अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग
20-27 अर्जुन का सैन्य परिक्षण, गाण्डीव की विशेषता
सञ्जय उवाच।
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्॥1.24॥
संजयः उवाच—-संजय ने कहा; एवम्-इस प्रकार; उक्त:-व्यक्त किए गये; हृषीकेशः-इन्द्रियों के स्वामी, श्रीकृष्ण ने; गुडाकेशेन–निद्रा को वश में करने वाला, अर्जुन; भारत-भरत वंशी; सेनयोः-सेनाओं के; उभयोः-दोनों; मध्ये-मध्य में; स्थापयित्वा –स्थित करना; रथ-उत्तमम् भव्य रथ को।
संजय ने कहा-हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! निद्रा पर विजय पाने वाले अर्जुन द्वारा इस प्रकार के वचन बोले जाने पर तब भगवान श्रीकृष्ण ने उस भव्य रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ले जाकर खड़ा कर दिया।। 1.24 ।।
‘गुडाकेशेन गुडाकेश ‘ – शब्द के दो अर्थ होते हैं (1) ‘गुडा ‘ नाम मुड़े हुए का है और केश नाम बालों का है। जिसके सिर के बाल मुड़े हुए अर्थात् घुँघराले हैं उसका नाम गुडाकेश है। (2) ‘गुडा’ का नाम निद्रा का है और ‘ईश’ नाम स्वामी का है। जो निद्रा का स्वामी है अर्थात् निद्रा ले चाहे न ले – ऐसा जिसका निद्रा पर अधिकार है उसका नाम गुडाकेश है। अर्जुन के केश घुँघराले थे और उनका निद्रा पर आधिपत्य था । अतः उनको गुडाकेश कहा गया है। ‘एवमुक्तः ‘ जो निद्रा-आलस्य के सुख का गुलाम नहीं होता और जो विषय भोगों का दास नहीं होता केवल भगवान का ही दास (भक्त) होता है उस भक्त की बात भगवान सुनते हैं । केवल सुनते ही नहीं उसकी आज्ञा का पालन भी करते हैं। इसलिये अपने सखा भक्त अर्जुन के द्वारा आज्ञा देने पर अन्तर्यामी भगवान श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में अर्जुन का रथ खड़ा कर दिया। ‘हृषीकेशः’ इन्द्रियों का नाम ‘हृषीक’ है। जो इन्द्रियों के ईश अर्थात् स्वामी हैं उनको ‘हृषीकेश’ कहते हैं। पहले 21वें श्लोक में और यहाँ ‘हृषीकेश’ कहने का तात्पर्य है कि जो मन – बुद्धि – इन्द्रियाँ आदि सबके प्रेरक हैं , सबको आज्ञा देने वाले हैं – वे ही अन्तर्यामी भगवान यहाँ अर्जुन की आज्ञा का पालन करने वाले बन गये हैं । यह उनकी अर्जुन पर कितनी अधिक कृपा है। ‘सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्’ – दोनों सेनाओं के बीच में जहाँ खाली जगह थी वहाँ भगवान ने अर्जुन के श्रेष्ठ रथ को खड़ा कर दिया। ‘भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्’ – उस रथ को भी भगवान ने विलक्षण चतुराई से ऐसी जगह खड़ा किया जहाँ से अर्जुन को कौटुम्बिक सम्बन्ध वाले पितामह भीष्म विद्या के सम्बन्ध वाले आचार्य द्रोण एवं कौरव सेना के मुख्य-मुख्य राजा लोग सामने दिखायी दे सकें। ‘उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति कुरु’ पद में धृतराष्ट्र के पुत्र और पाण्डु के पुत्र ये दोनों आ जाते हैं क्योंकि ये दोनों ही कुरुवंशी हैं। युद्ध के लिये एकत्र हुए इन कुरुवंशियों को देख । ऐसा कहने का तात्पर्य है कि इन कुरुवंशियों को देखकर अर्जुन के भीतर यह भाव पैदा हो जाय कि हम सब एक ही तो हैं । इस पक्ष के हों चाहे उस पक्ष के हों ,भले हों चाहे बुरे हों , सदाचारी हों चाहे दुराचारी हों पर हैं सब अपने ही कुटुम्बी। इस कारण अर्जुन में छिपा हुआ कौटुम्बिक ममतायुक्त मोह जाग्रत हो जाय और मोह जाग्रत होने से अर्जुन जिज्ञासु बन जाय जिससे अर्जुन को निमित्त बनाकर भावी कलियुगी जीवों के कल्याण के लिये गीता का महान उपदेश किया जा सके । इसी भाव से भगवान ने यहाँ ‘पश्यैतान् समवेतान् कुरुन्’ कहा है। नहीं तो भगवान ‘पश्यैतान् धार्तराष्ट्रान् समानिति ‘ ऐसा भी कर सकते थे परन्तु ऐसा कहने से अर्जुन के भीतर युद्ध करने का जोश आता जिससे गीता के प्राकट्य का अवसर ही नहीं आता और अर्जुन के भीतर का प्रसुप्त कौटुम्बिक मोह भी दूर नहीं होता जिसको दूर करना भगवान अपनी जिम्मेवारी मानते हैं। जैसे कोई फोड़ा हो जाता है तो वैद्यलोग पहले उसको पकाने की चेष्टा करते हैं और जब वह पक जाता है तब उसको चीरा देकर साफ कर देते हैं । ऐसे ही भगवान भक्त के भीतर छिपे हुए मोह को पहले जाग्रत करके फिर उसको मिटाते हैं। यहाँ भी भगवान अर्जुन के भीतर छिपे हुए मोह को ‘कुरुन पश्य’ कहकर जाग्रत कर रहे हैं जिसको आगे उपदेश देकर नष्ट कर देंगे। अर्जुनने कहा था कि इनको मैं देख लूँ – निरीक्षे (1। 22) अवेक्षे (1। 23) अतः यहाँ भगवान को पश्य (तू देख ले) – ऐसा कहने की जरूरत ही नहीं थी। भगवान को तो केवल रथ खड़ा कर देना चाहिये था। परन्तु भगवान ने रथ खड़ा करके अर्जुन के मोह को जाग्रत करनेके लिये ही ‘कुरुन् पश्य’ (इन कुरुवंशियों को देख) ऐसा कहा है।कौटुम्बिक स्नेह और भगवत्प्रेम इन दोनों में बहुत अन्तर है। कुटुम्ब में ममतायुक्त स्नेह हो जाता है तो कुटुम्ब के अवगुणों की तरफ खयाल जाता ही नहीं किन्तु ये मेरे हैं – ऐसा भाव रहता है। ऐसे ही भगवान का भक्त में विशेष स्नेह हो जाता है तो भक्त के अवगुणों की तरफ भगवान का खयाल जाता ही नहीं किन्तु यह मेरा ही है – ऐसा ही भाव रहता है। कौटुम्बिक स्नेह में क्रिया तथा पदार्थ (शरीरादि) की और भगवत्प्रेम में भाव की मुख्यता रहती है। कौटुम्बिक स्नेह में मूढ़ता (मोह) की और भगवत्प्रेम में आत्मीयता की मुख्यता रहती है। कौटुम्बिक स्नेह में अँधेरा और भगवत्प्रेम में प्रकाश रहता है। कौटुम्बिक स्नेह में मनुष्य कर्तव्यच्युत हो जाता है और भगवत्प्रेम में तल्लीनता के कारण कर्तव्यपालन में विस्मृति तो हो सकती है पर भक्त कभी कर्तव्यच्युत नहीं होता। कौटुम्बिक स्नेह में कुटुम्बियों की और भगवत्प्रेम में भगवान की प्रधानता होती है। पूर्वश्लोक में भगवान ने अर्जुन से कुरूवंशियों को देखने के लिये कहा। उसके बाद क्या हुया इसका वर्णन सञ्जय आगे के श्लोकों में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी