भगवद गीता अध्याय 1 " अर्जुन विषाद योग "

 

 

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अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग 

28-47 अर्जुनका विषाद,भगवान के नामों की व्याख्या

 

 

Arjun Vishad Yog

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।

मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ॥1.34।।

 

आचार्याः-शिक्षक; पितरः-पितृगणः पुत्रा-पुत्र; तथा -उसी प्रकार; एव-वास्तव में; च-भी; पितामहाः-पितामह; मातुला:-मामा; श्वशुरा:-श्वसुर; पौत्रा:-पौत्र; श्याला:-साले; सम्बन्धिनः-वंशजी; तथा – उसी प्रकार से 

 

गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी संबंधी लोग हैं ॥1.34॥

 

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः –भगवान आगे 16वें अध्याय के 21वें श्लोक में कहेंगे कि काम , क्रोध और लोभ ये तीनों ही नरक के द्वार हैं। वास्तव में एक काम के ही ये तीन रूप हैं। ये तीनों सांसारिक वस्तुओं , व्यक्तियों आदि को महत्त्व देने से पैदा होते हैं। काम अर्थात् कामना की दो तरह की क्रियाएँ होती हैं – इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट की निवृत्ति। इनमें से इष्ट की प्राप्ति भी दो तरह की होती है – संग्रह करना और सुख भोगना। संग्रह की इच्छा का नाम लोभ है और सुख-भोग की इच्छा का नाम काम है। अनिष्ट की निवृत्ति में बाधा पड़ने पर क्रोध आता है अर्थात् भोगों की , संग्रह की प्राप्ति में बाधा देने वालों पर अथवा हमारा अनिष्ट करने वालों पर , हमारे शरीर का नाश करने वालों पर क्रोध आता है जिससे अनिष्ट करने वालों का नाश करने की क्रिया होती है। इससे सिद्ध हुआ कि युद्ध में मनुष्य की दो तरह से ही प्रवृत्ति होती है अनिष्ट की निवृत्ति के लिये अर्थात् अपने क्रोध को सफल बनाने के लिये और इष्ट की प्राप्ति के लिये अर्थात् लोभ की पूर्ति के लिये परन्तु अर्जुन यहाँ इन दोनों ही बातों का निषेध कर रहे हैं – आचार्याः पितरः৷৷. किं नु महीकृते । अगर हमारे ये कुटुम्बीजन अपनी अनिष्ट-निवृत्ति के लिये क्रोध में आकर मेरे पर प्रहार करके , मेरा वध भी करना चाहें तो भी मैं अपनी अनिष्ट-निवृत्ति के लिये क्रोध में आकर इनको मारना नहीं चाहता। अगर ये अपनी इष्टप्राप्ति के लिये राज्य के लोभ में आकर मेरे को मारना चाहें तो भी मैं अपनी इष्टप्राप्ति के लिये लोभ में आकर इनको मारना नहीं चाहता। तात्पर्य यह हुआ कि क्रोध और लोभ में आकर मेरे को नरकों का दरवाजा मोल नहीं लेना है। यहाँ दो बार ‘अपि’ पद का प्रयोग करने में अर्जुन का आशय यह है कि मैं इनके स्वार्थ में बाधा ही नहीं देता तो ये मुझे मारेंगे ही क्यों ? पर मान लो कि पहले इसने हमारे स्वार्थ में बाधा दी है । ऐसे विचार से ये मेरे शरीर का नाश करने में प्रवृत्त हो जायँ तो भी (घ्नतोऽपि) मैं इनको मारना नहीं चाहता। दूसरी बात इनको मारने से मुझे त्रिलोकी का राज्य मिल जाय यह तो सम्भावना ही नहीं है पर मान लो कि इनको मारने से मुझे त्रिलोकी का राज्य मिलता हो तो भी  (अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः) मैं इनको मारना नहीं चाहता। मधूसूदन (टिप्पणी प0 24.2)  सम्बोधन का तात्पर्य है कि आप तो दैत्यों को मारने वाले हैं पर ये द्रोण आदि आचार्य और भीष्म आदि पितामह दैत्य थोड़े ही हैं जिससे मैं इनको मारने की इच्छा करूँ । ये तो हमारे अत्यन्त नजदीक के खास सम्बन्धी हैं। ‘आचार्याः’ इन कुटुम्बियों में जिन द्रोणाचार्य आदि से हमारा विद्या का , हित का सम्बन्ध है – ऐसे पूज्य आचार्यों की मेरे को सेवा करनी चाहिये कि उनके साथ लड़ाई करनी चाहिये । आचार्य के चरणों में तो अपने आपको , अपने प्राणों को भी समर्पित कर देना चाहिये। यही हमारे लिये उचित है। ‘पितरः’ – शरीर के सम्बन्ध को लेकर जो पिता लोग हैं उनका ही तो रूप यह हमारा शरीर है। शरीर से उनके स्वरूप होकर हम क्रोध या लोभ में आकर अपने उन पिताओं को कैसे मारें ? ‘पुत्राः’ – हमारे और हमारे भाइयों के जो पुत्र हैं वे तो सर्वथा पालन करने योग्य हैं। वे हमारे विपरीत कोई क्रिया भी कर बैठें तो भी उनका पालन करना ही हमारा धर्म है। ‘पितामहाः’ – ऐसे ही जो पितामह हैं वे जब हमारे पिताजी के भी पूज्य हैं तब हमारे लिये तो परमपूज्य हैं ही। वे हमारी ताड़ना कर सकते हैं , हमें मार भी सकते हैं पर हमारी तो ऐसी ही चेष्टा होनी चाहिये जिससे उनको किसी तरह का दुःख न हो , कष्ट न हो बल्कि उनको सुख हो , आराम हो , उनकी सेवा हो। मातुलाः – हमारे जो मामा लोग हैं वे हमारा पालन-पोषण करने वाली माताओं के ही भाई हैं। अतः वे माताओं के समान ही पूज्य होने चाहिये। ‘श्वशुराः’ – ये जो हमारे ससुर हैं ये मेरी और मेरे भाइयों की पत्नियों के पूज्य पिताजी हैं। अतः ये हमारे लिये भी पिता के ही तुल्य हैं। इनको मैं कैसे मारना चाहूँ ? पौत्राः- हमारे पुत्रों के जो पुत्र हैं वे तो पुत्रों से भी अधिक पालन-पोषण करने योग्य हैं। ‘श्यालाः ‘ – हमारे जो साले हैं वे भी हम लोगों की पत्नियों के प्यारे भैया हैं। उनको भी कैसे मारा जाय ? ‘सम्बन्धिनः’ – ये जितने सम्बन्धी दिख रहे हैं और इनके अतिरिक्त जितने भी सम्बन्धी हैं उनका पालन-पोषण सेवा करनी चाहिये कि उनको मारना चाहिये ? इनको मारने से अगर हमें त्रिलोकी का राज्य भी मिल जाय तो भी क्या इनको मारना उचित है ? इनको मारना तो सर्वथा अनुचित है। पूर्वश्लोक में अर्जुन ने स्वजनों को न मारने में दो कारण बताये। अब परिणाम की दृष्टि से भी स्वजनों को न मारना सिद्ध करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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