अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग
01-11 दोनों सेनाओं के प्रधान शूरवीरों और अन्य महान वीरों का वर्णन
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥1.3॥
पश्य-देखना; एताम्-इस; पाण्डु-पुत्रणाम् पाण्डु पुत्रों की; आचार्य- गुरु; महतीम-विशाल; चमूम्-सेना को; व्यूढां-सुव्यस्थित व्यूह रचना; द्वपद-पुत्रेण द्रुपद पुत्र द्वारा; तव-तुम्हारे; शिष्येण-शिष्य द्वारा; धीमता-बुद्धिमान।
दुर्योधन ने कहाः पूज्य आचार्य! पाण्डु पुत्रों की विशाल सेना का अवलोकन करें, जिसे आपके द्वारा प्रशिक्षित बुद्धिमान शिष्य द्रुपद के पुत्र ने कुशलतापूर्वक युद्ध करने के लिए सुव्यवस्थित किया है।। 1.3।।
आचार्य द्रोण के लिये आचार्य सम्बोधन देने में दुर्योधन का यह भाव मालूम देता है कि आप हम सबके कौरवों और पाण्डवों के आचार्य हैं। शस्त्रविद्या सिखाने वाले होने से आप सबके गुरु हैं। इसलिये आपके मन में किसी का पक्ष या आग्रह नहीं होना चाहिये। ‘तव शिष्येण धीमता’ इन पदों का प्रयोग करने में दुर्योधन का भाव यह है कि आप इतने सरल हैं कि अपने को मारने के लिये पैदा होने वाले धृष्टद्युम्न को भी आपने अस्त्र-शस्त्र की विद्या सिखायी है और वह आपका शिष्य धृष्टद्युम्न इतना बुद्धिमान है कि उसने आपको मारने के लिये आपसे ही अस्त्र-शस्त्र की विद्या सीखी है। ‘द्रुपदपुत्रेण’ यह पद कहने का आशय है कि आपको मारने के उद्देश्य को लेकर ही द्रुपद ने याज और उपयाज नामक ब्राह्मणों से यज्ञ कराया जिससे धृष्टद्युम्न पैदा हुआ। वही यह द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न आपके सामने (प्रतिपक्ष में ) सेनापति के रूप में खड़ा है। यद्यपि दुर्योधन यहाँ द्रुपदपुत्र के स्थान पर धृष्टद्युम्न भी कह सकता था तथापि द्रोणाचार्य के साथ द्रुपद जो वैर रखता था , उस वैरभाव को याद दिलाने के लिये दुर्योधन यहाँ ‘द्रुपदपुत्रेण’ शब्द का प्रयोग करता है कि अब वैर निकालने का अच्छा मौका है। ‘पाण्डुपुत्राणाम् एतां व्यूढां महतीं चमूं पश्य’ द्रुपदपुत्र के द्वारा पाण्डवों की इस व्यूहाकार खड़ी हुई बड़ी भारी सेना को देखिये। तात्पर्य है कि जिन पाण्डवों पर आप स्नेह रखते हैं उन्हीं पाण्डवों ने आपके प्रतिपक्ष में खास आपको मारने वाले द्रुपदपुत्र को सेनापति बनाकर व्यूहरचना करने का अधिकार दिया है। अगर पाण्डव आपसे स्नेह रखते तो कम से कम आपको मारने वाले को तो अपनी सेना का मुख्य सेनापति नहीं बनाते , इतना अधिकार तो नहीं देते परन्तु सब कुछ जानते हुए भी उन्होंने उसी को सेनापति बनाया है। यद्यपि कौरवों की अपेक्षा पाण्डवों की सेना संख्या में कम थी अर्थात् कौरवों की सेना ग्यारह अक्षौहिणी (टिप्पणी प0 5) और पाण्डवों की सेना सात अक्षौहिणी थी तथापि दुर्योधन पाण्डवों की सेना को बड़ी भारी बता रहा है। पाण्डवों की सेना को बड़ी भारी कहने में दो भाव मालूम देते हैं (1) पाण्डवों की सेना ऐसे ढंग से व्यूहाकार खड़ी हुई थी , जिससे दुर्योधन को थोड़ी सेना भी बहुत ब़ड़ी दिख रही थी और (2) पाण्डव सेना में सब के सब योद्धा एक मत के थे। इस एकता के कारण पाण्डवों की थोड़ी सेना भी बल में , उत्साह में बड़ी मालूम दे रही थी। ऐसी सेना को दिखाकर दुर्योधन द्रोणाचार्य से यह कहना चाहता है कि युद्ध करते समय आप इस सेना को सामान्य और छोटी न समझें। आप विशेष बल लगाकर सावधानी से युद्ध करें। पाण्डवों का सेनापति है तो आपका शिष्य द्रुपदपुत्र ही । अतः उस पर विजय करना आपके लिये कौन सी बड़ी बात है ? ‘एतां पश्य’ कहने का तात्पर्य है कि यह पाण्डव सेना युद्ध के लिये तैयार होकर सामने खड़ी है। अतः हम लोग इस सेना पर किस तरह से विजय कर सकते हैं ? इस विषय में आपको जल्दी से जल्दी निर्णय लेना चाहिये। द्रोणाचार्य से पाण्डवों की सेना देखने के लिये प्रार्थना करके अब दुर्योधन उन्हें पाण्डव सेना के महारथियों को दिखाता है – स्वामीरामसुखदास जी