भगवद गीता अध्याय 1 " अर्जुन विषाद योग "

 

 

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अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग 

01-11 दोनों सेनाओं के प्रधान शूरवीरों और अन्य महान वीरों का वर्णन

 

 

भगवद गीता अध्याय 1 " अर्जुन विषाद योग "

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।

नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥1.7॥

 

अस्माकम् – हमारे; तु-परन्तु; विशिष्टा–विशेष रूप से; ये-जो; तान्–उनको; निबोध -जानकारी देना, द्विज-उत्तम-ब्राह्मण श्रेष्ठ; नायका:-महासेना नायक; मम -हमारी; सैन्यस्थ -सेना के; संज्ञा-अर्थम्-सूचना के लिए; तान्–उन्हें; ब्रवीमि वर्णन कर रहा हूँ; ते-आपको।

 

हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! हमारे पक्ष की ओर के उन सेना नायकों के संबंध में भी सुनो, जो सेना को संचालित करने में विशेष रूप से निपुण हैं। अब मैं तुम्हारे समक्ष उनका वर्णन करता हूँ।। 1.7 ।।

 

 ‘अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ‘ दुर्योधन द्रोणाचार्य से कहता है कि हे द्विजश्रेष्ठ ! जैसे पाण्डवों की सेना में श्रेष्ठ महारथी हैं , ऐसे ही हमारी सेना में भी उनसे कम विशेषता वाले महारथी नहीं हैं बल्कि उनकी सेना के महारथियों की अपेक्षा ज्यादा ही विशेषता रखने वाले हैं। उनको भी आप समझ लीजिये। तीसरे श्लोक में ‘पश्य’ और यहाँ ‘निबोध ‘ क्रिया देने का तात्पर्य है कि पाण्डवों की सेना तो सामने खड़ी है इसलिये उसको देखने के लिये दुर्योधन ‘पश्य’ (देखिये ) क्रिया का प्रयोग करता है परन्तु अपनी सेना सामने नहीं है अर्थात् अपनी सेना की तरफ द्रोणाचार्य की पीठ है । इसलिये उसको देखने की बात न कहकर उस पर ध्यान देने के लिये दुर्योधन निबोध  (ध्यान दीजिये) क्रिया का प्रयोग करता है। ‘नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते’ मेरी सेना में भी जो विशिष्ट-विशिष्ट सेनापति हैं, सेनानायक हैं , महारथी हैं – मैं उनके नाम केवल आपको याद दिलाने के लिये ,आपकी दृष्टि उधर खींचने के लिये ही कह रहा हूँ। ‘संज्ञार्थम्’ पद का तात्पर्य है कि हमारे बहुत से सेनानायक हैं । उनके नाम मैं कहाँ तक कहूँ ? इसलिये मैं उनका केवल संकेतमात्र करता हूँ क्योंकि आप तो सबको जानते ही हैं। इस श्लोक में दुर्योधन का ऐसा भाव प्रतीत होता है कि हमारा पक्ष किसी भी तरह कमजोर नहीं है परन्तु राजनीति के अनुसार शत्रुपक्ष चाहे कितना ही कमजोर हो और अपना पक्ष चाहे कितना ही सबल हो – ऐसी अवस्था में भी शत्रुपक्ष को कमजोर नहीं समझना चाहिये और अपने में उपेक्षा , उदासीनता आदि की भावना किञ्चिन्मात्र भी नहीं आने देनी चाहिये। इसलिये सावधानी के लिये मैंने उनकी सेना की बात कही और अब अपनी सेना की बात कहता हूँ। दूसरा भाव यह है कि पाण्डवों की सेना को देखकर दुर्योधन पर बड़ा प्रभाव पड़ा और उसके मन में कुछ भय भी हुआ। कारण कि संख्या में कम होते हुए भी पाण्डव सेना के पक्ष में बहुत से धर्मात्मा पुरुष थे और स्वयं भगवान थे। जिस पक्ष में धर्म और भगवान रहते हैं , उसका सब पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। पापी से पापी , दुष्ट से दुष्ट व्यक्ति पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। इतना ही नहीं पशु-पक्षी , वृक्ष-लता आदि पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। कारण कि धर्म और भगवान नित्य हैं। कितनी ही ऊँची से ऊँची भौतिक शक्तियाँ क्यों न हों हैं वे सभी अनित्य ही। इसलिये दुर्योधन पर पाण्डव सेना का बड़ा असर पड़ा परन्तु उसके भीतर भौतिक बल का विश्वास मुख्य होने से वह द्रोणाचार्य को विश्वास दिलाने के लिये कहता है कि हमारे पक्ष में जितनी विशेषता है उतनी पाण्डवों की सेना में नहीं है। अतः हम उन पर सहज ही विजय कर सकते हैं- स्वामी रामसुखदास जी 

 

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