ण्यं ।
निर्विण्णधीरहमु ह वृजिनाभितप्तो
नारायणं नरसखं शरणम् प्रपद्ये ।। 18
भगवन ! इसी कारण चारों ओर से दुःखों की दावाग्नि से जलकर और विरक्त हो कर मैं आपकी शरण में आया हूँ । आप निर्दोष, देश काल से अपरिच्छिन्न , सर्वज्ञ , सर्व शक्तिमान और अविनाशी वैकुण्ठ लोक के निवासी एवं नर के नित्य सखा नारायण हैं । ( अतः आप ही मुझे उपदेश कीजिये )
श्री भगवानुवाच
प्रायेण मनुजा लोके लोक तत्त्व विचक्षणाः ।
समुद्धरन्ति ह्यात्मानमात्मनैवाशुभाशयात ।। 19
भगवान् श्री कृष्ण ने कहा – उद्धव ! संसार में जो मनुष्य ‘ यह जगत क्या है ? इसमें क्या हो रहा है ? ‘ इत्यादि बातों का विचार करने में निपुण है , वे चित्त में भरी हुई अशुभ वासनाओं से अपने आपको स्वयं अपनी विवेक शक्ति से ही प्रायः बचा लेते हैं । 19
आत्मनो गुरुरात्मैव पुरुषस्य विशेषतः ।
यत प्रत्यक्षानुमानाभ्यां श्रेयोसावनुविन्दते ।। 20
समस्त प्राणियों का विशेषकर मनुष्य का आत्मा अपने हित और अहित का उपदेशक गुरु है । क्योंकि मनुष्य अपने प्रत्यक्ष अनुभव और अनुमान के द्वारा अपने हित – अहित का निर्णय करने में पूर्णतः समर्थ हैं ।। 20
पुरुषत्वे च मां धीराः सांख्य योग विशारदाः ।
आविस्तराम प्रपश्यन्ति सर्व शक्तयुप बृंहितम ।। 21
सांख्य योग विशारद धीर पुरुष इस मनुष्य योनि में इन्द्रिय शक्ति , मनः शक्ति आदि के आश्रय भूत मुझ आत्म तत्व को पूर्णतः प्रकट रूप से साक्षात्कार कर लेते हैं ।। 21
एकद्विचित्र चतुष्पादो बहुपादस्तथापदः ।
बह्वयः सन्ति पुरः सृष्टास्तासां मे पौरुषी प्रिया।। 22
मैंने एक पैर वाले , दो पैर वाले , तीन पैर वाले , चार पैर वाले , चार से अधिक पैर वाले और बिना पैर के – इत्यादि अनेक प्रकार के शरीरों का निर्माण किया है । उन में मुझे सबसे अधिक प्रिय मनुष्य का ही शरीर है ।। 22
अत्र मां मार्गयन्त्यद्धा युक्ता हेतुभिरीश्वरम ।
गृह्यमानैर्गुणैरलिङ्गैरग्राह्यमनुमानतः ।।23
इस मनुष्य शरीर में एकाग्र चित्त तीक्ष्ण बुद्धि पुरुष, बुद्धि आदि द्वारा ग्रहण किये जाने वाले विषयों से जिनसे कि अनुमान भी होता है , अनुमान से अग्राह्य अर्थात अहंकार आदि विषयों से भिन्न मुझ सर्व प्रवर्तक ईश्वर को साक्षात अनुभव करते हैं ।। 23
अत्राप्युदा हरन्तीममितिहासं पुरातनं ।
अवधूतस्य संवादं यदोरमिततेजसः ।। 24
इस विषय में महात्मा लोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास परम तेजस्वी अवधूत दत्तात्रेय और राजा यदु के संवाद के रूप में है ।।
अवधूतं द्विजं कंचिच्चरंतमकुतोभयं ।
कविं निरीक्ष्य तरुणं यदुः पपृच्छ धर्मवित् ।। 25
एक बार धर्म के मर्मज्ञ राजा यदु ने देखा कि एक त्रिकाल दर्शी तरुण अवधूत ब्राह्मण ( दत्तात्रेय ) निर्भय हो कर विचर रहे हैं । तब उन्होंने उनसे यह प्रश्न किया ।
यदुरुवाच
कुतो बुद्धिरियं ब्रह्म ब्रह्मन-नकर्तुः सुविशारदा ।
यामासाद्य भवांल्लोकम विद्वामश्चरति बालवत ।। 26
राजा यदु ने पूछा – ब्रह्मन ! आप कर्म तो करते नहीं , फिर आपको यह अत्यंत निपुण बुद्धि कहाँ से प्राप्त हुयी ? जिसका आश्रय ले कर आप परम विद्वान् होने पर भी बालक के सामान संसार में विचरते रहते हैं । 26
प्रायो धर्मार्थ कामेषु विवित्सायां च मानवाः।
हेतुनैव समीहन्ते आयुषो यशसः श्रियः ।। 27
ऐसा देखा जाता है कि मौश्य आयु , यश अथवा सौंदर्य – संपत्ति आदि कि अभिलाषा लेकर ही धर्म , अर्थ , काम अथवा तत्व जिज्ञासा में प्रवृत्त होते हैं; अकारण कहीं किसी की प्रवृत्ति नहीं देखीं जाती।। 27
तवं तु कल्पः कविर्दक्षः सुभगोऽमृतभाषणः ।
न कर्ता नेहसे किंचिज्जड़ों-मत्त पिशाचवत ।। 28
मैं देख रहा हूँ कि आप कर्म करने में समर्थ , विद्वान और निपुण हैं । आपका भाग्य और सौंदर्य प्रशंसनीय हैं । आपकी वाणी से तो मानो अमृत टपक रहा हैं । फिर भी आप जड़ , उन्मत्त अथवा पिशाच के समान रहते हैं ; न तो कुछ करते हैं और न चाहते ही हैं ।। 28
जनेषु दह्यमानेषु काम लोभ दावाग्निना ।
न तप्यसेऽग्निना मुक्तो गंगाम्भःस्थ इव द्विपः।। 29
संसार के अधिकाँश लोग काम और लोभ के दावानल से जल रहे हैं परन्तु आपको देखकर ऐसा मालूम होता हैं कि आप मुक्त हैं, आप तक उनकी आंच भी नहीं पहुंच पाती ; ठीक वैसे ही जैसे कोई हाथी वन में दावाग्नि लगने पर उस से छूट कर गंगाजल में खड़ा हो।
त्वं हि नः पृच्छतां ब्रह्मन-नातमन्या-नन्द-कारणं।
ब्रूहि स्पर्शविहीनस्य भवतः केवलात्मनः ।। 30
ब्रह्मन ! आप पुत्र , स्त्री , धन आदि संसार के स्पर्श से भी रहित हैं । आप सदा सर्वदा अपने केवल स्वरूप में ही स्थित रहते हैं । हम आपसे यह पूछना चाहते हैं कि आपको अपने आत्मा में ही ऐसे अनिर्वचनीय आनंद का अनुभव कैसे होता हैं ? आप कृपा कर के अवश्य बतलाइये ।। 30
श्री भगवानुवाच
यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा।
पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्नयावनतं द्विजः ।। 31
भगवान् श्री कृष्ण ने कहा – उद्धव ! हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि शुद्ध थी और उनके ह्रदय में ब्राह्मण भक्ति थी । उन्होंने परम भाग्यवान दत्तात्रेय जी से अत्यंत सत्कार करके यह प्रश्न पूछा और बड़े विनम्र भाव से सर झुका कर वे उनके सामने खड़े हो गए । अब दत्तात्रेय जी ने कहा ।। 31
ब्राह्मण उवाच
सन्ति मे गुरवो राजन बहवो बुद्धयुपाश्रिताः ।
यतो बुद्धि मुपादाय मुक्तोटामीह तान्छृणु ।। 32
ब्रह्म वेत्ता दत्तात्रेय जी ने कहा – राजन ! मैंने अपनी बुद्धि से बहुत से गुरुओं का आश्रय लिया हैं , उनसे शिक्षा ग्रहण करके मैं इस जगत में मुक्तभाव से स्वछंद विचरता हूँ । तुम उन गुरुओं के नाम और उनसे ग्रहण की हुई शिक्षा सुनो ।। 32
पृथिवी वायुराकाशमापोऽग्निश चन्द्रमा रविः ।
कपोतोऽजगरः सिन्धुः पतंगो मधुकृद गजः।। 33
मेरे गुरुओं के नाम हैं – पृथ्वी , वायु , आकाश , जल , अग्नि , चन्द्रमा , सूर्य , कबूतर , अजगर , समुद्र , पतंग , भौंरा या मधुमक्खी , हाथी । 33
मधुहा हरिणो मीनः पिंगला कुररोऽर्भकः ।
कुमारी शरकृत सर्प ऊर्णनाभिः सुपेशकृत।। 34
शहद निकालने वाला , हरिण , मछली , पिंगला वैश्या, कुरुर पक्षी , बालक , कुंआरी कन्या , बाण बनाने वाला , सर्प , मकड़ी और भृंगी कीट ।। 34
एते मे गुरवो राजंश्चतुर्विंशतिराश्रिताः ।
शिक्षावृत्तिभिरेतेषामन्व शिक्ष मिहात्मनः ।। 35
राजन ! मैंने इन चौबीस गुरुओं का आश्रय लिया हैं और इन्हीं के आचरण से इस लोक में अपने लिए शिक्षा ग्रहण की हैं ।। 35
यतो यद्नुशिक्षामि यथा वा नाहुषात्मज।
तत्तथा पुरुष व्याघ्र निबोध कथयामि ते ।। 36
वीरवर ययातिनंदन ! मैंने जिस से जिस प्रकार जो कुछ सीखा हैं , वह सब ज्यों का त्यों तुमसे कहता हूँ , सुनो ।। 36
भूतैराक्रम्यमाणोऽपि धीरो दैववशानुगैः ।
तद विद्वान्न चलेनमार्गा-दन-व शिक्षम क्षितेरव्रतम।। 37
मैंने पृथ्वी से उसके धैर्य की , क्षमा की शिक्षा ली हैं । लोग पृथ्वी पर कितना आघात और क्या-क्या उत्पात नहीं करते ; परन्तु वह न तो किसी से बदला लेती है और न रोती-चिल्लाती है । संसार के सभी प्राणी अपने-अपने प्रारब्ध के अनुसार चेष्टा कर रहे हैं , वे समय-समय पर भिन्न-भिन्न प्रकार से जाने या अनजाने में आक्रमण कर बैठते हैं । धीर पुरुष को चाहिए कि उनकी विवशता समझे , न तो अपना धीरज खोवे और न क्रोध करे । अपने मार्ग पर ज्यों का त्यों चलता रहे ।। 37
शश्वतपरार्थसर्वेहः परार्थैकान्तसम्भवः ।
साधुः शिक्षेत भू भृत्तो नग शिष्यः परात्मतां ।। 38
पृथ्वी के ही विकार पर्वत और वृक्ष से मैंने यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे उनकी सारी चेष्टाएं सदा सर्वदा दूसरों के हित के लिए ही होती हैं , बल्कि यों कहना चाहिए कि उनका जन्म ही एकमात्र दूसरों का हित करने के लिए ही हुआ है , साधु पुरुष को चाहिए कि उनकी शिष्यता स्वीकार करके उनसे परोपकार की शिक्षा ग्रहण करे ।। 38
प्राण वृत्त्यैव संतुष्येन-मुनिर्नैवेन्द्रिय प्रियैः ।
ज्ञानं यथा न नश्येत नावकीर्येत वाङ्गमनः ।। 39
मैंने शरीर के भीतर रहने वाले वायु अर्थात प्राण वायु से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वह आहारमात्र की इच्छा रखता है और उसकी प्राप्ति से ही संतुष्ट हो जाता है , वैसे ही साधक को भी चाहिए कि जितने से जीवन निर्वाह हो जाये , उतना भोजन कर ले । इन्द्रियों को तृप्त करने के लिए बहुत से विषय न चाहे । संक्षेप में उतने ही विषयों का उपयोग करना चाहिए जिनसे बुद्धि विकृत न हो , मन चंचल न हो और वाणी व्यर्थ की बातों में न लग जाये ।। 39
विषयेष्वाविशन योगी नानाधर्मेषु सर्वतः ।
गुणदोषव्यपेतात्मा न विषज्जेत वायुवत।। 40
शरीर के बाहर रहने वाले वायु से मैंने यह सीखा है कि जैसे वायु को अनेक स्थानों में जाना पड़ता है परन्तु वह कहीं भी आसक्त नहीं होता , किसी का भी गुण दोष नहीं अपनाता , वैसे ही साधक पुरुष भी आवश्यकता होने पर विभिन्न प्रकार के धर्म और स्वभाव वाले विषयों में जाये परन्तु अपने लक्ष्य पर स्थित रहे । किसी के गुण या दोष की ओर झुक न जाये , किसी से आसक्ति या द्वेष न कर बैठे ।
पार्थिवेष्विह देहेषु प्रविष्टस्तदगुणाश्रयः ।
गुणैर्न युज्यते योगी गन्धैर्वायुरिवात्मदृक ।। 41
गंध वायु का गुण नहीं , पृथ्वी का गुण है परन्तु वायु को गंध का वहन करना पड़ता है । ऐसा करने पर भी वायु शुद्ध ही रहता है , गंध से उसका संपर्क नहीं होता । वैसे ही साधक का जब तक इस पार्थिव शरीर से सम्बन्ध है तब तक उसे इसकी व्याधि , पीड़ा और भूख प्यास आदि का भी वहन करना पड़ता है परन्तु अपने को शरीर नहीं आत्मा देखने वाला साधक शरीर और उसके गुणों का आश्रय होने पर भी उनसे सर्वथा निर्लिप्त रहता है ।
अन्तर्हितश्च स्थिरजंगमेषु
ब्रह्मात्मभावेन समन्वयेन ।
व्याप्त्याव्यवच्छेदमसंगमात्मनो
मुनिर्नभसत्वं वित् तस्य भावयेत ।। 42
राजन ! जितने भी घट मठ आदि पदार्थ हैं , वे चाहे चल हों या अचल उनके कारण भिन्न-भिन्न प्रतीत होने पर भी वास्तव में आकाश एक और अपरिच्छिन्न ( अखंड ) ही है । वैसे ही चर- अचर जितने भी सूक्ष्म – स्थूल शरीर हैं , उनमें आत्मा रूप से सर्वत्र स्थित होने के कारण ब्रह्म सभी में है । साधक को चाहिए कि सूत के मणियों में व्याप्त सूत के समान आत्मा को अखंड और असंगरूप से देखे। वह इतना विस्तृत है कि उसकी तुलना कुछ-कुछ आकाश से ही की जा सकती है। इसलिए साधक को आत्मा की आकाश रूपता की भावना करनी चाहिए ।। 42
तेजोऽबन्न मयैर्भावैर्मेघाद्यैर्वायुनेरितैः।
न स्पृश्यते नभस्तद्वत कालसृष्टैर्गुणैः पुमान ।। 43
आग लगती है , पानी बरसता है , अन्न आदि पैदा होते और नष्ट होते हैं , वायु की प्रेरणा से बादल आदि आते और चले जाते हैं ; यह सब होने पर भी आकाश अछूता रहता है । आकाश की दृष्टि में यह सब कुछ है ही नहीं । इसी प्रकार भूत , वर्तमान और भविष्य के चक्कर में न जाने किन-किन नाम-रूपों की सृष्टि और प्रलय होते हैं ; परन्तु आत्मा के साथ उनका कोई संस्पर्श नहीं है ।। 43
स्वच्छः प्रकृतितः स्निग्धो माधुर्यस्तीर्थभूर्नृणाम ।
मुनिः पुनात्यपां मित्र मीक्षोपस्पर्शकीर्तनैः ।। 44
जिस प्रकार जल स्वभाव से ही स्वच्छ , चिकना , मधुर और पवित्र करने वाला होता है तथा गंगा आदि तीर्थों के दर्शन , स्पर्श और नामोच्चारण से भी लोग पवित्र हो जाते हैं । वैसे ही साधक को भी स्वभाव से ही शुद्ध , स्निग्ध , मधुर भाषी और लोक पावन होना चाहिए । जल से शिक्षा ग्रहण करने वाला अपने दर्शन , स्पर्श और नामोच्चारण से लोगों को पवित्र कर देता है । 44
तेजस्वी तपसा दीप्तो दुर्धर्षोरदरभाजनः ।
सर्वभक्षोऽपि युक्तात्मा नादत्ते मलमग्निवत ।। 45
राजन ! मैंने अग्नि से यह शिक्षा ली कि जैसे वह तेजस्वी और ज्योतिर्मय होती है , जैसे उसे कोई अपने तेज से दबा नहीं सकता , जैसे उसके पास संग्रह – परिग्रह के लिए कोई पात्र नहीं । सब कुछ खा-पी लेने पर भी विभिन्न वस्तुओं के दोषों से वह लिप्त नहीं होती वैसे ही साधक भी परम तेजस्वी , तपस्या से देदीप्यमान , इन्द्रियों से अपराभूत , भोजन मात्र का संग्रही और यथा योग्य सभी विषयों का उपभोग करता हुआ भी अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखे किसी का दोष अपने में न आने दे ।। 45
क्वचिच्छन्नः क्वचित स्पष्ट उपास्यः श्रेय इच्छताम।
भुङ्क्ते सर्वत्र दातृणाम दहन प्रागुत्तराशुभं ।। 46
जैसे अग्नि कहीं ( लकड़ी आदि में ) अप्रकट रहती है और कहीं प्रकट । वैसे ही साधक भी कहीं गुप्त रहे और कहीं प्रकट हो जाये । वह कहीं-कहीं ऐसे रूप में प्रकट हो जाता है , जिस से कल्याणकारी पुरुष उसकी उपासना कर सके । वह अग्नि के समान ही भिक्षारूप हवन करने वालों के अतीत और भावी अशुभ को भस्म कर देता है और सर्वत्र अन्न ग्रहण करता है ।। 46
स्वमायया सृष्टमिदं सदसल्लक्षणं विभुः ।
प्रविष्ट ईयते तत्ततस्वरूपोऽग्निरिवैधसि ।। 47
साधक पुरुष को इसका विचार करना चाहिए कि जैसे अग्नि लम्बी – चौड़ी दिखाई पड़ती है। वास्तव में वह वैसी है ही नहीं ; वैसे ही सर्व व्यापक आत्मा भी अपनी माया से रचे हुए कार्य – कारण रूप जगत में व्याप्त होने के कारण उन-उन वस्तुओं के नाम – रूप से कोई सम्बन्ध न होने पर भी उनके रूप में प्रतीत होने लगता है ।। 47
विसर्गाद्याः शम्शानांता भावा देहस्य नात्मनः ।
कलानामिव चन्द्रस्य कालेनाव्यक्तवर्त्मना ।। 48
मैंने चन्द्रमा से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यद्यपि जिसकी गति नहीं जानी जा सकती , उस काल के प्रभाव से चन्द्रमा की कलाएं घटती- बढ़ती रहती हैं , तथापि चन्द्रमा तो चन्द्रमा ही है , वह न घटता है न बढ़ता ही है, वैसे ही जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त जितनी भी अवस्थाएं है, सब शरीर की हैं , आत्मा से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है ।। 48
काले ह्योघवेगेन भूतानां प्रभवाप्ययौ ।
नित्यावपि न दृश्यते आत्मनोऽग्निर्यथार्चिषाम।। 49
जैसे आग की लपट या दीपक की लौ क्षण – क्षण में उत्पन्न और नष्ट होती रहती है , परन्तु ऐसा दिखाई नहीं पड़ता – वैसे ही जल प्रवाह के समान वेगवान काल के द्वारा क्षण – क्षण में प्राणियों के शरीर की उत्पत्ति और विनाश होता रहता है , परन्तु अज्ञानवश वह दिखाई नहीं पड़ता ।। 49
गुणैर्गुणानुपादत्ते यथा कालम विमुञ्चति ।
न तेषु युज्यते योगी गोभिर्गा इव गोपतिः ।। 50
राजन ! मैंने सूर्य से यह शिक्षा ली है कि जैसे वे अपनी किरणों से पृथ्वी का जल खींचते और समय पर उसे बरसा देते हैं , वैसे ही योगी पुरुष इन्द्रियों के द्वारा समय पर विषयों का ग्रहण करता है और समय आने पर उन का त्याग – उनका दान भी कर देता है । किसी भी समय उसे इन्द्रिय के किसी भी विषय में आसक्ति नहीं होती ।। 50
बुध्यते स्वे न भेदेन व्यक्तिस्थ इव तद्गतः ।
लक्ष्यते स्थूलमतिभिरात्मा चावस्थितोऽर्कवत ।। 51
स्थूल बुद्धि पुरुषों को जल के विभिन्न पात्रों में प्रतिबिंबित हुआ सूर्य उन्हीं में प्रविष्ट सा होकर भिन्न – भिन्न दिखाई पड़ता है परन्तु इस से स्वरूपतः सूर्य अनेक नहीं हो जाता ; वैसे ही चल – अचल उपाधियों के भेद से ऐसा जान पड़ता है कि प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा अलग – अलग है परन्तु जिनको ऐसा मालूम होता है , उनकी बुद्धि मोटी है । असल बात तो यह है कि आत्मा सूर्य के समान एक ही है । स्वरूपतः उसमें कोई भेद नहीं है । 51
नाति स्नेहः प्रसंगो वा कर्तव्यः क्वापि केनचित।
कुर्वन विन्देत सन्तापं कपोत इव दीनधीः।। 52
राजन ! कहीं किसी के साथ अत्यंत स्नेह अथवा आसक्ति नहीं करनी चाहिए , अन्यथा उसकी बुद्धि अपना स्वातंत्र्य खो कर दीन हो जाएगी और उसे कबूतर की तरह अत्यंत क्लेश उठाना पड़ेगा ।। 52
कपोतः कश्चनाराण्ये कृतनीडो वनस्पतौ ।
कपोत्या भार्यया सार्धमुवास कतिचित समाः ।। 53
राजन ! किसी जंगल में एक कबूतर रहता था , उसने एक पेड़ पर अपना घोंसला बना रखा था । अपनी मादा कबूतरी के साथ वह कई वर्षों तक उसी घोंसले में रहा ।। 53
कपोतौ स्नेह गुणित हृदयौ गृह धर्मिणौ ।
दृष्टिं दृष्ट्यांगमंगेन बुद्धिं बुद्ध्या बबंधतुः ।। 54
उस कबूतर के जोड़े के ह्रदय में निरंतर एक – दूसरे के प्रति स्नेह की वृद्धि होती जाती थी । वे गृहस्थ धर्म में इतने आसक्त हो गए थे कि उन्होंने एक-दूसरे की दृष्टि से दृष्टि , अंग से अंग और बुद्धि से बुद्धि को बाँध रखा था ।। 54
शय्यासनाटनस्थानवार्ताक्रीडाशनादिकम ।
मिथुनीभूय विस्त्रब्धौ चेरतुर्वनराजिषु ।। 55
उनका एक दूसरे पर इतना विश्वास हो गया था कि वे निःशंक हो कर वहाँ की वृक्षावली में एक साथ सोते , बैठते , घूमते – फिरते , ठहरते , बातचीत करते , खेलते और खाते – पीते थे ।। 55
यं यं वाञ्छति सा राजंस्तर्पयन्त्यनुकम्पिता ।
तं तं समनयत कामं कृच्छ्रेणाप्यजितेन्द्रियः । 56
राजन ! कबूतरी पर कबूतर का इतना प्रेम था कि वह जो कुछ चाहती कबूतर बड़े से बड़ा कष्ट उठा कर उसकी कामना पूर्ण करता ; वह कबूतरी भी अपने कामुक पति की कामनाएं पूर्ण करती ।। 56
कपोती प्रथमं गर्भं गृह्णति काल आगते ।
अण्डानी सुषुवे नीडे स्वपत्युः सन्निधौ सती।। 57
समय आने पर कबूतरी को पहला गर्भ ठहरा । उसने अपने पति के पास ही घोंसले में अंडे दिए ।। 57
तेषु काले व्यजायंत रचितावयवा हरेः ।
शक्तिभिर्दुर्विभाव्याभिः कोमलांगतनूरुह्यः।। 58
भगवान् की अचिन्त्य शक्ति से समय आने पर वे अंडे फूट गए और उनमें से हाथ – पैर वाले बच्चे निकल आये । उनका एक-एक अंग और रोएं अत्यंत कोमल थे ।। 58
प्रजाः पुपुषतुः प्रीतौ दंपती पुत्रवत्सलौ ।
शृण्वन्तौ कूजितं तासां निर्वृत्तौ कलभाषितैः ।। 59
अब उन कबूतर – कबूतरी की आँखें अपने बच्चों पर लग गयीं , वे बड़े प्रेम और आनंद से अपने बच्चों का लालन – पालन , लाड – प्यार करते और उनकी मीठी बोली , उनकी गुंटूर – गूँ सुन-सुन कर आनंद मग्न हो जाते ।। 59
तासां पतत्त्रैः सुस्पर्शैः कूजितैर्मुग्धचेष्टितैः ।
प्रत्युदगमैर दीनानाम पितरौ मुदमापतुः।। 60
बच्चे तो सदा – सर्वदा प्रसन्न रहते ही हैं ; वे जब अपने सुकुमार पंखों से माँ – बाप का स्पर्श करते , कूजते , भोली – भाली चेष्टाएं करते और फुदक – फुदक कर अपने माँ – बाप के पास दौड़ कर आते और तब कबूतर – कबूतरी आनंदमग्न हो जाते ।। 60
स्नेहानुबद्धहृदयावन्योन्यं विष्णु मायया।
विमोहितौ दीनधियौ शिशून पुपूषतः प्रजाः ।। 61
राजन ! सच पूछो तो वे कबूतर – कबूतरी भगवान् की माया से मोहित हो रहे थे। उनका ह्रदय एक – दूसरे के स्नेह बंधन से बंध रहा था । वे अपने नन्हें – नन्हें बच्चों के पालन – पोषण में इतने व्यग्र रहते कि उन्हें दीन – दुनिया , लोक – परलोक की याद ही न आती ।। 61
एकदर जगमतुस्तासा मन्नार्थम तौ कुटुंबिनौ ।
परितः कानने तस्मिन्नर्थिनौ चेरतुश्चिरम ।। 62
एक दिन दोनों नर – मादा अपने बच्चों के लिए चारा लाने जंगल में गए थे क्योंकि अब उनका कुटुंब बहुत बढ़ गया था ।। वे चारे के लिए चिरकाल तक जंगल में चारों ओर विचरते रहे ।। 62
दृष्ट्वा तांल्ललुब्धकः कश्चिद् यदृच्छातो वनेचरः ।
जगृहे जाल मातत्य चरतः स्वाल यान्तिके ।। 63
इधर एक बहेलिया घूमता – घूमता संयोगवश उनके घोंसले की ओर आ निकला । उसने देखा कि घोंसले के आस – पास कबूतर के बच्चे फुदक रहे हैं ; उसने जाल फैला कर उन्हें पकड़ लिया ।। 63
कपोतश्च कपोती च प्रजापोषे सदोत्सुकौ।
गतौ पोषणमादाय स्वनीडमुप जग्मतुः ।। 64
कबूतर – कबूतरी बच्चों को ख़िलाने पिलाने के लिए हर समय उत्सुक रहा करते थे । अब वे चारा लेकर अपने बच्चों के पास आये ।। 64
कपोती स्वात्मजान वीक्ष्य बालकान जालसंवृतान।
तानाभ्यधावत क्रोशन्ती क्रोशतो भृशदुःखिता ।। 65
कबूतरी ने देखा कि उसके नन्हें – नन्हें बच्चे , उसके ह्रदय के टुकड़े जाल में फंसे हुए हैं और दुःख से चें- चें कर रहे हैं । उन्हें ऐसी स्थिति में देख कर कबूतरी के दुःख की सीमा न रही । वह रोती – चिल्लाती उनके पास दौड़ी चली गयी । 65
सासकृत्स्नेहगुणिता दीनचित्ताजमायया।
स्वयं चाबध्यत शिचा बद्धान पश्यंत्यपस्मृतिः।। 66
भगवान् की माया से उसका चित्त अत्यंत दीन – दुःखी हो रहा था। वह उमड़ते हुए स्नेह की रस्सी से जकड़ी हुयी थी ; अपने बच्चों को जाल में फंसा देख कर उसे अपने शरीर की भी सुध – बुध न रही । और वह स्वयं ही जाकर जाल में फंस गयी ।। 66
कपोतश्चात्मजान बद्धानात्मनोऽप्याधिकानप्रियान।
भार्यां चात्मसमां दीनो विललापातिदुःखिताः ।। 67
जब कबूतर ने देखा कि मेरे प्राणों से भी प्यारे बच्चे जाल में फंस गए हैं और मेरी प्राण प्रिय पत्नी भी उसी दशा में पहुँच गयी , तब वह अत्यंत दुःखित हो कर विलाप करने लगा । सचमुच उस समय उसकी दशा अत्यंत दयनीय थी ।। 67
अहो मे पश्यतापायमल्पपुण्यस्य दुर्मतेः।
अतृप्तस्याकृतार्थस्य गृहस्त्रैवर्गिको हतः ।। 68
मैं अभागा हूँ , दुर्मति हूँ । हाय ! हाय ! मेरा तो सत्यानाश हो गया । देखो , देखो , न मुझे अभी तृप्ति हुयी, न मेरी आशाएं पूरी हुईं । तब तक मेरा धर्म , अर्थ और काम का मूल यह गृहस्थ आश्रम ही नष्ट हो गया ।।। 68
अनुरूपानुकूला च यस्य मे पतिदेवता ।
शून्ये गृहे मां सन्त्यज्य पुत्रैः स्वर्याति साधुभिः ।। 69
हाय ! मेरी प्राण प्यारी मुझे ही अपना इष्टदेव समझती थी ; मेरी एक – एक बात मानती थी , मेरे इशारे पर नाचती थी , सब तरह से मेरे योग्य थी । आज वह मुझे सूने घर में छोड़ कर हमारे सीधे – सादे निश्छल बच्चों के साथ स्वर्ग सिधार रही है ।। 69
सोऽहं शून्ये गृहे दीनो मृतदारो मृतप्रजः।
जिजीविषे किमर्थं वा विधुरो दुःखजीवितः ।। 70
मेरे बच्चे मर गए । मेरी पत्नी जाती रही । मेरा अब संसार में क्या काम है ? मुझ दीन का यह विधुर जीवन – बिना गृहणी का जीवन , जलन का और व्यर्थ का जीवन है । अब मैं इस सूने घर में किसके लिए जिऊँ ?
तांस्तथैवावृतान्छिग्भिर्मृत्यु ग्रस्तान विचेष्टतः।
स्वयं च कृपणः शिक्षु पश्यन्नप्य बुधो ऽपतत ।। 71
राजन ! कबूतर के बच्चे जाल में फंस कर तड़फड़ा रहे थे , स्पष्ट दिख रहा था कि वे मौत के पंजे में हैं , परन्तु वह मूर्ख कबूतर यह सब देखते हुए भी इतना दीन हो रहा था कि स्वयं जान – बूझ कर जाल में कूद पड़ा ।। 70
तं लब्ध्वा लुब्धकः क्रूरः कपोतं गृहमेधिनम।
कपोतकान कपोतीं च सिद्धार्थः प्रययौ ग्रहम।। 72
राजन ! वह बहेलिया बड़ा क्रूर था । गृहस्थाश्रमी कबूतर – कबूतरी और उनके बच्चों के मिल जाने से उसे बड़ी प्रस्सनता हुयी ; उसने समझा मेरा काम बन गया और वह उन्हें ले कर चलता बना । 72
एवं कुटुम्ब्यशान्तात्मा द्वन्द्वारामः पतत्त्रिवत।
पुष्णन कुटुम्बम कृपणः साधु बंधो अवसीदति।। 73
जो कुटुम्बी हैं , विषयों और लोगों के संग – साथ में ही जिसे सुख मिलता है एवं अपने कुटुंब के भरण – पोषण में ही जो सारी सुध – बुध खो बैठता है , उसे कभी शांति नहीं मिल सकती । वह उसी कबूतर के समान अपने कुटुंब के साथ कष्ट पाता है ।। 73
यः प्राप्य मानुषं लोकं मुक्तिद्वारंपावृतं।
गृहेषु खगवत सक्तस्तमारूढ़च्युतं विदुः ।। 74
यह मनुष्य शरीर मुक्ति का खुला हुआ द्वार है । इसे पाकर भी जो कबूतर की तरह अपनी घर – गृहस्थी में ही फंसा हुआ है , वह बहुत ऊंचे तक चढ़ कर गिर रहा है । शास्त्र की भाषा में वह ‘ आरूढच्युत ‘ है ।। 74
इति श्रीमदभागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे सप्तमो अध्यायः