भगवद गीता अध्याय 1 " अर्जुन विषाद योग "

 

 

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अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग 

12-19 दोनों सेनाओं की शंख-ध्वनि का वर्णन

 

Bhagavad Gita Chapter 1

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।

नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलोऽभ्यनुनादयन् ॥1.19॥

 

सः-उस; घोषः-शब्द ध्वनि; धार्तराष्ट्राणाम् -धृतराष्ट्र के पुत्रों के; हृदयानि- हृदयों को; व्यदारयत्-विदीर्ण कर दिया; नभ:-आकाश; च-भी; पृथिवीम्-पृथ्वी को; च-भी; एव-निश्चय ही; तुमुल:-कोलाहलपूर्ण ध्वनि; व्यनुनादयन्–गर्जना करना।

 

हे धृतराष्ट्र! इन शंखों से उत्पन्न ध्वनि द्वारा आकाश और धरती के बीच हुई गर्जना ने आपके पुत्रों के हृदयों को विदीर्ण कर दिया।। 1.19 ।।

 

‘स घोषो धार्तराष्ट्राणां ৷৷. तुमुलो व्यनुनादयन् ‘ – पाण्डवसेना की वह शंखध्वनि इतनी विशाल गहरी ऊँची और भयंकर हुई कि उस (ध्वनि-प्रतिध्वनि ) से पृथ्वी और आकाश के बीच का भाग गूँज उठा। उस शब्द से अन्यायपूर्वक राज्य को हड़पने वालों के और उनकी सहायता के लिये (उनके पक्ष में) खड़े हुए राजाओं के हृदय विदीर्ण हो गये। तात्पर्य है कि हृदय को किसी अस्त्र-शस्त्र से विदीर्ण करने से जैसी पीड़ा होती है वैसी ही पीड़ा उनके हृदय में शंख-ध्वनि से हो गयी। उस शंखध्वनि ने कौरवसेना के हृदय में युद्ध का जो उत्साह था , बल था उसको कमजोर बना दिया जिससे उनके हृदय में पाण्डवसेना का भय उत्पन्न हो गया। सञ्जय ये बातें धृतराष्ट्र को सुना रहे हैं। धृतराष्ट्र के सामने ही सञ्जयका धृतराष्ट्र के पुत्रों अथवा सम्बन्धियों के हृदय विदीर्ण कर दिये – ऐसा कहना सभ्यतापूर्ण और युक्तिसंगत नहीं मालूम देता। इसलिये सञ्जय को ‘धार्तराष्ट्राणाम्’ न कहकर ‘तावकीनानाम्’ (आपके पुत्रों अथवा सम्बन्धियों के ऐसा ) कहना चाहिये था क्योंकि ऐसा कहना ही सभ्यता है। इस दृष्टि से यहाँ ‘धार्तराष्ट्राणाम्’ पद का अर्थ जिन्होंने अन्यायपूर्वक राज्य को धारण किया  (टिप्पणी प0 15.1) – ऐसा लेना ही युक्तिसंगत तथा सभ्यतापूर्ण मालूम देता है। अन्याय का पक्ष लेने से ही उनके हृदय विदीर्ण हो गये । इस दृष्टि से भी यह अर्थ लेना ही युक्तिसंगत मालूम देता है। यहाँ शङ्का होती है कि कौरवों की ग्यारह अक्षौहिणी  (टिप्पणी प0 15.2) सेना के शंख आदि बजे तो उनके शब्द का पाण्डवसेना पर कुछ भी असर नहीं हुआ पर पाण्डवों की सात अक्षौहिणी सेना के शंख बजे तो उनके शब्द से कौरवसेना के हृदय विदीर्ण क्यों हो गये ? इसका समाधान यह है कि जिनके हृदय में अधर्म , पाप , अन्याय नहीं है अर्थात् जो धर्मपूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करते हैं , उनका हृदय मजबूत होता है , उनके हृदयमें भय नहीं होता। न्याय का पक्ष होने से उनमें उत्साह होता है , शूरवीरता होती है। पांडवों ने वनवास के पहले भी न्याय और धर्मपूर्वक राज्य किया था और वनवास के बाद भी नियम के अनुसार कौरवों से न्यायपूर्वक राज्य माँगा था। अतः उनके हृदय में भय नहीं था बल्कि उत्साह था , शूरवीरता थी। तात्पर्य है कि पाण्डवों का पक्ष धर्म का था। इस कारण कौरवों की ग्यारह अक्षौहिणी सेना के बाजों के शब्द का पाण्डवसेना पर कोई असर नहीं हुआ परन्तु जो अधर्म , पाप , अन्याय आदि करते हैं उनके हृदय स्वाभाविक ही कमजोर होते हैं। उनके हृदय में निर्भयता , निःशङ्कता नहीं रहती। उन का खुद का किया पाप , अन्याय ही उनके हृदय को निर्बल बना देता है। अधर्म अधर्मी को खा जाता है। दुर्योधन आदि ने पाण्डवों को अन्यायपूर्वक मारने का बहुत प्रयास किया था। उन्होंने छल-कपट से अन्यायपूर्वक पाण्डवों का राज्य छीना था और उनको बहुत कष्ट दिये थे। इस कारण उनके हृदय कमजोर निर्बल हो चुके थे। तात्पर्य है कि कौरवों का पक्ष अधर्म का था। इसलिये पाण्डवों की सात अक्षौहिणी सेना की शंखध्वनि से उनके हृदय विदीर्ण हो गये । उनमें बड़े जोर की पीड़ा हो गयी। इस प्रसंग से साधक को सावधान हो जाना चाहिये कि उसके द्वारा अपने शरीर , वाणी , मन से कभी भी कोई अन्याय और अधर्म का आचरण न हो। अन्याय और अधर्मयुक्त आचरण से मनुष्य का हृदय कमजोर , निर्बल हो जाता है। उसके हृदय में भय पैदा हो जाता है। उदाहरणार्थ लंकाधिपति रावण से त्रिलोकी डरती थी। वही रावण जब सीताजी का हरण करने जाता है तब भयभीत होकर इधर-उधर देखता है  (टिप्पणी प0 16) । इसलिये साधक को चाहिये कि वह अन्याय , अधर्मयुक्त आचरण कभी न करे। धृतराष्ट्र ने पहले श्लोक में अपने और पाण्डु के पुत्रों के विषय में प्रश्न किया था। उसका उत्तर सञ्जय ने दूसरे श्लोक से 19वें श्लोक तक दे दिया। अब सञ्जय भगवद्गीता के प्राकट्य का प्रसङ्ग आगे के श्लोक से आरम्भ करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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