अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग
20-27 अर्जुन का सैन्य परिक्षण, गाण्डीव की विशेषता
यावदेतानिरीक्षेऽहं योद्धकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥1.22॥
यावत्-जब तक; एतान्–इन सब; निरीक्षे–देखना; अहम्-मैं; योद्धकामान्–युद्ध के लिए; अवस्थितान्–व्यूह रचना में एकत्र; के:-किन-किन के साथ; मया-मुझे ; सह-साथ; योद्धव्यम्-युद्ध करना; अस्मिन्-इसमें, रणसमुद्यमे-घोर युद्ध में।
अर्जुन ने कहा! हे अच्युत! मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच खड़ा करने की कृपा करें ताकि मैं यहाँ एकत्रित युद्ध करने की इच्छा रखने वाले योद्धाओं जिनके साथ मुझे इस महासंग्राम में युद्ध करना है, को देख सकूं।। 1.22 ।।
अच्युत सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय – दोनों सेनाएँ जहाँ युद्ध करने के लिये एक-दूसरे के सामने खड़ी थीं वहाँ उन दोनों सेनाओं में इतनी दूरी थी कि एक सेना दूसरी सेना पर बाण आदि मार सके। उन दोनों सेनाओं का मध्यभाग दो तरफ से मध्य था (1) सेनाएँ जितनी चौड़ी खड़ी थीं उस चौड़ाई का मध्यभाग और (2) दोनों सेनाओं का मध्यभाग जहाँ से कौरवसेना जितनी दूरी पर खड़ी थी उतनी ही दूरी पर पाण्डवसेना खड़ी थी। ऐसे मध्यभाग में रथ खड़ा करने के लिये अर्जुन भगवान से कहते हैं जिससे दोनों सेनाओं को आसानी से देखा जा सके। ‘सेनयोरुभयोर्मध्ये’ पद गीता में तीन बार आया है यहाँ (1। 21 में) इसी अध्याय के 24वें श्लोक में और दूसरे अध्याय के 10वें श्लोक में तीन बार आने का तात्पर्य है कि पहले अर्जुन शूरवीरता के साथ अपने रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा करने की आज्ञा देते हैं (1। 21) फिर भगवान दोनों सेनाओं के बीच में रथ को खड़ा करके कुरुवंशियों को देखने के लिये कहते हैं (1। 24) और अन्त में दोनों सेनाओं के बीच में ही विषादमग्न अर्जुन को गीता का उपदेश देते हैं (2। 10)। इस प्रकार पहले अर्जुन में शूरवीरता थी , बीच में कुटुम्बियों को देखने से मोह के कारण उनकी युद्ध से उपरति हो गयी और अन्त में उनको भगवान से गीता का महान उपदेश प्राप्त हुआ जिससे उनका मोह दूर हो गया। इससे यह भाव निकलता है कि मनुष्य जहाँ कहीं और जिस किसी परिस्थिति में स्थित है वहीं रहकर वह प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग करके निष्काम हो सकता है और वहीं उसको परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। कारण कि परमात्मा सम्पूर्ण परिस्थितियों में सदा एकरूप से रहते हैं। यावदेतान्निरीक्षेऽहं ৷৷. रणसमुद्यमे – दोनों सेनाओं के बीच में रथ कब तक खड़ा करें ? इस पर अर्जुन कहते हैं कि युद्ध की इच्छा को लेकर कौरवसेना में आये हुए सेनासहित जितने भी राजालोग खड़े हैं उन सबको जब तक मैं देख न लूँ तब तक आप रथ को वहीं खड़ा रखिये। इस युद्ध के उद्योग में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना है ? उनमें कौन मेरे समान बलवाले हैं ? कौन मेरे से कम बलवाले हैं ? और कौन मेरे से अधिक बलवाले हैं ? उन सबको मैं जरा देख लूँ। यहाँ ‘योद्धुकामान्’ पद से अर्जुन कह रहे हैं कि हमने तो सन्धि की बात ही सोची थी पर उन्होंने सन्धि की बात स्वीकार नहीं की क्योंकि उनके मन में युद्ध करने की ज्यादा इच्छा है। अतः उनको मैं देखूँ कि कितने बल को लेकर वे युद्ध करने की इच्छा रखते हैं – स्वामी रामसुखदास जी