अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग
28-47 अर्जुनका विषाद,भगवान के नामों की व्याख्या
एतान्न हन्तुमिच्छामि नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥1.35॥
एतान्–ये सब; न-नहीं; हन्तुम् -वध करना; इच्छामि- मैं चाहता हूँ; घ्रतः-वध करने पर; अपि-भी; मधुसूदन– मधु नामक असुर का वध करने वाले, श्रीकृष्ण; अपि-तो भी; त्रै-लोक्य- राज्यस्य-तीनों लोकों का राज्य; हेतो:-के लिए; किम नु—क्या कहा जाए; मही-कृते—पृथ्वी के लिए;
हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है?॥35॥
एतान्न हन्तुमिच्छामि नतोऽपि मधुसूदन- इनको मारने से अगर हमें त्रिलोकी का राज्य भी मिल जाय तो भी क्या इनको मारना उचित है ? इनको मारना तो सर्वथा अनुचित है। पूर्वश्लोक में अर्जुन ने स्वजनों को न मारने में दो कारण बताये। अब परिणाम की दृष्टि से भी स्वजनों को न मारना सिद्ध करते हैं । अगर हमारे ये कुटुम्बीजन अपनी अनिष्ट-निवृत्ति के लिये क्रोध में आकर मेरे पर प्रहार करके मेरा वध भी करना चाहें तो भी मैं अपनी अनिष्ट-निवृत्ति के लिये क्रोध में आकर इनको मारना नहीं चाहता। अगर ये अपनी इष्टप्राप्ति के लिये राज्य के लोभ में आकर मेरे को मारना चाहें तो भी मैं अपनी इष्ट-प्राप्ति के लिये लोभ में आकर इनको मारना नहीं चाहता। तात्पर्य यह हुआ कि क्रोध और लोभ में आकर मेरे को नरकों का दरवाजा मोल नहीं लेना है। ये मेरे शरीर का नाश करने में प्रवृत्त हो जायँ तो भी मैं इनको मारना नहीं चाहता। दूसरी बात इनको मारने से मुझे त्रिलोकी का राज्य मिल जाय यह तो सम्भावना ही नहीं है पर मान लो कि इनको मारने से मुझे त्रिलोकी का राज्य मिलता हो तो भी (अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः) मैं इनको मारना नहीं चाहता। ‘मधूसूदन’ (टिप्पणी प0 24.2) सम्बोधन का तात्पर्य है कि आप तो दैत्यों को मारने वाले हैं पर ये द्रोण आदि आचार्य और भीष्म आदि पितामह दैत्य थोड़े ही हैं जिससे मैं इनको मारने की इच्छा करूँ । ये तो हमारे अत्यन्त नजदीक के खास सम्बन्धी हैं। – स्वामी रामसुखदास जी