अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग
12-19 दोनों सेनाओं की शंख-ध्वनि का वर्णन
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्ख दध्मौ प्रतापवान् ॥1.12॥
तस्य-उसका; सन्जनयन्-हेतु; हर्षम्-हर्ष; कुरूवृद्धः-कुरूवंश के वयोवद्ध (भीष्म); पितामहः-पितामह (दादा) ; सिंहनादम्-सिंह के समान गर्जना; विनद्य-गर्जना; उच्चैः-उच्च स्वर से; शङ्ख-शंख; दध्मौ–बजाया; प्रतापवान्–यशस्वी योद्धा।
कुरूवंश के वयोवृद्ध परम यशस्वी महायोद्धा एवं वृद्ध भीष्म पितामह ने सिंह-गर्जना जैसी ध्वनि करने वाले अपने शंख को उच्च स्वर से बजाया जिसे सुनकर दुर्योधन हर्षित हुआ।। 1.12 ।।
तस्य संजनयन् हर्षम् यद्यपि दुर्योधनके हृदयमें हर्ष होना शंखध्वनिका कार्य है और शंखध्वनि कारण है इसलिये यहाँ शंखध्वनिका वर्णन पहले और हर्ष होनेका वर्णन पीछे होना चाहिये अर्थात् यहाँ शंख बजाते हुए दुर्योधनको हर्षित किया ऐसा कहा जाना चाहिये। परन्तु यहाँ ऐसा न कहकर यही कहा है कि दुर्योधनको हर्षित करते हुये भीष्मजी ने शंख बजाया। कारण कि ऐसा कहकर सञ्जय यह भाव प्रकट कर रहे हैं कि पितामह भीष्म की शंखवादन क्रियामात्र से दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न हो ही जायगा। भीष्मजीके इस प्रभावको द्योतन करनेके लिये ही सञ्जय आगे प्रतापवान् विशेषण देते हैं। ‘कुरुवृद्धः’- यद्यपि कुरुवंशियों में आयु की दृष्टि से भीष्मजी से भी अधिक वृद्ध बाह्लीक थे (जो कि भीष्मजी के पिता शान्तनु के छोटे भाई थे ) तथापि कुरुवंशियों में जितने बड़े-बूढ़े थे उन सबमें भीष्मजी धर्म और ईश्वर को विशेषता से जानने वाले थे। अतः ज्ञानवृद्ध होने के कारण सञ्जय भीष्मजी के लिये ‘कुरुवृद्धः’ विशेषण देते हैं। ‘प्रतापवान्’ भीष्मजी के त्याग का बड़ा प्रभाव था। वे कनक-कामिनी के त्यागी थे अर्थात् उन्होंने राज्य भी स्वीकार नहीं किया और विवाह भी नहीं किया। भीष्मजी अस्त्र-शस्त्र को चलाने में बड़े निपुण थे और शास्त्र के भी बड़े जानकार थे। उनके इन दोनों गुणों का भी लोगों पर बड़ा प्रभाव था। जब अकेले भीष्म अपने भाई विचित्रवीर्य के लिये काशिराज की कन्याओं को स्वयंवर से हरकर ला रहे थे तब वहाँ स्वयंवर के लिये इकट्ठे हुए सब क्षत्रिय उन पर टूट पड़े परन्तु अकेले भीष्मजी ने उन सबको हरा दिया। जिनसे भीष्म अस्त्र-शस्त्र की विद्या पढ़े थे उन गुरु परशुरामजी के सामने भी उन्होंने अपनी हार स्वीकार नहीं की। इस प्रकार शस्त्र के विषय में उनका क्षत्रियों पर बड़ा प्रभाव था। जब भीष्म शर-शय्या पर सोये थे तब भगवान श्रीकृष्ण ने धर्मराज से कहा कि आपको धर्म के विषय में कोई शंका हो तो भीष्मजी से पूछ लें क्योंकि शास्त्रज्ञान का सूर्य अस्ताचल को जा रहा है अर्थात् भीष्मजी इस लोक से जा रहे हैं (टिप्पणी प0 11) । इस प्रकार शास्त्र के विषयमें उनका दूसरों पर बड़ा प्रभाव था। ‘पितामहः’ इस पदका आशय यह मालूम देता है कि दुर्योधन के द्वारा चालाकी से कही गयी बातों का द्रोणाचार्य ने कोई उत्तर नहीं दिया। उन्होंने यही समझा कि दुर्योधन चालाकी से मेरे को ठगना चाहता है । इसलिये वे चुप ही रहे परन्तु पितामह (दादा) होने के नाते भीष्मजी को दुर्योधन की चालाकी में उसका बचपना दिखता है। अतः पितामह भीष्म द्रोणाचार्य के समान चुप न रहकर वात्सल्य भाव के कारण दुर्योधन को हर्षित करते हुए शंख बजाते हैं। ‘सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ’ – जैसे सिंह के गर्जना करने पर हाथी आदि बड़े-बड़े पशु भी भयभीत हो जाते हैं । ऐसे ही गर्जना करने मात्र से सभी भयभीत हो जायँ और दुर्योधन प्रसन्न हो जाय । इसी भाव से भीष्मजी ने सिंह के समान गरजकर जोर से शंख बजाया। पितामह भीष्म के द्वारा शंख बजाने का परिणाम क्या हुआ ? इसको सञ्जय आगे के श्लोक में कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी